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प्रभु में आनंद SC 95

ईश्वर के पुत्रों को यीशु के प्रतिनिधि हो कर उनके सत्य, कल्याणकारी और क्षमाशील गुणों को प्रगट करना है। जिस प्रकार से यिशुने अपने पिता के सुंदर चरित्र को व्यक्त किया है, उसी प्रकार हम लोगों को यीशु के विमल चरित्र का प्रचार और प्रसार इस संसार में करना चाहिये क्योंकि उन के ममत्वपूर्ण प्रेम और दया से वह अनभिज्ञ है। यीशु ने कहा है, “जैसे तुने मुझे जगत में भेजा वैसे ही मैं ने भी उन्हें जगत में भेजा।” “मैं उन में और तू मुझ में की……जगत जाने की तू ने मुझे भेजा।” योहन १७:१८,२३। प्रेरित पावल ने यीशु के शिष्यों को कहा, “तुम मसीह की पत्नी हो,” “उसे सब मनुष्य पहचानते और पढ़ते हैं।” २ कुरिन्थ ३:३,२। अपने प्रत्येक पुत्र में यीशु एक संदेश इस जगत के लिए भेजता है। यदि आप उनके शिष्य हैं तो ख्रीष्ट ने आप में आप के परिवार के लिए, गांव के लिए, सड़कों के लिए एक पत्र भेजा है। आप के ह्रदय में यीशु का वास है और वे उन लोगों के ह्रदय में वार्तालाप करना चाहते हैं जो उन्हें नहीं जानते। शायद इन लोगों ने बायबल का पाठ नहीं किया है, उसके पृष्टों से जिस की वाणी फूटती है, उसे अथवा उस वाणी को ही नहीं सुना है, ईश्वर की कृतियों उसके अद्वितीय प्रेम को कभी नहीं देखा है। किंतु यदि आप यीशु के सच्चे प्रतिनिधि हैं तो आप के द्वारा वे ईश्वर के कल्याणकारी गुणों के आकृष्ट किये जा सकते हैं उसके प्रेम की प्रशंसा तथा उसकी सेवा में भी प्रवृत्त किये जा सकते हैं॥ SC 95.1

ईसाई लोग स्वर्ग के मार्ग का पथ-प्रदर्शक ठहराए गए हैं। उनके ऊपर यीशु की ज्योति जो चमकती है उसे ही उन्हीं संसार पर प्रतिभासित करना है। उनका जीवन और चरित्र इतना निर्मल हो जाना चाहिये की उसकी निर्मलता और उज्ज्वलता देख दुसरे लोग भी ख्रीष्ट और उनकी सेवाओं की उचित कल्पना कर सकें। SC 95.2

यदि हम लोग ख्रीष्ट के सच्चे प्रतिनिधि हैं तो ख्रीष्ट की सेवाओं की वास्तविक प्रभा को निश्चय ही आकर्षक और मोहक बनायेंगे। वे ईसाई जो अपनी आत्मा को उदासी और शोक के अंधकार से आच्छत्र कर लेते हैं तथा निरंतर कुड़कुडाते और शिकायत करते रहते हैं दुसरे लोगों के समक्ष ईश्वर और ईसाई जीवन के मुद्दे आदर्श उपस्थित करते हैं। वे ऐसा आदर्श रखते हैं मानो ईश्वर अपने पुत्रों को हर्षोल्लास में पूर्ण देख कर खुश नहीं होता। ऐसा कर वे ईश्वर को मिथ्या बनाते है और हमारे स्वर्गीय परमपिता को कलंकित करते हैं॥ SC 95.3

ईश्वर के पुत्रों को अविश्वास और उदासी के गर्त में ले जाकर शैतान बड़ा ही खुश होता है। हमारा भरोसा ईश्वर से हटते देख वह प्रसन्न होता है। उसकी उद्धार और रक्षा SC 95.4

