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कलीसिया के लिए परामर्श

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    अध्याय 28 - अविश्वासियों के साथ विवाह न कीजिए

    मसीहियों और अविश्वासियों के बीच में वैवाहिक संम्बध स्थापित करने के विषय में मसीहो संसार में धर्मशास्त्र की शिक्षा की ओर आश्चर्यजनक भयप्रद उदासीनता पाई जाती है.अनेकों जो परमेश्वर का भय रखने और उससे प्रेम रखने का दावा करते हैं, नि:सीम ज्ञान से परामर्श लेने के बदले अपने ही मानसिक झुकाव का अनुसरण करते हैं. भविष्य तथा इस संसार में दोनों व्यक्तियों के आनन्द और कुशलता से निकट सम्बधित वालों में तर्क,न्याय और परमेश्वर का भय एक ओर रखकर,अन्धप्रवृति हठी संकल्पों को अपना आधिपत्य जमाने दिया जाता है.ककेप 179.1

    पुरुष स्त्री जो साधारणत: सदविवेकी और विचारवान होते हैं ऐसे समय में परामर्श के प्रति अपने कान बन्द कर लेते हैं वे अपने शुभचिन्तक मित्र कुटुम्बी तथा परमेश्वर के भक्तों की सलाह व आवेदन की और कान नहीं देते हैं.चितावनी या सावधान करने वाले प्रत्येक भाव को अशिष्ट या बाधक समझा जाता है और विश्वासी मित्र को विश्वासयोग्य होकर विनय प्रार्थना करता अपना बैरी समझते है.यह सब शैतान की इच्छानुकूल होता है.आत्मा के चहुं ओर वह अपना मंत्र चलाता है.आत्मा उससे प्रभावित होकर उत्तेजित हो जाती है.शासन की लगाम तर्क के द्वारा लिप्सा के गले पर गिरा दी जाती है.अपवित्र लालसा अपना राज्य जमा लेती है.शिकार तब कैद और दुःख में फंसा रह कर होश में आता है पर अब तो काफी देर हो गई.यह तो कल्पना द्वारा खींचा हुआ कोई चित्र नहीं हैं परन्तु सत्य घटना का वर्णन है. जिन संयोगों का परमेश्वर ने वर्जित किया है उनकी अनुमति उसने वहीं दी हैं.ककेप 179.2

    प्राचीन इस्राएल को परमेश्वर ने आज्ञा दी कि अपने पड़ोसी मूर्तिपूजकों के साथ विवाह न करना.’’विवाह न करना.” “न उनसे व्याह-शादी करना,न तो अपनी बेटी उनके बेटे को व्याह देना.’’कारण दिया गया है.असीम ज्ञान ऐसे संयोगों का परिणाम देखकर घोषित करता है;क्योंकि वे तेरे बेटे को मेरे पीछे चलने से बहकाएंगी;और दूसरे देवताओं की उपासना करवाएंगी;और इस कारण यहोवा का कोप तुम पर भड़क उठेगा और वह तुझको शीघ्र सत्यनाश कर डालेगा.’’क्योंकि तू अपने परमेश्वर यहोवा की पवित्र प्रजा हैं; यहोवा ने पृथ्वी पर के सब देशों के लोगों में से तुझको चुन लिया है कि तू उसकी प्रजा और निज दान ठहरे.’‘ककेप 179.3

    नए नियम में भी मसीहियों के ईश्वर रहित लोगों के साथ विवाह निषिद्ध है.कुरिन्थियों की पहली पत्री में पौलुस प्रेरित का कथन है ‘’जब तक किसी स्त्री का पति जीवित रहता है,तब तक वह उससे बंधी हुई है, परंतु जब उसका पति मर जाए, तो जिस से चाहे वह विवाह कर सकती है परंतु केवल प्रभु में.” फिर दूसरों पत्री में वह लिखता है अविश्वासियों के साथ असमान जूए ‘’में न जूतो क्योंकि धार्मिकता और अधर्म का क्या मेलजोल? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव? या विश्वास के साथ अविश्वासी का क्या नाता? और मुरर्ती के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध?क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर के मन्दिर हैं;जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उनमें बदूंगा और उनमें चला फिर करुंगा; और मैं उनका परमेश्वर हूंगा और वे मेरे लोग होंगे.इस लिए प्रभु कहता है कि उनके बीच में से निकल और अलग रहो;और अशुद्ध वस्तु को मत छुओ,तो मैं तुम्हें ग्रहण करुंगा.और तुम्हार पिता हूँगा, और तुम बेटे और बेटियां होंगे: यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है.(2 कुरिन्थियों 6:14-18)ककेप 179.4

