Go to full page →

शिष्यपन की कसौटी SC 46

“यदि कोई मसीह में हो तो नई सृष्टि है, पुराणी बातें बीत गई हैं देखो वे नई हो गई है”॥ SC 46.1

मन परिवर्तन की परिस्थितियों की श्रुंखला का विशद वर्णन संभव नहीं; क्योंकि कोई भी आदमी यह नहीं कह सकता कि परिवर्तन हुआ ही नहीं। खिष्ट ने निकुदेमुप से कहा, “हवा जिधर चाहती है और तू उसका शब्द सुनता है पर नहीं जानता वह कहाँ से आती और किधर जाती है। जो कोई आत्मा से जन्मा है वह ऐसा ही है।” योहन ३:८। अदृश्य वायु की तरह, जिसे देखना संभव नहीं, किंतु जिसके प्रभाव की प्रितिती हो जाती है, ईश्वर का आत्मा मनुष्य के में चेतना डाल रहा है। यह प्राणमयी शक्ति जो अदृश्य हे, मनुष्य को पुन: जाग्रत कर अनुप्राणित करती, तथा नूतन जीवन के स्पंदन भर देती है। यही अदृश्य शक्ति मानव में ईश्वर को प्रतिमूर्ति की स्थापना करती है। इस पवित्र आत्मा के कार्य अनुभवगम्य नहीं, अप्रत्यक्ष हैं, किंतु इसके प्रभाव प्रत्यक्ष हैं। यदि इससे हृदय में नूतन चेतना आई तो सारा जीवन उसकी साक्षी में अभिनव उल्लास प्रगट करेगा। हम स्वयं अपने बल पर हृदय में परिवर्तन नहीं ला सकते, हम स्वयं अपनी सामर्थ्य से ईश्वर में तदात्म्व नहीं हो सकते, हम अपनी भक्ति अथवा अपने पुण्य पर भरोसा नहीं कर सकते, फिर भी हमारे जीवन में यह साफ प्रगट होगा कि ईश्वर का अनुग्रह रहने से चरित्र में, अभ्यासों में उद्योग और उद्देश में परिवर्तन साफ झलकेगा। पहले ये कैसे और क्या थे, और अब कैसे और क्या हैं, इसकी तुलना करने से आप का परिवर्तन स्पष्ट हो जायेगा। चरित्र का पता आकस्मिक भलाई अथवा बुरी के कार्यो से नहीं मिलेगा किंतु स्वाभाविक वचनों और कार्यो की प्रकृति और लक्ष्य से मिलेगा॥ SC 46.2

यह भी हो सकता है कि चाल चलने के बह्याव्यवाहर में सफाई और पवित्रता आ जाय किंतु यीशु की अनुप्राणित करने को शक्ति न आये। अपने प्रभाव को बढ़ाने की इच्छा और दूसरों की आँखों में बढ़ा सम्मानित होने की अभिलाषा भी जीवन को स्वच्छ और पवित्र बना सकती है। आत्म-गौरव भी कुवासनाओं में पड़ने से हमें रोक सकता है। स्वार्थी भी दानपुण्य आदि कर सकता है। तब, यह कैसे निर्णय हो सकता है कि हम लोग किस धग में हैं, ईश्वर के अथवा शैतान के? SC 46.3

तब प्रश्न ये उठेंगे--हृदय पर किसका अधिकार हे? हमारे विचार किस पर एक केन्द्रित हैं? किसके विषय में हम संभाषण करना पसन्द करते हैं? किसकी ओर हमारे समस्त अनुराग तथा सारी स्फूर्ति लगी हुई हे? यदि हम यीशु के वर्ग में हैं, यीशु के हैं, तो हमारे समस्त विचार उनके आधीन हैं, और हमारी सारी मधुर कल्पनाएं उन्हीं की हैं। हम जो कुछ भी हैं, और हमारी जो कुछ भी है सभी कुछ उनपर अर्पित है। हम तब उनका रूप हृदय में स्थापित करने को, उनकी चेतना में स्वांस लेने को, उनके आदेश मानने को और उन्हें सदा प्रसन्न करने को प्रस्तुत रहते हैं॥ SC 46.4