करने की शक्ति और इच्छा पर जब हम संदेह करने लगते हैं, तो वह फुला नहीं समाता। वह हमें यह अनुभव करने चाहता है की ईश्वर अपने दया के प्रबंध के द्वारा हमारी हानी करेगा। ईश्वर को करुणा और दया के भाव से विहीन चित्रित करना तो शैतान का काम है ही। उसके बारे हो सत्य व्यक्त हैं, उसकी व्याख्या वह गलत करता है। वह हमारे मस्तिष्क में ईश्वर की मिथ्या कल्पनाएँ और विचार भर देता है। अतएव ईश्वर के सत्य वचनों पर विचार न कर हम भी शैतान द्वारा प्रेरित अशुद्ध और भ्रष्ट विचारों में विचारों में डूब जाते है, और उस पर अविश्वास प्रगट कर तथा उसके विरुध आक्षेप कर हम ईश्वर का निरादर करते है। शैतान को सतत चेष्टा यह रहती है हमारा धार्मिक जीवन अंधकार से भरा है। वह धार्मिकता को कष्टमय और विघ्ने से भरा दिखाना चाहता है। जब ईसाई अपने जीवन मे धर्म का ऐसा ही रूप खड़ा करता है तो वह अपने अविश्वास के कारन वही कम करता है जो शैतान अपने मिथ्या प्रदर्शन व्दारा करता है॥ SC 96.1

जीवन पथ के बहुत से पथिक भग्नी अपनी गलतियों, विफलतायों और नैराश्य के बारे अहिक सोचते है और अपने ह्रदय को शोक और क्षोभ से टुकड़े टुकड़े कर लेते है। जब में यूरोप में थी, तो एक धर्म बहन ने मेरे पास पत्र लिखा। वह बहुत संतप्त थी और उसने उत्साह और शांत्याना के कुछ शब्द मांग भेजा। जिस दिन चिठ्ठी पढ़ी उसके बाद की रत मे मैं ने एक स्वप्न देखा कि मैं एक बैग में हूँ और एक पुरुष जो उसके मालिक के जैसा लगा, मुझे उस बाग के रास्ते से लिए जा रहा है। मैं फूल चुन रही थी और उनका आनंद ले रही थी तो इस बहन ने, जो मेरे संग थी, मुझे पुकारा और एक झाड़ी को दिखाया जो उसके मार्ग को रोके हुए थी। वह दु:खित और चिंतित हो रही थी। वह पथदर्शक के अनुसार मार्ग पर नहीं चल रही थी किंतु झाड़ी और झुरमुट में चल रही थी। वह चिल्ला रही थी कि कितने दु:ख की बात है जो इस सुंदर बाग में कांटे और झाड़ी भर गई है। तब उस पथ-प्रदर्शक ने कहा, - “वे तुम्हें केवल चुभेंगे तुम केवल गुलाब, कुंदे, अपराजिता आदि फूलों को चुनो॥” SC 96.2

क्या आप को अपने जीवन के अनुभवओं में कुछ दौप्त और धवल अनुभव प्राप्त नहीं हुए! क्या कमी ऐसा मंगलमय मौका नहीं आया जब आप का ह्रदय उस ईश्वर के आत्मा की प्रभा से अनुप्राणित हो उल्हास से भर न उठा हो ? जब आप अपने जीवन के अनुभव के अध्यायों पर दृष्टी डालते हैं तो क्या कुछ आकर्षक पृष्ट नहीं दिखाई पडते ? उस सुघंधित पुष्पों की तरह ही क्या ईश्वर की प्रतिज्ञा आप के मार्ग के चारों ओर नहीं उगी हैं ? क्या आप अपने ह्रदय को उनके सौंदर्य और सुंगधि से भर लेना नहीं चाहते? झाड़ियों और काटों से आप के पैरों में घाव हो जावेगे। और यदि आप इन्हें ही चुनेगे और इन्हें ही दूसरों को अर्पित करेँगे तो क्या आप ईश्वर को कलंकित नहीं करेंगे और साथ साथ दूसरों को भी जीवन के मार्ग पर चलने से नहीं रोकेंगे? अपने बिगत जीवन की दु:खद स्मृतियों को बटोर रखना अच्छा नहीं। बीते दु:ख विफलताएं और शोक के बारे बातें करना और चिंतित होना अच्छा नहीं। ऐसा करने से हम हताश हो जायेंगे। और हताश आत्मा में अंधकार ही अंधकार भरा रहता है। यह अंधकार इतना साधन होता है कि ईश्वर का प्रकाश तो आत्मा में प्रवेश पता ही नहीं साथ साथ यह दूसरों के मार्ग पर भी कलि छाया ढँक देता है॥ SC 96.3

