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मिसिज़ ई. जी. व्हाइट के प्रति लोगों का दृष्टिकोण ककेप 17

मिसिज व्हाइट के असाधारण अनुभवों की चर्चा सुनकर कि वह किस प्रकार परमेश्वर का दूत बन गई, किसी ने यह प्रश्न पूछा: वह किस प्रकार की महिला थी? क्या उसको भी ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता था जैसी हमको? वह धनवान थी या कंगाल? वह कभी मुस्करातो भी थीं कि नहीं? ककेप 17.5

मिसिज व्हाइट एक समझदार माता थीं. वह एक सावधान गृहिणी थीं. वह एक दयालु अतिथि सेविका थीं और अक्सर लोगों को अपने घर में अतिथि सेवा किया करती थीं. वह एक मददगार पड़ोसिन थी. वह एक विश्वासी महिला थी. स्वभाव की सुन्दर, बर्ताव की सुशील तथा मधुर वाणी उसके मुख से टपकती थी. उनके अनुभव में लटकाये मुंह, मुस्कानहीन तथा आनन्द शून्य मत का कोई स्थान नहीं था. उनकी उपस्थिति में हर कोई पूर्ण सुख चैन का अनुभव करता था. मिसिज व्हाइट से परिचय प्राप्त करने का सब से उत्तम तरीका यह होगा कि उनके घर जाकर सन् 1859 की डायरी देखी जाय जब से उन्होंने दैनिक हाल लिखना शुरु किया था. ककेप 17.6

मिसिज व्हाइट परिवार बैटल क्रीक के सिवानों में एक छोटी सी बंगलिया में रहता था जहाँ भूमि का एक बड़ा भाग था जिसमें फल के बाग लगाने, गाय तथा मुर्गिया पालने और बच्चों के काम करने तथा खेलने का अति उत्तम स्थान था. इस समय मिसिज व्हाइट को अवस्था 36 वर्ष की और एल्डर की 36 वर्ष की थी. इस समय घर में तीन बालक थे जिनकी उम्र चार, नौ और बारह वर्ष थी. ककेप 18.1

घर के काम करने के लिए एक नेक मसीही लड़की थी क्योंकि मिसिज़ व्हाइट अक्सर घर से बाहर रहती थी अथवा अपने व्याख्यान देने व लिखने के काम में संलग्न रहती थी फिर भी मिसिज व्हाइट परिवार के दायित्व को पूरी रीति से निभाती थीं जैसे खाना पकाना, कपड़े धोना, बर्तन साफ़ करना तथा सिलाई करना इत्यादि. खास- खास दिन वह छापे खाने को जाती थीं जहां उसे लिखने के लिए एकान्त जगह मिल जाती थो. अन्य दिनों में वह बगीचे में दिखाई देती थी. कहीं फूल लगाती थी तो कहीं सब्जी और कभी-कभी पड़ोसिनों के साथ फूलों ही के पौधे बदलती थी, उसे घर को मनोहर बनाने की बड़ी लग्न थी ताकि बालक घर को सबसे उत्तम जगह समझें. ककेप 18.2

मिसिज व्हाइट सौदे पत्ते के मामले में बड़ी सावधान थी और ऐडवेनटिस्ट पड़ोसिने चीजें मोल लेने के लिए उसके संग जाने की बड़ी खुश होती थीं क्योंकि वह चीजों का मूल्य भली भांति जानती थी. उनकी मां अति व्यावहारिक महिला थीं और उन्होंने अपनी पुत्रियों को कीमती पाठ सिखलाये थे. उनका अनुभव था कि सस्ती वस्तुएं आखिरकार खरे माल की चीजों से अधिक मंहगो बैठती हैं. ‘सस्ती रोवे बार-बार मंहगी रोव एक बार ‘ इस सिद्धान्त को वह मान्यता देती थीं. ककेप 18.3

बालकों के लिए सब्बत का दिन सप्ताह का सब से सुहावना दिन बनाया जाता था. निःसन्देह सारा परिवार उपासना में जाता था और यदि एल्डर या मिसिज व्हाइट उपदेश देने के दायित्व से मुक्त होते तो सम्पूर्ण परिवार पूरी उपासना में बैठा रहता. दोपहर के खाने के लिए कोई खास दिल पसन्द भोजन होता था जो हफ्ते के अन्य दिनों में नहीं होता था. फिर यदि दिन सुहावना होता था तो मिसिज व्हाइट बच्चों के साथ सैर के लिए जंगल को या नदी के किनारे जाती थी जहाँ वे प्रकृति के सौन्दर्य का अध्ययन करते तथा सृष्टिकर्ता के कामों का मनन करते थे. यदि दिन बारिश का या सर्दी का होता था तो वह पढ़कर सुनाया करती थी. इन कहानियों को बाद में छपवा कर पुस्तक के रुप मे बनवाया गया ताकि दूसरे माता-पिता भी अपने बालकों को पढ़कर सुनायें. ककेप 18.4