जो कोई भी यीशु में आत्म-विसर्जन कर नये जीवन की प्राप्ति करेगा, वह पवित्र आत्मा का नया फल लायेगा, वे “प्रेम, आनंद, मेल, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता और संयम हे।” गलतियों ५:२२, २३। अब ये लोग पहले की भोग-लिप्सा, आसक्ति और खालच के अनुसरणपने चरित्र कुत्सित नहीं बनायेंगे किंतु ईश्वर के पुत्र पर दृढ़ विश्वास कर ये उनका अनुसरण करेंगे, उनके विमल चरित्र की प्रतिच्छाया अपने चरित्र पर लाएगे और उनके अनुसार ही पवित्र और पुनीत हो उठेंगे। जिन वस्तुओं से वे पहले घृणा करते थे उनको वे अब प्यार करते हैं और जिनसे पहले वे प्रेम रखते थे उनको अब घृणा करते थे उनको वे अब प्यार करते हैं और जिनसे पहले वे प्रेम रखते थे उनको अब घृणा करते हैं। घमंडी और आत्म-प्रशंषी विनीत और नम्र हो जाते हैं। वकवादी और जिद्दी गंभीर तथा उदार बन जाते हैं। शराबी संयमी हो जाता है, लम्पट पवित्र बन जाता है। संसार के मिथ्या और पाखंडपूर्ण व्यवहार तथा रीतियाँ उठ जाती हैं। इसी से कहा गया है कि सच्चे ईसाई ब्राम्हाडंम्बर से भरे नहीं देखते किंतु वे हृदय में छिपे हुए मनुष्यत्व को परखते हैं--“तुम्हारा सिंगार ऊपरी न हो जैसा बाल गूंथने और सोने के गहने या भांति भांति के कपड़े पहिनना। पर हृदय के गुप्त मनुष्यत्व उस नम्र और शांत आत्मा के अविनाशी शोभा सहित।” १ पतरस ३:३, ४॥ SC 47.1

यदि पश्चाताप ने सुधार नहीं लाया तो वह वास्तविक पश्चाताप का आदर्श हो नहीं सकता। यदि उसने अंधक की वस्तु वापस कर दी, चोरी की हुई चीज लौटा दी, अपने पाप स्वीकार कर लिये, और ईश्वर तथा अपने बन्धुओं पर सच्चा प्रेम दिखाया, तो पापी भी मृत्यु जीवन की ओर प्रगति करेगा। SC 47.2

जब हम भूल-भ्राँतियों से भरे हुए हृदय के लिए, अपने पाप के गठ्ठर को संभाले खीष्ट के पास उपस्थित होते हैं और उनके अनुग्रह तथा क्षमाशीलता के भागी बन जाते हैं, तो हृदय में प्रेम का सोता फूट पड़ता है। सारे गठ्ठर का बोझ हल्का हो जाता है, क्योंकि खीष्ट का अनुग्रह आदेशों को भी मधुर बना देता है। फिर तो गंभीर कर्त्तव्य। आनन्द से ओत-प्रोत मालूम पड़ता है, बलिदान उल्लासमय हो जाता है। वाही मार्ग जो पहले घटाटोप अंधकार से अच्छादित था, पुनीत प्रभाकर की उज्ज्वल प्रभा से आलोकित हो उठता है॥ SC 47.3

खीष्ट के चरित्र की मधुरता उनके शिष्यों में स्पष्ट दीख पड़ेगी। खीष्ट को तो ईश्वर की आज्ञापालन करने में आनंद मिलता था। ईश्वर पर प्रगाढ़ प्रेम, उनके गौरव के लिए अदम्य उत्साह हमारे मुक्तिदाता के जीवन को स्पन्दित करते रहे। प्रेम ने यीशु के सारे कार्यो को सुशोभित एवं उन्नत करा दिया। प्रेम ईश्वर से है। यह उस हृदय में उध्दूत नहीं हो सकता जिसने अपने आपको ईश्वर पर अर्पित नहीं किया। यह उसी हृदय में रहेगा जहाँ यीशु अधिष्टित हैं। “हम इस लिए प्रेम करते हैं कि पहले उनसे हम से प्रेम किया।” १ योहन ४:१८। स्वर्गीय अनुग्रह से जो हृदय आभासित एवं नवीन हुआ है। उसके कार्यो का सिध्दान्त केवल प्रेम ही रहेगा। यह चरित्र को विमल, स्वाभविक प्रवृत्तियों को अनुशासित, उद्वेगों और काम को संयमित, शत्रुता को परिवर्तित तथा अनुरागों को उन्नत बना देता है। इस ईश्वरीय प्रेम को आत्मा में स्थापित कर लेने से जीवन मधुर हो उठता है तथा समस्त वातावरण आलोकमय स्पंदन से भर जाता है॥ SC 47.4