परमेश्वर को धन्य कहो कि उसने हमारे समक्ष बड़े ही भव्य चित्र रखे है। हमें यह चाहिये कि हम उनके प्रेमपूर्ण आशीर्वाद और ममत्व के वचन एकत्र कर लें तथा उन्हीं पर सदा ध्यान लगायें। जिन चित्रों को हमें बराबर ध्यान में रखना चाहियें उन मे महत्वपूर्ण चित्र ये है - ईश्वर-पुत्र का अपने पिता के सिंहासन से अलग होना तथा अपने स्वर्गीय रूप को मानवी रूप में परिवर्तन करना ताकि वे मनुष्यों को शैतान के चंगुल से निकाल सकें ; हमारें हित के लिए उनकी जीत जिससे मनुष्यों के लिय स्वर्ग का व्दार खुल गया, और मनुष्यों की आँखों के सामने वह ईश्वरीय प्रकोष्ट प्रत्यग्य हो गया जहाँ ईश्वर अपने विभूतियों को प्रत्यग्य करता है ; पाप व्दारा विनाश के गर्त में ढकेले हुए मनुष्य का उद्धार और अनादी अनंत परमेश्वर के साथ संबंध तथा उन मनुष्यों के मुक्तिदाता पर विश्वास और भक्ति कर योशु की धार्मिकता के वस्त्रों को पहन ईश्वर के सिंहासन के पास उपस्थित होना। ईश्वर की इच्छा है कि हम इन्हीं चित्रों पर ध्यान लगावें॥ SC 97.1

जब हम ईश्वर के प्रेम को संदेह की दृष्टी से देखते है, उनकी प्रतिज्ञाओं पर अविश्वास प्रगट करते है तो हम उन्हें अपमानित करते है, और उनके पवित्रात्मा को कष्ट देते है। अपने सरे जीवन भर यदि माता ने प्रनापन से अपने बच्चो को सुख और आराम पहुचाने की चेष्टा की है और अब यदि बच्चे अपनी माँ की शिकायतें बराबर करते है कि उस ने उनकी भखाई नहीं कीं, तो माता के ह्रदय भग्न न होगा ? अपने पुत्रों व्दारा इस प्रकार का व्यवहार क्या माँ-बाप पसंद करेंगे ? अब जिस स्वर्गीय परमेश्वर ने हमारे प्यार के कारण अपना एक मात्र पुत्र हमें सौंप दिया, यदि उसके प्रेम पर हम अविश्वास करें, तो हमें क्यों कर प्यार करेगा ? प्रेरित ने लिखा है, “जिसने अपने निम पुत्र को भी न रख छोड़ा पर उसे हम सब के लिए दे दिया वह उसके साथ हमें और सब कुछ क्यों कर न देगा?” रोजी ५:३२। फिर भी कितने लोग हैं जो वचन से नहीं तो कार्या से यह घोषित करते है कि, “मेरे लिए इतना करना ईश्वर का उद्देश नहीं है। शायद वह दूसरों को प्यार करता है, पर मुझे प्यार नहीं करता॥” SC 98.1

ऐसे सारे विचारों हमारों आत्मा के लिए हानिकारक है, क्योंकि शंका और संशय के प्रत्येक शब्द जब हम मुहं से निकालते है तो शैतान की परीक्षा को आमंत्रित करते है। ये मन मैं संदेह करने की आदत का जड़ जमाती है, और स्वर्ग दूतों को आप की सहायता करने से दूर भगाती है। जब आपको शैतान परीक्षा कर रहा हो , तो शंका और संदेह का एक शब्द भी मुहं से न निकालिए। यदि आप उसकी प्रेरणा मैं पद रहे है तो आप के मस्तिष्क मैं अविश्वास और विरोध की भावना तीव्र हो जावेगी। ऐसी अवस्था मैं जब आप अपने भाव और विरोध की भावनाओं को शब्दों व्दारा करेंगे , तो संदेह के प्रत्येक शब्द से आप मैं हानिकारक प्रतिक्रियायें होंगी, और यह दूसरों के जीवन मैं बीज की तरह जा पड़ेगा , शीघ्र हो अंकुरित होगा और फल भी देगा। तब इसके प्रभाव के विस्तार को रोकना मुश्किल होगा। आप पाप की आसक्ति और शैतान के जाल से विकट चेष्टाओं व्दारा निकल जांय तो निकल जायं लेकिन अन्य लोग जो आप के प्रभाव मैं पद कर अविश्वास के अंधे कुँए में गिरे पड़े है वे शापाद बच कर न निकल सकें। अतएव वैसे ही बातें बोलनी चाहिएं जिस से अध्यात्मिक जीवन और शक्ति बढ़े॥ SC 98.2