इस समय मिसिज व्हाइट पूर्ण रुप से स्वस्थ न थी. अक्सर उनको दिन में मुच्र्छा आ जाती थी पर इससे न उनके घर के काम में और न परमेश्वर के काम में बाधा हुई. इस के कुछ साल बाद सन् 1863 ई. में उनको स्वास्थ्य तथा रोगियों की सुरक्षा के सम्बन्ध में दर्शन दिया गया. उनको दर्शन में दिखलाया गया कि सुदृढ़ और स्वस्थ देह प्राप्त करने के लिए यथोचित वस्त्र पहिनने,उचित भोजन करने, व्यायाम और विश्राम करने की तथा परमेश्वर पर भरोसा रखने की बड़ी आवश्यकता है. ककेप 18.5

आहार तथा हानिकारक मांसाहार के सम्बंध में मिसिज़ व्हाइट को जो प्रकाश परमेश्वर की ओर से दिया गया उसने इस मत का खण्डन कर दिया कि स्वास्थ्य तथा बल प्राप्ति के लिए मांस खाना अत्युत्तम है. उनके मन को प्रकाशित करने के लिए जो दर्शन दिया गया था उसके बल पर उसने भोजन पकाने वाली लड़की को आदेश दिया कि मेज पर केवल इन चीजों को रखे जो स्वास्थ्यवर्द्धक, सरल भोजन हों जो अनाज, सब्जी, मेवे, दूध, मलाई तथा अण्डों से तैयार किये गये हों. फलों की कोई कमी रही थी. ककेप 18.6

जब परिवार के लोग मेज पर आते तो अच्छा स्वास्थ्यप्रद भोजन अधिक मात्रा में रखा हुआ पाते थे परन्तु मांसाहार का कोई नाम नहीं. मिसिज व्हाइट को मांस खाने की बड़ी तृष्णा थी. उन्होंने मेज़ से उठ जाने का निश्चय कर लिया कि जब तक साधारण भोजन खाने की आदत न पड़ जाये तब तक न लौटुंगो. दूसरी बार भी यही किस्सा रहा परन्तु सादा भोजन उनको पसन्द न आया. फिर भोजन की बारी आई. मेज़ पर वही सादे पदार्थ थे जो उन्हें दर्शन में दिखलाये गये थे कि स्वास्थ्य, बल और वृद्धि के लिये ये ही उत्तम पदार्थ हैं. परन्तु उन्हें तो भूख थी मांस खाने की जिसकी वह आदी हो चुकी थीं पर अब वह सीख गई कि मांस कोई उत्तम भोजन नहीं हैं. वह हमसे कहती है कि उसने अपने पेट पर हाथ रख कर ये शब्द कहे थे, जब तक तुम रोटी खाना नहीं सीखोगे जब तक तुम्हें ठहरना होगा.” ककेप 19.1

अधिक समय नहीं बीता कि मिसिज व्हाइट भोजन से सादे पदार्थों का आनन्द लेने लगी और खुराक पथ्य में परिवर्तन होने से उनके स्वास्थ्य में भी तुरन्त सुधार हो गया और उनके शेष जीवन में तुलनात्मक रुप में स्वास्थ्य अच्छा रहा. इस तरह देखा जा सकता है कि मिसिज व्हाइट की समस्यायें ऐसी थीं जैसी प्रत्येक मनुष्य की हुआ करती है. उनको क्षुधा पर जय पाना इतना जरुरी था जितना हम सबको जरुरी है. मिसिज़ परिवार को स्वास्थ्य सुधार एक ऐसा वरदान सिद्ध हुआ है जिस प्रकार यह दुनिया के हजारों ऐडवेनटिस्ट परिवारों के लिये सिद्ध हुआ है. ककेप 19.2