ईश्वर के सभी पुत्रों को साधारणतः और उनके अनुग्रह पर विश्वास करनेवाले नये धार्मिक लोगों को विशेषतः दो बड़े भूलो से सतर्क रहना चहिए। पहली भूल तो वही है जिसका वर्णन ऊपर हो चूका है, अर्थात अपने कामों, अपनी शक्ति के भरोसा पर ईश्वर में तादात्म्य की चेष्टा। जो कोई ईश्वर के विधान के अनुरूप चलता हुआ अपनी सामर्थ्य से परिवर्तित होना चाह रहा है, वह असंभव की चेष्टा कर रहा है। मनुष्य जो कुछ अपने बल पर और ख्रीष्ट की सहायता के वगैर करेगा, वह स्वार्थ और पाप से भरा रहेगा। केवल ख्रीष्ट का अनुग्रह ही विश्वास के द्वारा हमें पवित्र बना सकता है॥ SC 48.1

इस भूल के विपरीत दूसरी भूल है और वह भी कम खतरनाक नहीं। इस मे यह भ्रान्ति होती है की ख्रीष्ट पर विश्वास करने से ईश्वर के नियमो का पालन से छुटकारा मिल जाता है। अर्थात अब विश्वास के द्वाराही ख्रीष्ट के अनुग्रह के प्राप्ति होगी, तो अपनी मुक्ति के लिए हमें कुछ करना ही नहीं। SC 48.2

लेकिन यहाँ इस बात पर गोर करना आवश्यक है की आज्ञा-पालन का अर्थ आदेशों का बाह्य अर्थ में पालन नहीं होता, परंतु पूर्ण सेवा होता है। ईश्वर की व्यवस्था ईश्वर के स्वाभाव की अभिव्यक्ति है, वह प्रेमके सिद्धांत का दूसरा रूप है। और इसी सिद्धांत पर उसके लौकिक एवं पारलौकिक साम्राज्य की नींद पड़ी है। यदि हमारे ह्रदय ईश्वर के अनुरूप होकर जीवन ज्योति और जाग्रति से भर जांए, इसी हमारी आत्मा में ईश्वरीय प्रेम सदृढ़ हो जाय तो क्या ईश्वरीय व्यवस्था का पालन हम जीवन में न करेंगे? जब प्रेम के सिद्धांत ने ह्रदय में जड़ जमा दिया, जब मनुष्य का पुनर्जागरण ईश्वर के प्रतिमूर्ति के रूप में हुआ, तो ईश्वर की नई वाचा तो पूरी हो गई, “में अपनी व्यवस्थाओ को इनके मन में डालूँगा और उनके हृदयों पर लिखूँगा।” इब्री १०:१६। फिर जब आज्ञाएँ ह्रदय में प्रकित हो गई तो क्या वे जीवन को अपने अनुरूप नहीं बनायेंगी? शिष्यपन की सच्ची परख आज्ञा-पालन में है क्यों की आज्ञा-पालन प्रेम की सेवा और उसके प्रति भक्ति और श्रद्धा ही है। पवित्रशास्त्र में इस प्रकार लिखा है - “परमेश्वर का प्रेम यह है की हम इसकी आज्ञाएँ मानें।” “जो कोई कहता है की मैं इसे जान गया हूँ और उसकी आज्ञाओं को नहीं मानता वह छुठा है।” १ योहन ५:३, २:४। विश्वास आज्ञा-पालन में बाधा नहीं डालता, ईश्वर के नियमों से छुटकारा नहीं दिलाता। आज्ञा-पालन से छुटकारा दिलाना तो दूर, विश्वास ही वह शक्ति है जो हमें यीशु के अनुग्रह प्राप्त करने की सामर्थ्य देती है और जिसके फलस्वरूप हम आज्ञा-पालन में दत्त चित्त होतें हैं॥ SC 48.3