स्वर्गदूत गण सदा यह सुन रहे है कि आप अपने स्वर्गीय स्वामी के बारें कैसे वृतांत दूसरों को सुना रहे है। अतएव आप को सदा उन्ही के बारें संभाषण करना चाहिए जो ईश्वर के समक्ष आप को मुक्ति के लिए सतत निवेदन करते है। जब जब आप किसी मित्र से मिले तब तब ईश्वर के गुणगान ही होंगे और हृदयों में रहे। इस से आप के मित्र के विचार शीघ्र ही योशुं की और आकृष्ट होंगे। सबों को क्लेश भोगने पड़ते है , सबों को भारी सहना पड़ता है। सबों को कठिन परीक्षाओं का मुकाबिला करना पड़ता है। अतएव अपने मित्रो से अपने दू:ख रोग और पीडाओं का उल्लेख मत कीजिये। इन्हें ईश्वर के समक्ष प्रार्थना में लाइए। वह नियम बना लीजिये कि शंका अथवा निराश के एक शब्द भी मुहं से न निकालूँगा। आप अपने आशा से भरे और हर्ष से डूबे शब्दों के व्दारा दूसरों के जीवन में प्रकाश तथा उनके उद्योगों में सहस और दृढ़ता भर सकते है॥ SC 98.3

कई साहसी वीर पुरुष हैं जो परीक्षाएं व्दारा बुरी तरह दबे हुए है और स्वार्थ तथा दुव्यसनों से संघर्ष करते करते पिसे जा रहे है ऐसे तुमुल संग्राम प्रवृत लोगों को निराश मत कीजिये। ऐसे लोगों को साहस और आशा के शब्दों व्दारा उत्साहित कीजिये ताकि वे दुने बल से शत्रु पर आ पड़े। तभी योशु की ज्योति आप से फुट निकलेगी। “हम में से न कोई अपने लिए जीता है।” रोमी १४:७। हमारे अप्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव व्दारा कितने लोगों के ह्रदय में नई उमंग और शक्ति भर सकती है अथवा वे निराश हो खीष्ट और सत्य से विमुख जा सकते है। बहुत से लोगों मन में यीशु और उनके जीवन के बारे भांतिमुलक धारणा में है। उन की धारणा यह है कि यीशु में ममत्व नहीं था, अनुराग नहीं था और वे कड़े, रूखे तथा उदासीन थे। बहुधा समस्त धार्मिक अनुभव ही काली धारणा से आवृत्त हैं॥ SC 99.1

अक्सर यह कहा जाता है कि यीशु कई बार रोये, किंतु यीशु को मुश्किराते किसी ने नहीं जाना। हमारे मुक्तिदाता का वास्तविक जीवन दू:खमय था। वे सदा से शोकग्रस्त रहे क्योंकि उन्होंने अपने ह्रदय को सारे मनुष्य के दू:खो के लिए खोल दिया था। परन्तु यदापि उनका जीवन आत्मत्याग पूर्ण था, यदापि उनके जीवन में पीडाओं और चिंताओं की सधन छाया पड़ी हुई थी, तथापि उनकी स्फूर्ति और अन्तचेतना विनष्ट नहीं हुई थी। उनके चेहरे पर शोक की कालिमा कभी नहीं रही किंतु सदा गंभीर शांति की झलक रही। उन का ह्रदय जीवन का अजस्त्र सोत था, और वे जहाँ भी जाते थे विश्राम और शांति , आनंद और उल्हास लिए जाते थे॥ SC 99.2

