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कलीसिया के लिए परामर्श

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    अध्याय 29 - विवाह

    परमेश्वर ने पुरुष से एक स्त्री की सृष्टि की, कि वह उसकी साथिन एवं सहायक हो,वह उसे प्रसन्न करने,प्रोत्साहित करने तथा आशिष देने के लिए सहयोगी हो.पुरुष उसके बदले उसका एक मजबूत सहायक हो.मनुष्य के विवाह का अभिप्राय यह है कि पति पत्नी के हृदय से विशुद्ध प्रेम प्राप्त करे तथा पति पत्नी के चरित्र को विनम्र बनाकर उज्वल बनावे कि वह सिद्धता को प्राप्त करें. इस प्रकार जो भी इस वैवाहिक सम्बंध में प्रविष्ट होते हैं सो अपने निमित्त परमेश्वर के इस अभिप्राय को पूर्ण करें,ककेप 183.1

    मसीह किसी व्यवस्था का नाश करने नहीं आया पर वह उसकी वास्तविक पवित्रता के स्तर को ऊंचा करके उसका जीर्णाद्धार करने आया.उसके आगमन का यही अभिप्राय था कि मनुष्य में परमेश्वर का नैतिक स्वरुप पुन: स्थापित हो जावे.इसी कारण उसने वैवाहिक सम्बंध का समर्थन किया. ककेप 183.2

    जिसने आदम को हवा के रुप में सहायक दिया उसने एक विवाह के शुभ अवसर पर एक पहला आश्चर्य-कर्म किया. इस उत्सव के मण्डप में जहां मित्र तथा कुटुम्ब साथ-साथ आनन्द मना रहे थे मसीह ने प्रगटरुप में जनता के समक्ष अपवा सेवाकार्य आरम्भ किया.इस प्रकार यह जानते हुए कि यह वह विधि है जिसकी स्थापना उसने स्वयं की है उसने विवाह का समर्थन किया.उसने यह ठहराया कि पुरुष और स्त्री इस पवित्र बन्धन में जुटें.इनके द्वारा ऐसे कुटुम्ब निर्माण हो जिसका प्रत्येक अंग आदर का मुकुट पहन कर स्वर्गीय कुटुम्ब का सदस्य होने का ग्रहण किया जावे.ककेप 183.3