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मनोरंजन के प्रति मनोवृति ककेप 218

कई अस्वस्थ कल्पनापूर्ण व्यक्ति हैं जिनके लिए धर्म एक क्रूर शासक है जो मानों उन्हें एक लौह दण्ड से शासित कर रहा है. इस प्रकार के मनुष्य अपने पतन पर अविराम शोक प्रकट करते एवं अनुमानित बुराई पर कराहते रहते हैं. प्रेम उनके हृदय में वास नहीं करता,कपाल कौ सिकुड़न सदैव उनके मुख मंण्डल पर दृष्टिगोचर होती है.युवा के निर्दोष हास्य अथवा किसी अन्य को हंसी से अप्रसन्न हो जाते हैं. वे सर्व मनोविनोद को पाप समझकर सोचते हैं कि मस्तिष्क सदैव ही एककठोर एवं निष्ठुर  स्वर पर रखा जावे.यह एक चर्मसीमा है.दूसरों का विचार है कि मस्तिष्क को स्वस्थ बनाने के हेतु सदैव नवीन मनोविनोद तथा परिवर्तन क्रीड़ा के अन्वेषण में निमग्न रहना चाहिए. ककेप 218.5

वे उद्वेगों पर अवलंम्बित रहना सीख लेते हैं अतएव बिना उत्तेजना के उनका जीवित रहना दूभर हो जाता है. ये सच्चे मसीही नहीं है.ऐसे लोग दूसरी चर्मसीमा की ओर जाते हैं.मसीही धर्मके सच्चे सिद्धान्त सब के समक्ष आनन्द का उद्गमस्थान खोल देते हैं जिनकी ऊंचाई गहराई और लम्बाई और चौड़ाई मापी नहीं जा सकती. ककेप 219.1

यह मसीहियों का अहोभाग्य और कर्तव्य है कि वे शारीरिक और मानसिक शक्तियों को परमेश्वर की महिमा में उपयोग करने का ध्येय रखते हुए आत्मा को नवीन बनाने और शरीर को निर्दोष मनोरंजन द्वारा स्फूर्तिमय बनाने को खोज में लगे रहें.हमारे मनोरंजन महत्वहीन विलास के दृश्य न बनें जो असंगत रुप धारण कर लेते हैं.हम उनका आयोजन इस प्रकार कर सकते है जिससे हमारा सम्बन्ध है जो हमें में अधिक सफलतापूर्वक उन कर्तव्यों का पालन करने के योग्य बना देते हैं जो हमारे ऊपर मसीही होने के फलस्वरुप सौंपे गए हैं. ककेप 219.2

मुझे दर्शाया गया कि सब्बत मानने वाले एक जन समूह के रुप में अपने विश्राम का विचार किए बिना निरन्तर परिश्रम में लीन रहते हैं.मनोरंजन उनके लिए आवश्यक है जो शारीरिक श्रम में व्यस्त रहते हैं अथवा उनके लिए अत्यावश्यक है जो विशेषकर मानसिक परिश्रम में लीन रहते हैं.यह उद्धार के लिए आवश्यक नहीं है और न ही परमेश्वर की महिमा के लिए कि हम अविराम रुप में मानसिक श्रम करते रहें चाहे वे धार्मिक विषयों से ही सम्बन्धित क्यों न हों, ककेप 219.3

वह समय जो शारीरिक अभ्यास में व्यय किया जाता है सो नष्ट नहीं होता.शरीर के समस्त मण्डल केन्द्रों का एक निश्चित अभ्यास प्रत्येक मण्डल के उत्तम कार्य के लिए अनिवार्य है.जब मस्तिष्क निरन्तर कठोर परिश्रम करता है और शरीर रुपी जीवित कल के अन्याय भाग निष्क्रिय रहते हैं तब शारीरिक और मानसिक शक्ति को हानि होती हैं.शरीर रचना अपनी स्वस्थ आभा से वंचित कर दिया जाता और मस्तिष्क अपनी नवीनता एवं स्फूर्ति को खो बैठता है जिसके फलस्वरुप अधमुई उत्तेजना एक स्थूल स्थिति का अविर्भाव होता है. ककेप 219.4

शयन और श्रम के निमित्त समय नियुक्त करने में सावधानी की आवश्यकता है.हमें विश्राम काल,मनोरंजनकाल और मननकाल का ध्यान रखना चाहिये.सयंम के सिद्धान्तों को हमारे विचार जितना सीमित करते हैं उससे भी अधिक विस्तरित वे हैं. ककेप 219.5

विद्याभ्यास करने वालों को विश्राम की आवश्यकता है.मस्तिष्क को सदा विचारों में ही व्यस्त नहीं रखना चाहिए. ऐसा करने से मस्तिष्क रुपी कोमल कल शीघ्र घिस जाती है.शरीर और मस्तिष्क दोनों को अभ्यास की आवश्यकता है. ककेप 219.6