    परमेश्वर के जनों को वर्जित भूमि पर पदार्पण कदापि नहों करना चाहिए.परमेश्वर ने विश्वासियों को अविश्वासियों के साथ विवाह करने के लिए वर्जित किया है. बहुधा अपरिवर्तित हृदय अपनी हो इच्छा पर चलना चाहता है, जिसके फलस्वरुप परमेश्वर का आज्ञा के विपरीत विवाह कर लिया जाता है.इसी कारण अनेकों पुरुष और स्त्रियां इस संसार में आशाहीन और ईश्वर रहित हैं.उनकी उच्च अभिलाषाएं मर जाती है परिस्थितियों की जंजीरों से जकड़कर शैतान के जाल में फंस जाते हैं.जो मनोवेग और भावनाओं द्वारा प्रशासित किए जाते हैं वे जीवन में कड़वी फसल करेंगे और उनके ऐसे व्यवहार का परिणाम उनकी आत्माओं की ही हानि होगी.ककेप 180.1

    जो सत्य को स्वीकार करते हैं पर अविश्वासियों के साथ विवाह करके परमेश्वर की इच्छा की रौंदते हैं वे उसकी दया दृष्टि से हाथ धोकर पश्चाताप के कार्य को कटु बनाते हैं. अविश्वासियों का नैतिक चरित्र कितना ही सराहीन क्यों न हो परन्तु जब उसने परमेश्वर के मांगों की पूर्ति नहीं की और ऐसे महान उदार को तुच्छ जाना है तो यह बात एक पक्का प्रमाण है कि ऐसे विवाह का आयोजन नहीं कह दे,“मैं चेतनायुक्त मसीही हूँ.सप्ताह के सातवें दिन को बाइबल के अनुसार सब्बत (विश्रामवार) मानता हूँ हमारा विश्वास और सिद्धान्त हमें दो विपरीत दिशाओं की ओर ले जाते हैं.यदि मैं परमेश्वर की इच्छा का सिद्ध ज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता जाऊं तो हम साथ साथ रह कर आनन्दित न रह सकेंगे क्योंकि मैं अधिकारिक मसीह की समानता में परिणत हो जाऊंगा.यदि मसीह में आपको कोई सुन्दरता प्रतीत न हो, सत्य की ओर आकर्षक न हो तो निस्सन्देह संसार को उन बातों की ओर जिन में मुझे रुचि नहीं है आपका अनुराग बढ़ता जाएगा और मैं ईश्वरीय बातों की ओर रुचि रखेंगा जिनसे आपको कोई प्रेम नहीं है.आध्यत्मिक बातें आत्मिक नेत्रों में ही दृष्टिगोचर होती हैं.जब तक आप में आत्मिक दर्शन को प्रभाव हो आप मेरे ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व की मात्र का बोध न कर सकेंगे.अपने स्वामी के प्रति जिसका मैं सेवक हूँ मैर सही उत्तर दायित्व का भी आप से मूल्यांकन न हो सकेगा जिसके फलस्वरुप कदाचित् आप समझें कि धार्मिक कर्तव्यों के कारण मैं आप का उपेक्षक हूँ.मैं ने परमेश्वर से अपना जो अनुराग बढ़ाया है उसके कारण आप के मन में ईर्षा प्रादुर्भाव होगा जो आपके वास्तविक आनन्द से वॅचत कर देगा.मैं भी अपने धार्मिक विश्वासरुपी पंथ का अकेला पथिक रह जाऊंगा जब आपके विचारों में परिवर्तन आ जावे, जब आप के हृदय में परमेश्वर के प्रति अपने दायित्व का बोध आ जावे जिसके फलस्वरुप आप मेरे उद्धारकर्ता को प्रेम करने लगें तब हमारे समबंध का पुनः निर्माण हो सकेगा.ककेप 180.2

    इस प्रकार एक विश्वासी मसीह के लिए ऐसा परित्याग करता है जिस का समर्थन उसका विवेक भी करता है. इस परित्याग से यह भी प्रमाणित होता है कि अनन्त जीवन कैसा मूल्यवान है जिसकी हानि उठाने का कोई दु:साहस नहीं कर सकता.उसे इस बात का बोध भी रहता है कि यदि कोई व्यक्ति मसीह की उपेक्षा संसार से प्रेम करता है अथवा मसीह के किसी अनुगामी को भटकाने की क्षमता रहता है तो ऐसे व्यक्ति से सम्बंध जोड़ने की उपेक्षा अविवाहित ही रहना श्रेयस्कर है.ककेप 181.1