लेकिन आज्ञा-पालन के कारण हम अपनी मुक्ति नहीं प्राप्त करते। मुक्ति तो ईश्वर का स्वतंत्र वरदान है और वह विश्वास से ही प्राप्त होती है। किंतु विश्वास का फल आज्ञा-पालन है। “तुम जानते हो की वह इसलिये प्रगट हुआ कि पापों को हर ले जाए और उसमे पाप नहीं। जो कोई उसमे बना रहता है वह पाप नहीं करता। जो कोई पाप करता है उसने न उसे देखा है और न उसको जाना है।” १ योहन ३:५, ६। बस वाही सच्ची कसोटी है। यदि हम यीशु में वास करते है, यदि ईश्वरीय प्रेम हमारे ह्रदय में अधिष्टित हैं तो हमारे मनोभाव, विचार, कार्य सभी ईश्वर कि इच्छाशक्ति कि अभिव्यक्ति रूप, पवित्र व्यवस्था के अनुरूप होंगे। “हे बालको, किसीके भरमाने में न आना जो धर्म के कम करता हैं वाही उसकी नाई धर्मी है।” १ योहन ३:७। सिनैं में दिए दस आज्ञा में जैसा प्रगट हुआ है उसी ईश्वरीय प्रेमके माप-दंड के द्वारा धार्मिकता कि वही परिभाषा हुई है॥ SC 49.1

वह तथाकथित विश्वास जिसके बारे यह कहा गया है कि वह ईश्वर के आज्ञा-पालन से मनुष्य को छुटकारा दिला देता है, वह विश्वास नहीं है। वह तो कल्पना है। “विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।” “विश्वास भी यदि कर्मसहित न हो तो” इफिसियों २:८; याकूब २:१७। यीशुने पृथ्वी में प्रदार्पण करने के पहले अपने बारे यह कहा था, “है मेरे परमेश्वर में तेरी इच्छा पूरी करने से प्रसन्न हूँ और तेरी व्यवस्था मेरे अंत:करण में बनी है।” भजनसंहिता ४०:८। और जैसे ही वे स्वर्गरोहन कर चुके उन्होंने कहा, “मैंने अपने पिता की आज्ञाओं को माना है और उसके प्रेम में बना रहता हूँ।” योहन १५:१०। पवित्रशास्त्र कहता है, “यदि हम उसकी आज्ञाओं को मानेंगे तो इससे जानेंगे की हम उसे जान गए है। जो कोई यह कहता है की मैं उसमें बना रहता हूँ उसे चाहिए की आप भी वैसाही चले जैसे वह चलता था।” १ योहन २:३, ६। “क्योंकि मसीह भी तुम्हारे लिए दु:ख उठा कर तुम्हे एक नमूना छोड़ गया है की तुम उसकी लोकपर चलो।” १ पितर २:२१॥ SC 49.2

अनंत जीवन की प्राप्ति के लिए जो शर्त पहले थी वह अब भी है - जैसी शर्त हमारे प्रथम माता-पिता के समक्ष उनके पतनके पूर्व पैरेडाइज में थी वैसीही वह अब भी है। और वह शर्त यही थी की ईश्वरीय व्यवस्था का पूर्व पालन, पूर्ण धार्मिकता का भाव। यदि इस शर्त से किसी भी कम शर्त पर अनंत जीवन की प्राप्ति हो जाये, तो सारे विश्व का अनंत खतरे में पद जाय। तब सममिये पाप का भाग प्रशस्त हो उठे और यातनाओं तथा दुश्चिंताओं का बाजार गर्म हो उठे॥ SC 49.3

पतन के पहले आदम यदि चाहता तो ईश्वरीय व्यवस्था का पालन कर शुद्ध चरित्र का गठन कर लेता। किंतु वह असफल हुआ, उसने ईश्वर के नियम का उल्लंघन किया। फिर उसके पाप के कारण हमारी प्रकृति भी अधोगामी हुई। अब हम भी धर्मी नहीं बन सकते। क्योंकि हम लोगी पापी और अशुद्ध हैं, अत एव हम लोग ईश्वरीय व्यवस्था को पूरी तरह नहीं मान सकते। हम में वह पवित्रता जन्मजात नहीं जिसके बलपर ईश्वर की व्यवस्था का हम पालन कर सकते हैं। किंतु ख्रीष्टने हमारे उद्धार का एक मार्ग प्रशस्त किया है। वे उन कष्टों और मोहक तृष्णाओं के बीच जीवनस्थापन कर चुके वे जिन के बीच हम रहते हैं। उन्होंने निष्कलंक जीवन व्यथित किया। उन्होंने हमारे लिए प्राणत्याग किया और अब वे हमारे पापों को लेने तथा अपनी धार्मिकता देने को प्रस्तुत हैं। यदि आप अपने को उनपर न्योंछावर कर दे और उन्हें मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार कर लें तो चाहे कितना भी पापी आपका जीवन क्यों न रहा हो, उनके कारण आपकी गिनती धर्मियों में होगी। आप के स्वाभाव के जगह यीशु का स्वभाव रहेगा, और ईश्वर के समक्ष आप वैसे रूप में ग्रहण कर लिये जायेंगे जैसे आपने कभी कोई पापही नहीं किया हो॥ SC 50.1