हमारे मुक्तिदाता बड़े गंभीर थे, पूरी एकनिष्ट से कर्त्तव्य में संलग्न थे, किन्तु कभी उदास अथवा-श्रीहीन नहीं थे। जो भी उनका अनुकरण करेगा अपने जीवन में उद्योगशील रहेगा और वैयक्तिक उत्तरदायित्व को पूरी तरह समझेगा। अस्थिरता जीवन का शमन होना; थोरगूल से भरा हुआ आमोद प्रमोद उसके जीवन से बहिस्कृत होंगे; असभ्य दिल्लगियाँ नहीं होंगी। यीशु के धर्म से गंभीर नदी की प्रशांति मिलती है। हर्षोल्लास के प्रकाश को यह नष्ट नहीं करता; यह प्रसन्नता को दबाता नहीं, और न मुस्कान भरे प्रफुल्ल मुखड़े पर बादल की धूमिल छाया ला गिरता है। ख्रीष्ट सेवित होने नहीं परन्तु सेवा करने आया था। और अब उनका आतुल प्रेम हमारे ह्रदय में स्थापित रहेगा तो हम निश्चय ही उनके आदर्श उदाहरण का अनुकरण करेंगे॥ SC 99.3

यदि हम दूसरों के क्रूर और अन्याय से भरे कार्य अपने ह्रदय में समेत कर रखे रहेंगे तो उन्हें प्यार करना, हमारे लिए मुश्किल होगा, खास कर जिस प्रकार ख्रीष्ट ने हमें प्यार किया, उस तरह प्यार करना तो असंभव ही होगा। किन्तु यदि हमारे ह्रदय में यीशु की हमारे प्रति आश्चर्यजनक प्रेम और दया का भाव बना रहे, तो हम उसी भाव से दूसरों के प्रति बर्ताव भी करेंगे। हमें एक दुसरे को प्यार और सम्मान की दृष्टी से देखना चाहिये, चाहे दूसरों में दुर्बलतायें और त्रुटियाँ हों या नहीं। इन कमजोरियों पर नजर रखते हुए भी प्रेम प्रदर्शित करना ही उचित है। हमें नम्रता और दीनता का भाव लाने तथा अपने स्वार्थ को दबाने की आदत डालने की चेष्टा करनी चाहिये। दूसरों के अवगुणों ममता भरी दया की दृष्टि से देखना उत्तम है। इससे हमारे अंदर स्वार्थ की जितनी संकुचित भावनायें हैं सब नष्ट हो जायेंगी तब हम उदार-ह्रदय एवं सहिष्णु हो उठेंगे॥ SC 100.1

स्तोत्रकर्ता ने कहा है, “यहोवा पर भरोसा रख और भला कर देश में बसा रह और सच्चाई में मन लगाये रह” भजन ३७:३। “यहोवा पर भरोसा रख।” प्रत्येक दिन के कुछ कर्तव्य हैं, कुछ अपनी चिंतायें होती है, कुछ उलझने होती हैं। जब जब हम एक दुसरे से मिलते हैं अपने दुःख और चिंताओं के बारे कितनी तत्परतासे बातचीत करते हैं। इतने अधिक फीके और मुसीबते आ जाती हैं, इतने भय आ दबाते हैं, चिंताओं की इतनी बड़ी गठरी उलट दी जाती है की जैसे हमारे कोई करुणामय, प्रेमपूर्ण मुक्तिदाता हैं ही नहीं, और वे हमारी प्रार्थनाएं सुनते ही नहीं, दुःख के समय हमारी सहायता करते ही नहीं॥ SC 100.2