स्वास्थ्य सुधार सम्बन्धी दर्शन पाने तथा मिसिज़ व्हाइट परिवार में बीमारों की चिकित्मा के साधारण नियमों को अपनाने के बाद एल्डर और मिसिज व्हाइट को अक्सर पड़ोसी लोग बीमारी के समय चिकित्सार्थ बुलाया करते थे और परमेश्वर उनके परिश्रमों को आशीर्वाद दिया करता था. कभीकभी रोगी उनके घर पर ही आ जाया करते थे और उनका इलाज किया जाता था जब तक वे पूर्णत: चगे नहीं हो जाते थे. ककेप 19.3

मिसिज़ व्हाइट चाहे पहाड़ पर हो अथवा झील पर व खुले पानी पर आराम अथवा मनोरंजन को अवधि का आनन्द उपभोग करती थी. अधेड़ उमर में जब वह अमरीका के पश्चिम भाग में पैसिफिक प्रेस हमारे एक छापे खाने के समीप रहती थीं. वहां यह प्रस्ताव रखा गया कि विश्राम व मनोरंजन के लिए एक दिन नियुक्त हो. मिसिज़ व्हाइट को परिवार तथा दफ्तर के लोगों के साथ छापेखाने के कर्मचारियों द्वारा निमन्त्रण दिया गया जिसे उन्होंने तुरन्त स्वीकार कर लिया. उनके पति मिशन के काम के लिये पूर्व दिशा को गये हुए थे, इस अनुभव का पता पति को लिखी गई उनकी चिट्ठी से लगता है. ककेप 19.4

समुद्र के किनारे दोपहर के स्वास्थ्य वर्धक भोजन के बाद समस्त समुदाय सैन फ्रेनसिसको की खाड़ी में सैर करने निकला. उस किश्ती का कप्तान कलीसिया का मेम्बर था, फिर तो अपरान्त आनन्द से कटा. फिर यह प्रस्ताव हुआ कि समुद्र के बीच चलें. उस समय के अनुभव का वर्णन करते हुए मिसिज़ व्हाइट ने लिखा: ” लहरें आकाश की ओर उठ रही थीं और हम बड़ी शान से ऊपर नीचे उछलते जा रहे थे. मुझे इतना अधिक आनन्द आ रहा था कि मेरे पास बतलाने को शब्द नहीं हैं. यह तो अत्यन्त उत्कृष्ट था. समुद्र का फेन हमारे ऊपर टकरता था. सुनहले फाटक के बाहर हवा तेज थी पर जिन्दगी में ऐसा मज़ा कभी ना आया था.’‘ ककेप 19.5

कप्तान की सतर्क आंखों तथा माझिमों की आज्ञा पालन में तत्परता देख कर यों सोचने लगीः परमेश्वर हवाओं को अपने हाथों में थामता है. वह जल को अपने नियन्त्रण में रखता है. हम पैसिफिक महासागर में तिनके की तरह हैं तौभी स्वर्गीय दूत इस छोटी सी किश्ती की रक्षा करने को भेजे गये हैं, जब वह लहरों में चल रही है. परमेश्वर की लीला अपार है और हमारी समझ से बाहर है. एक ही नज़र में वह स्वर्ग को भी देखता है और समुद्र के बीच को भी.’‘ ककेप 20.1

मिसिज़ व्हाइट बचपन ही से प्रसन्नचित रहती थी. एक समय उसने लोगों से पूछा क्या आपने मुझे कभी उदास, निराश अथवा शिकायत करते देखा? मेरा धर्म इसकी इजाजत नहीं देता. मसीही चरित्र व सेवा के सच्चे आदर्श का मिथ्या विचार ही इन परिणामों तक पहुँचाता है....मसीही की सेवा जब तन मन धन से की जाती है तब वह एक उज्जवल धर्म का निर्माण करती है. जो ध्यान से मसीह का अनुकरण करते हैं वे उदासी को नहीं जानते. ककेप 20.2

फिर दूसरी बार उन्होंने लिखा:” कुछ लोगों का विचार है कि प्रसन्न मुद्रा मसीही चरित्र की मर्यादा के अनुकूल नहीं है परन्तु यह भूल है. स्वर्ग में सर्वांगीण आनन्द है. उन्होंने मालूम किया कि मुस्कान के बदले मुस्कान और मधुर शब्दों के बदले मधुर शब्द मिलेंगे.” ककेप 20.3