केवल इतना ही नहीं, यीशु ह्रदय तक को परिवर्तित कर देते हैं। वे आपके ह्रदय में विश्वास के द्वारा निवास करते हैं। आपके लिये अब आवश्यक है की विश्वास की दृढ़ता एवं आत्म-समर्पण की नम्रता के बलपर आप ख्रीष्ट से इस संबंध को सुदृढ़ करते जाय। जब तक आप ऐसा करते रहेंगे, वे आपके अन्तर में तब तक ऐसी सामर्थ्य भरते जायेंगे की आपकी इच्छाशक्ति एवं कर्म उनके मनके मुताबिक हों। अत एव आप कह सकेंगे की “मैं शरीर में अब जो जोता हूँ जो परमेश्वर के पुत्र पर है जिसने मुक्त से प्रेम किया और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।” गलतियों २:२०। अपने शिष्य को यीशुने ऐसा ही कहा था, “बोलनेवाले तुम नहीं हो पर तुम्हारे पिता का आत्मा तुम में बोलनेवाला है।” मती १०:२०। फिर अब यीशु आपके अन्तस्थल को सन्दित करते रहेंगे तो आप उन्ही की शक्तियों को प्रत्यक्ष करेंगे - धार्मिकता के महान कार्य, आज्ञा-पालन के विषदकार्य ही आप कर पायेंगे॥ SC 50.2

अत एव हममें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसका हम गर्व न कर सकें। आत्म-श्लाघा अथवा आत्म-गौरव के लिए हमारे पास कोई कारण नहीं। ख्रीष्ट की धार्मिकता जो हम में जगाई गई है, वही हमारी आशा की दृढ़ भित्ति है। और यह ख्रीष्ट के द्वारा होता है जो हम में करता है॥ SC 50.3

जब हम विश्वास का उल्लेख कर रहे हैं, तो इस धार्मिक विश्वास अथवा भक्ति और एक दुसरे प्रकार के छिछले विश्वास में जो फर्क है उसे समज लें। यह छिछला विश्वास भक्ति से अलग है। ईश्वर की अस्तित्व, ईश्वर की शक्ति और उसके वचन ऐसे सत्य हैं जिन्हें शैतान और उसके सारे शिष्य भी अपने ह्रदय से नहीं इन्कार कर सकते। बायबल में लिखा है की “दुष्टात्मा भी विश्वास रखते और थरथराते हैं।” किंतु यह विश्वास नहीं है। जहाँ ईश्वर पर विश्वास और साथ साथ अपना समर्पण भी हो, जहाँ ह्रदय उन पर न्योछावर कर दिया जाय, अनुराग उन पर ही केन्द्रित कर दिये जाँय, वही विश्वास है। यही धार्मिक विश्वास प्रेम द्वारा क्रियाशील होता है और आत्म-शुद्धि करता है। वह ह्रदय जो अपनी पूर्वावस्था में ईश्वरीय व्यवस्था को ग्रहण नहीं करता था, उस के प्रतिकूल चलता था अब उसकी आज्ञाओं को मान कर प्रमुदित होता है और स्तोत्रकर्ता के शब्दों की प्रतिध्वनी करता है, “आद, मैं तेरी व्यवस्था में कैसी प्रीति रखता हूँ; दिनभर मेरा ध्यान उसी पर लगा रहता है।” भजन संहिता ११८:८७। तब व्यवस्था की धार्मिकता हम में पूर्ण होती है, क्यों की हम शरीर की अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं करते प्रत्युत आध्यात्मिक की॥ SC 51.1

कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने ख्रीष्ट की क्षमाशील प्रीति का स्वाद चख लिया है और इसलिए ईश्वर के सच्चे पुत्र होने के इच्छुक वे हो उठे हैं, किंतु उन्हें कुछ ऐसा भान होता है की उनका चरित्र सिध्द नहीं है, जीवन त्रुटिपूर्ण है। अब ऐसे लोगो को यह संभ्रम होगा की उनका ह्रदय पवित्र आत्मा द्वारा शुद्ध एवं पुन:नविन बना या नहीं? ऐसे लोगो को मेरी वही सलाह होगी की हताश होकर पीछे न मुड़े। हमें तो यीशु के पैरो के सामने छुककर अक्सर रोना ही पड़ेगा; हमारे दोष और भूल ही असंख्य हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं की हम आशा छोड़ दे, और उत्साह खोकर हताश हो जाँय। शत्रु हमें हरा सकता है की हम सदा के लीए परित्यक्त नहीं रहेंगे, एवं ईश्वर द्वारा अग्राह्य घोषित नहीं होंगे। ऐसा कदापि नहीं होगा; ख्रीष्ट ईश्वर के दहिने हाथ की ओर हैं और वे सदा सदा हमारे परित्राण के लीए ईश्वर से निवेदन करते हैं। प्रिय यहान्ना ने कहा है, “है मेरे बालको मैं ये बातें तुम्हे इसलिए लिखता हूँ की तुम पाप न करो ओर यदि कोई पाप करे तो पिता के पास हमारा एक सहायक है अर्थात धार्मिक यीशु मसीह।” १ यहुन्ना २:१। फिर ख्रीष्ट के वे शब्द भी मत भूलिये, “पिता तो आप ही तुम से प्रीति रखता है।” यहुन्ना १६:२६। उनकी इच्छा है की आप उनके रूपमें लौट जाँय, ताकि वे अपनी पवित्रता आप में प्रतिबिंबित देख सकें। बस यदि आप अपने आपको उनपर छोड़ दें, तो वे आप सें श्रेष्ठ कार्य शुरू कर ख्रीष्ट के दिनों तक बराबर श्रेष्ठता भरते जायेंगे। और भी अधिक श्रद्धा से प्रार्थना कीजिये, और भी भक्ति से उनपर विश्वास कीजिये। जैसे जैसे हम अपनी खुद की तकाद पर विश्वास करते जाँय, वैसे वैसे ही अपने मुक्तिदाता यीशु की शक्ति पर भरोसा करते चलें और अपनी मुखक्षी की वास्तविक प्रभा के स्त्रोत यीशु की सराहना करते चलें। SC 51.2

आप यीशु के समक्ष जितना निकट होते चलेंगे, उतने ही सदोष अपनी आँखों में ही स्वयं बचेंगे। इसका कारण यह है की निकटता के कारण आप की दृष्टी साफ़ होती जायेगी और आप के दोष उनकी पूर्णता के तुलना में स्पष्ट और विस्तृत रूप में प्रतीत होंगे। इसी से यह प्रमाण मिल जायेगा की शैतान के जाल में अब अपनी शक्ति खो रहे है और ईश्वर का आत्मा आपको जाग्रत कर रही है॥ SC 52.1

जिस ह्रदय में अपने पाप की प्रतीति नहीं उस ह्रदय में यीशु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम का निवास असंभव है। ख्रीष्ट के अनुग्रह द्वारा परिवर्तित आत्मा में उस के ईश्वरीय चरित्र पर श्रद्धा भर जायेगी। किंतु यदि हम अपने नैतिक पतन का अवलोकन न कर सकें तो यह बात निर्विवाद रहेगी की हमें ख्रीष्ट के धवल प्रकाशमय सौंदर्य और सुषमा की प्रतीति नहीं हुई॥ SC 52.2

जितना भी हम अपने चरित्र और जीवन में सराहना के योग्य गुण कम देखेंगे, उतना ही अपने मुक्तिदाता के चरित्र सें सराहना के योग्य गुण अधिक देख सकेंगे। अपने पापों को देख हम उनकी और तपकते है जो हमें क्षमा कर सकते हैं। फिर अपनी कमजोरी जानकर जब आत्मा ख्रीष्ट की ओर प्राणपण से दोड़ पड़ती हैं तो यीशु अपनी सारी शक्ति उस के समक्ष खोल देंगे। अपनी आवश्यकता की भावना जितनी जबर्दस्त तरीके से हमें उनकी ओर और ईश्वर की ओर प्रेरित करेगी, उतने ही भव्यरूप हम उन के चरित्र को देख पायेंगे और उतने ही पूर्ण रूप में हम उनके रूप को प्रतिबिंबित कर सकेंगे॥ SC 52.3

यीशु मेरे अंतरस्थल में कर दो अंकित यह बात अभी,
तुम्ही एक जीवन दाता, मुक्तिदाता, करुणामय भी,
छूटे मेरा तन-मन-धन भी, टूटे जग के संबंध सभी,
पर मेरा तेरा जो नाता, वह नहीं, नहीं, टूटे कभी॥ SC 52.4