कुछ लोगों की आदत डरने और मुसीबतें बाधा लेने की हो गयी है। प्रत्येक दिन उनके आसपास ईश्वर के प्रेम के चिन्ह भरे रहते हैं। नित्य प्रति उन के वरदहस्तों के उपहार वे पाते और प्रसन्न होते है किंतु इन वर्तमान के उपहारों पर वे दृष्टि ही नहीं डालते। जैसे वे हैं ही नहीं। असल बात तो यह है की उनके मस्तिष्क में सदा यह भावना तहती है की यह वस्तु असंतोषप्रद है, वह अनुचित है और इस तरह वे असंतुष्ट हो जाने के आदि हो जाते हैं। वे डरते हैं की कहीं यह दु:खद घटना न हो जाय। अथवा कुछ चिंतायें आ जाती हैं जो वास्तव में छोटी हैं। तोभी इन छोटी चिंताओं में मन इतना व्याकुल हो जाता है की मनुष्य असंख्य विशाल उपहारों को जिनके लिए उन्हें कृतज्ञ होना है देख नहीं पाते। अब जब मुसीबतें आ जाय तो एक मात्र सहायक ईश्वर के पास दवड़ना चाहिये किंतु होता ऐसा नहीं है। क्लेश की मार से लोग ईश्वरोंमुख न हो कर ऐसे अशांत, अधीर और व्याकुल हो जाते हैं की ईश्वर को भूल जाते हैं और ईश्वर से और भी दूर जा पड़ते हैं॥ क्या यह आवश्यक है की हम इस पर अविश्वास करें! हम क्यों ऐसे अकृतज्ञ और संशयपूर्ण बनें यीशु हमारे परममित्र हैं, स्वर्ग के सारे प्राणी हमारे कल्याणात्मक काम के लिए उद्दत हैं। दैनिक जीवन की चिंताओं और उलझनों में हमें अपने मन की शांति, स्थिरता और धैर्य न खोना चाहिये। यदि हम अशांत, अधीर और व्याकुल हो जावेंगे तो हम सदा चिड़चिड़े रहेंगे और एक न एक चीज से असंतुष्ट और रूपट रहेंगे। हमें अधीर या व्याकुल न होना चाहिये क्यों की वह तो हमें क्रोधी बनाता है और हमारा ह्रास करता है न की वह मुसीबतों को अच्छी तरह सहने में हमें मदद करता है॥ SC 100.3

आप अपने व्यवसाय में घबडा सकते हैं तब आप के भविष्य का जीवन अंधकार से भरा दिखाई पड़ सकता है, और तब हानि की संभावना हो सकती है। किंतु निराश मत होइये, अपनी सारी चिंतायें ईश्वर के चरणों पर अर्पित कीजिये, धैर्य धारणा कर प्रसन्न रहिये। फिर अपने व्यवसाय को चतुराई से संभालने की शक्ति पाने के लिये प्रार्थना कीजिये। इस तरह हानि और विनाश को रोकिये। अपनी सारी शक्ति से लाभ के लिये चेष्टा कीजिये। यीशु ने अपनी सहायता के लिये वचन तो दिया है लेकिन हमें निष्चेष्ट बैठे रहने नहीं कहा। जब अपने सहायक प्रभु पर भरोसा करके आपने अपनी सामर्थ्य पर कोशिश की है, तो जो भी फल प्राप्त हो, इसे प्रसन्न हो कर ग्रहण कीजिये। SC 101.1

ईश्वर की ऐसी इच्छा नहीं की उसके मनुष्य चिंताओं के बोझ से दबे रहे। किंतु हमारे प्रभु हमें धोखा नहीं दे सकते। वह हमें वह नहीं कहता, “डरो मत, तुम्हारे मार्ग में कोई खतरा नहीं।” वह यह जानता है की जीवन के मार्ग में अनेक दु:ख है, मुसीबते हैं और वह हम से साफ़ तौर से कह देता है। जीवन कष्टपूर्ण है। वह पाप और कुव्यसनों से भरे संसार से हमें दुसरे लोक में ले जाना नहीं चाहता किंतु हमारी सहायता के लिये उस सदा मदद देनेवाले ईश्वर को हम दिखा देता है। अपने शिष्यों के लिये उसने जो प्रार्थना की थी वह ऐसी थी, “मैं यह बिनती नहीं करता की तू उन्हें जगत से उठा ले पर यह की तू उन्हें उस दृष्ट से बचाए रख”। फिर वह कहते हैं, “संसार में तुम्हे क्लेश होता है पर ढाढस बांधों मैं ने संसार को जीता है।” योहन १७:१५;१६:३३॥ SC 101.2

