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कलीसिया के लिए परामर्श

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    सार्वजनिक में की प्रार्थना लम्बी नहीं होनी चाहिए

    मसीह ने अपने शिष्यों को इस विचार से प्रभावित किया कि उनकी प्रार्थनाएं संक्षेप केवल उनको आवश्यकताओं ही का वर्णन करने वाली होनी चाहिए उससे अधिक नहीं.वह उनकी प्रार्थनाओं का विस्तार और उनकी सामग्री बतलाता है जिसमें वे शरीरिक व आत्मिक आशीषों के लिए अपनी इच्छाओं को और धन्यवाद को प्रकट कर सकते हैं.उसमें सब की वास्तविक जरुरतें दर्शाई गई हैं.किसी सामान्य प्रार्थना के लिए एक या दो मिनट काफी हैं.ऐसे भी मौके होते हैं जब कि परमेश्वर की आत्मा विशेष रीति से प्रेरित करती है और आत्मा की विनती आत्मा में की जातो है.उत्कंठित मानव हृदय अति पीड़ित होकर परमेश्वर के लिए कहता है आत्मा याकूब की भांति मल्लयुद्ध करती हैऔर तब तक विश्राम न लेनी जब तक परमेश्वर की शक्ति विशेष रुप से प्रकट न हो जाय.परमेश्वर ऐसा ही चाहता है.ककेप 159.3

    परन्तु अनेक लोग नीरस तथा उपदेश सुनाने वाली प्रार्थना करते हैं. वे मनुष्यों से प्रार्थना करते हैं परमेश्वर से नहीं.यदि वे परमेश्वर से प्रार्थना करते और वास्तव में समझ जाते कि वे कर क्या रहे हैं तो वे अपनी ढिठाई पर चौंक उठते, क्योंकि वे परमेश्वर को प्रार्थना के रुप में एक उपदेश सुनाते हैं मानों कि परमेश्वर को आप प्रश्नों के प्रसंग में जो संसर में हो रहे हैं विशेष सूचना की आवश्यकता है इस प्रकार  की सारी प्रार्थनाएं ठनठनाता पीतल और झनझनाती झांझ बन जाती हैं.उनका स्वर्ग में कोई हिसाब नहीं रखा जाता.उन से परमेश्वर के दूत भी थक जाते और मानव भी जिन्हें ऐसी प्रार्थनाओं को सुनना पड़ता है.ककेप 159.4

    यीशु बहुधा प्रार्थना में पाया जाता था. वह या तो एकान्त बाग में या पहाड़ों पर चला जाता था कि अपनी प्रार्थनाओं को अपने पिता के सामने रखे.जब दिन का कारोबार और चिंता समाप्त हो जाती थी और थके मांदे विश्राम करने चाहते थे,उस समय की यीशु प्रार्थना में व्यतीत करता था. हमें प्रार्थना की भावना को निरुत्साह नहीं करना है क्योंकि प्रार्थना करना और जागते रहना बहुत थोड़ा होता है.और आत्मा के और समझ के साथ प्रार्थना भी कम की जाती है.उत्सुक और प्रभावशाली प्रार्थना सर्वदा उचित है और उससे कोई थक नहीं जाता.ऐसी प्रार्थना से उन सब को रुचि होती और जो ठंडा होता है जिनको भक्ति से स्नेह है.ककेप 160.1

    गुप्त प्रार्थना की अवहेलना की जाती है,यही कारण है कि बहुत से परमेश्वर की उपासना में ऐसी लम्बी, थकानवाली, भटकी हुई प्रार्थना करते हैं.वे प्रार्थना करते समय अपने पिछले सप्ताह के उपेक्षित कर्तव्यों को दुहराते और चक्कर काटते रहते,इस आशा में कि उपेक्षित कार्यों की कमी पूरी हो जाएगी और उनकी दूषित अंत: करण शांत हो जायगा जो उन्हें सताती है. वे प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर की दया के पात्र बन जाएं, परन्तु अक्सर इन प्रार्थनाओं का नतीजा यह होता है कि दूसरे लोग भी इन्हीं के धरातल पर आत्मिक अंधकार में लाये जाते हैं यदि मसीही के उपदेशों को प्रार्थना करने और जागते रहने के बारे में अपनावें तो वे परमेश्वर की उपासना में अधिक समझदार होंगे.ककेप 160.2

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