इतना होते हुये भी ऐसे समय आये जब उन्हें यातनायें सहनी पड़ी. एक वक्त जब वह आस्ट्रेलिया के काम में मदद देने गई थीं. तब वहां वह प्राय: एक साल तक बीमार रही और बड़ा कष्ट उठाया. अधिकांश समय वह पलंग पर लेटी रहती थी और रात के केवल चन्द ही घंटे सो सकती थीं. इस अनुभव के विषय में उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र लिखा: “जब मैं ने अपने को लाचारी की हालत में पाया तो मुझे अत्यन्त खेद हुआ कि मैं सात समुद्र पार क्यों आई? मैं अमरीका ही में क्यों न रही? इतना खर्च उठाके में क्यों इस देश में आई? बार-बार मैं अपना मुंह रजाई में छिपाकर खूब रोती थी. परन्तु मैं अधिक देर तक आंसू नहीं बहाती रही. मैंने अपने आप से पूछा, हे एलन जी. व्हाइट यह क्या बात है? क्या तुम आस्ट्रेलिया यह विचार करके नहीं आई कि कॉनफ्रेंस जहाँ उन्हें भेजे वहाँ जाना उचित है. क्या यह तुम्हारा दस्तुर नहीं रहा है? मैं ने उत्तर दिया, ‘’हाँ यही मेरा अभ्यास रहा है.’‘ ककेप 20.4

” तो तुम फिर इतना उदास व खिन्न क्यों हो? क्या यह शत्रु का कार्य नहीं है? मैं ने उत्तर दिया, मैं समझती हूँ यह उसी की कार्यवाही है.’‘ ककेप 20.5

” मैं ने जितना जल्दी हो सका अपने आँसू पोंछे और कहा, यह काफी है. इसके बाद मैं अंधेरी तरफ न देखेगी. जीती रहूँ या मार जाऊँ, मैं अपने प्राणों की रक्षा का प्रश्न उसी पर छोड़ देंगी जिसने मेरे लिये अपने प्राण दिये है.’’तब मैं विश्वास करने लगी कि परमेश्वर जो कुछ भी करेगा भलाई के लिए ही करेगा. तब पश्चात् आठ महीने की लाचारी के दर्मियान मेरे मन में न उदासी छाई न सन्देह पैदा हुआ अब मैं इस मामले को इस प्रकाश में देखती हैं कि मेरी भलाई और अमरीका के लोगों की भलाई तथा इस देश के लोगों की भलाई के लिए यह परमेश्वर की उस बड़ी योजना का एक अंग था. मैं इस का कारण समझा नहीं सकती परन्तु विश्वास करती हूँ . मैं दुख में खुश हूँ. मैं अपने स्वर्गीय पिता पर भरोसा रखती हूँ. मैं उसके प्रेम पर सन्देह न करेंगी.’‘ ककेप 20.6

जब मिसिज व्हाइट अपने जीवन के अन्तिम 15 सालों में अपने घर कैलीफोर्निया में रहती थी वह बुढी तो बेशक होती जा रही थीं और परन्तु अपने छोटे से खेत के आस पास के काम में रुचि लेती थी और जो लोग उनके काम में मदद देते थे उनके परिवारों में वह दिलचस्पी लेती थी. हम उनको लिखने के काम में संलग्न पाते, अक्सर जब वह जल्दी सो जाती थी तो आधी रात के बाद काम शुरु कर देती थी. यदि दिन अच्छा होता था और काम आज्ञा देता तो वह देहात में सैर को निकल जाती और किसी भी बगीचे में काम करती हुई अथवा घर के आंगन में बैठी हुई माताओं से बातें करने ठहर जाती थीं. कभीकभी वह ऐसे लोगों को पातीथी जिन्हें भोजन या वस्त्र की जरुरत होती थी तो वह घर आकर अपने सामान में से उनके लिये चीजें ले जाती थीं. उनकी मृत्यु के बहुत वर्षों बाद तक उस घाटी की पड़ोसिने उन्हें याद किया करती थीं. कि एक छोटे सफेद बालों वाली महिला उन्हें बड़े प्रेम से यीशु की कहानी सुनाया करती थी. ककेप 21.1

जब उनका देहान्त हुआ तो उनके पास जीवन की जरुरी तथा सुखदायक वस्तुओं से कुछ ही अधिक था. उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरा उदाहरण अपनाओं क्योंकि वह भी हमारी तरह एक सेवंथ-डे ऐडवेनटिस्ट थीं जो अपने जीवित प्रभु के सदगुणों पर विश्वास रखती थी और परमेश्वर के सौंपे हुए कार्य को यथाशक्ति विश्वास के साथ करती थी. इस प्रकार उसने मसीह पर अपना जीवन निछावर करके अपनी मसीही अनुभूति पर दृढ़ रह कर अपने जीवन की पूर्ण अवधि को समाप्त किया. ककेप 21.2