पहाड़ पर उपदेश देते समय यीशु ने अपने शिष्यों को बहुमूल्य शिक्षाएँ दी थी जिस में उन्हों ने ईश्वर पर भरोसा करने की आवश्यकता बतलाई थी। इन शिक्षाओं का प्रयोजन यही था की इस से सभी युगों के बच्चे उत्साह ग्रहण करे। ये शिक्षायें हमें पूरी शांति और सांत्वना के पाठ सिखाते हैं और इस लिये हमें भी प्राप्त हो गयी हैं। मुक्तिदाता ने आकाशगामी चिड़ियों को दिखलाया जो चिंताओं से मुक्त, स्वछंद मगन में ईश्वर गुणगान की मधुरतान छेड़ती हुई उड़ी जा रही थी, और कहा “वे न बोते हैं न लगते।” फिर भी परमपिता उनकी आवश्यकतायें पूरी कर देते हैं। मुक्तिदाता पूछते हैं, “क्या तुम उन से बहुत बढ़ कर नहीं?” योहन ६:२६। मनुष्यों और पशुओं की आवश्यकताओं की व्यवस्था करने वाले पाने हाथ खोल देते हैं और अपने सारे प्राणियों की जरूरते पूरी करते हैं। छोटी चिड़िया को भी वे भूलते नहीं। यह बात ठीक है की वे चोंच में दाना नहीं डालते। फिर भी दाने की व्यवस्था वे कर देते हैं। दाना संग्रह करना ईश्वर का काम नहीं, चिड़िया का काम है और दाना छिटना ईश्वर का काम है। अपने छोटे खोते के लिये सामान जुटाना चिड़िया का काम है। अपने काम करते करते वे गीत गति रहती हैं क्योंकि “तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन्हें पालता है।” और क्या “तुम उन से बहुत बढ़ कर नहीं?” क्या आप अपनी सारी कुशाग्रता, प्रतिभा और भक्ति से चिड़ियों से अधिक बहुमूल्य नहीं हैं? अब यदि हम उन पर भरोसा करें, तो जिस ने हमारा जन्म दिया, हमारे जीवन का लालन पालन कर हमें बनाए रखा, तथा जिसने अपनी स्वरुप में हमें निर्मित किया, क्या यह ईश्वर हमारी आवश्यकताएँ अब पूर्ण न करेगा? SC 101.3

सुन्दर घने रूप में उगे, ईश्वर के मनुष्य के प्रति अतुल प्यार के साकार रूप सौंदर्य-सुषमा में प्रफुल्ल कुसुम के दलों को दिखा कर यिशुने अपने शिष्यों से वहा, “मैदान के सोसनों पर ध्यान करों वे कैसे बढ़ते हैं।” इन प्राकृतिक कुसुमों का सौंदर्य और सरलता सुलेमान की भव्यता और ऐश्वर्य को फीका बना देती है। ईश्वर की सृष्टि में उगे फूलों की प्राकृतिक सुषमा और सौंदर्य-राशी के आगे कला-कौशल द्वारा बनाया चमचम चमकनेवाला सुन्दरतम और श्रेष्ट वस्त्र भी तुलना के योग्य नहीं। यीशु पूछते है, “यदि परमेश्वर मैदान की घास को जो आज है और कल भाड़ में झोकी जायेगी ऐसा पहिनता है तो हे अल्पविश्वासियों वह क्यों कर तुम्हे न पहिनायेगा।” मती ६:२८, ३०। जब यह स्वर्गीय चित्रकार क्षण-भंगुर और तुरंत मुरझाने वाले पुष्प को कोमलता और सुंदर रंग से सजाते है, तो आप जैसे लोगों की वह कितनी सावधानी और श्रुंगार करेगा, चिंता करेगा, और ममता से रखेगा, क्योंकि आप को उसने अपने ही सदृश बनाया है? अविश्वासी लोगों की लिये वह पाठ यीशु की सब से बड़ी चोट है, उन की आकुलता और चिंताओं पर एक फटकार है॥ SC 102.1

ईश्वर चाहता है की उनके समस्त पुत्र पुत्रिया खुश रहें, आनंदमय रहें, शांत रहें, और आज्ञाकारी रहें। यीशु ने कहा है, “मैं तुम्हे शांति दिये जाता हूँ अपनी शांति तुम्हे देता हूं जैसे संसार देता है वैसे मैं तुम्हे नहीं देता।” “मैं ने ये बातें तुम से इस लिये कही है की मेरा आनंद तुम में रहे और तुम्हारा आनंद पूरा हो जाय।” योहन १४:२७;१६:११। SC 102.2