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अध्याय 53 - हृदय और जीवन की पवित्रता ककेप 304

परमेश्वर ने आपको देखरेख के लिये एक घर अपनी सेवा और महिमा के लिए सुन्दर दशा में रखने को दिया है.आपकी देह आपकी निजी नहीं है. “क्या तुम नही जानते हो कि तुम्हारी देह...पवित्र आत्मा का मंदिर है.’‘ ‘’क्या तुम नही जानते हो कि तुम ईश्वर के मंदिर हो और ईश्वर का आत्मा तुम में बसता है? यदि कोई मनुष्य ईश्वर के मंदिर को नाश करे तो ईश्वर उसको नाश करेगा;क्योंकि ईश्वर का मंदिर पवित्र है और वह मंदिर तुम हो.” ककेप 304.1

इस भ्रष्टाचार के युग में जब हमारा बैरी शैतान गर्जते हुये सिंह की नाईं ढूंढता फिरता है कि किस को निगल जाय तो मैं अपनी चितावनी की यह आवाज ऊँची करने को महसूस करती हैं.मार्ग 14:38.बहुत से हैं जो प्रतिभा संपन्न हैं पर वे उस योग्यता को शैतान की सेवा में दुष्टता के कार्यों में खर्च करते हैं.मैं ऐसे लोगों को क्या चितावनी दें जो दावा करते हैं कि वे दुनिया से निकल आये हैं और जिन्होंने अंधकार के सारे काम त्याग दिये हैं, ऐसे लोगों को जिन्हें परमेश्वर ने अपनी अवस्था का भंडारी बनाया है परतु जो दिखावटी अंजीर के पेड़ की भाँति प्रत्यक्ष में अपनी लहलहाती डालियों की तड़क-भड़क को सर्वशक्तिमान के ऐन मुंह के सामने दिखलाते हैं परन्तु परमेश्वर की महिमा के लिये फल नहीं लाते? उन में से बहुत से अशुद्ध विचारों अपवित्र कल्पना शक्तियों,अशुद्ध इच्छाओं तथा नीच अभिलाषाओं का पोषण करते हैं.परमेश्वर ऐसे वृक्ष पर लगे फलों से घृणा करता है.पवित्र स्वर्गदूत ऐसों की चाल को घृणा की दृष्टि से देखते हैं परन्तु शैतान प्रसन्न होता है.ऐसा होता कि पुरुष व स्त्री इस बात पर सोच विचार करते कि परमेश्वर की व्यवस्था के उल्लंघन से क्या लाभ मिल सकता है.हर हालत में अनाज्ञाकारी परमेश्वर के लिये निरादर तथा मनुष्य के लिये अभिशाप को कारण है.हम को उसे इसी प्रकार समझना चाहिए.उसका वेष कितना ही सुंदर क्यों न हो और चाहे जिस किसी ने उसका उल्लंघन क्यों न किया है. ककेप 304.2

जिनके मन शुद्ध हैं वे परमेश्वर को देखेंगे.प्रत्येक अशुद्ध विचार आत्मा को अपवित्र करता है,नैतिक ज्ञान को क्षति पहुंचाता है ,नैतिक ज्ञान को क्षति पहुंचाता है और पवित्र आत्मा के प्रभाव को निर्मुल करता है.इससे आध्यात्मिक दृष्टि धुंधली पड़ जाती है जिससे मनुष्य परमेश्वर को नहीं देख सकता.परमेश्वर पश्चातापी पापी को क्षमा करता तथा कर सकता है;पर यद्यपि क्षमा तो मिल जाती है तथापि आत्मा को हानि होती है.जो आत्मिक सत्य का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उसको अशुद्ध वाणी या विचार को त्यागना चाहिये. ककेप 304.3

कुछ लोग अधर्म के कामों में रत रहने की बुराई को मान लेते हैं तौभी अपने को यह कहकर छूट देते हैं कि वे अपनी कामनाओं पर जय प्राप्त नहीं कर सकते.किसी भी व्यक्ति के लिये जो मसौह का नाम लेता है.ऐसा इकरार करना बहुत ही खतरनाक है, और जो उसका नाम लेता है वह अधर्म से बचा रहे.’’(2 तीमुथियुस 2:19)यह कमजोरी क्यों है? इस का कारण यह है कि पाशिवक प्रवृत्तियों को अभ्यास द्वारा बल मिलता रहा यहां तक कि उच्च प्रवृत्तियों के ऊपर उन्होंने अपना प्रभुत्व जमा लिया है.पुरुष व स्त्रियों में नियम की त्रुटि पाई जाती है.आत्मिक दृष्टि से वे भर रहे हैं क्योंकि वे इतनी देर से अपनी स्वाभाविक क्षुधाओं को तृप्त करते रहे हैं इस लिये उनकी आत्माशासन को शक्ति जाती रही.उनको प्रकृति की पतित अभिलाषाओं के हाथ में बागडोर आ गई जिसे शासन कर्ता होना चाहिये था वह भ्रष्ट कामनाओं का दास बन गया है.आत्मा नोच दासत्व में पड़ गई और है. भोगविलासिता ने पवित्रता की इच्छा को बुझा दिया है और आत्मिक समृद्धशाली को क्षीण कर दिया है, ककेप 304.4