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कलीसिया के लिए परामर्श

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    बच्चों की संख्या निमित्त परामर्श

    सन्तान परमेश्वर के द्वारा दी हुई मीरास है.इस थाती के प्रबन्ध करने में हम परमेश्वर के उत्तरदायी है.परमेश्वर के समक्ष जब तक माता पिता आनन्द के साथ यह न कह सकें, देख मैं और मेरो सन्तान जिसे परमेश्वर ने मुझे दिया है’‘ तब तक वे प्रेम विश्वास और प्रार्थना के साथ अपने कुटुम्ब की उन्नति के लिए प्रयत्यशील रहें.ककेप 205.1

    माता पिताओं के लिए परमेश्वर की यह इच्छा है कि वे समझकर प्राणियों की नाईं इस प्रकार जीवन बिताएं कि जिससे उनकी शिक्षा उचित रुप से हो जिससे माता को यह सामर्थ व समय मिले कि वह अपने बालकों का ऐसा शासन करे कि वे दूतों के समाज में प्रवेश कर सकें. उसे परमेश्वर के भय और प्रेम में अपने कार्यभार को श्रेष्ठ रुप में करने का साहस होना चाहिए.जिससे उसकी सन्तान अपने कुटुम्ब एवं समाज के लिए आशीष का कारण हो सके.ककेप 205.2

    पति एवं पिता भी इन बातों का विचार करें. ऐसा न हो कि पत्नी उसके बालकों माता भी है थकित होकर निराशा में डूब जावे. पिता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि माता पर उनके बालकों का ऐसा भार न पड़े कि वह उसकी उचित देख-भाल न कर सके जिसके फलस्वरुप बच्चे बिना प्रशिक्षण के बढ़ते जावें.ककेप 205.3

    अनेकों माता-पिता अपने घर को अनेकों छोटे छोटे असहाय बच्चों से भर लेते हैं.उनको इस बात का बोध नहीं रहता है कि क्या जिन बालकों की,रक्षा एवं शिक्षा का भार हम पर है,उनका लालन-पालन हम उपयुक्त रुप में कर सकेंगे या नहीं.यह तो न केवल माता ही पर अत्याचार है परन्तु बालकों एवं समाज पर भी.ककेप 205.4

    माता के प्रति यह अन्यायपूर्ण व्यवहार है कि उसकी गोद में प्रति वर्ष एक न एक शिशु अवश्य हो.इससे वह सामाजिक आनन्द से वंचित होती है और कौटुम्बिक जीवन उसके लिए कष्टदायी बन जाता है.बालक भी उस शिक्षा,रक्षा एवं आनन्द से वंचित हो जाते हैं जिसे देने का उत्तरदायित्व माता परककेप 205.5

    माता पिताओं को शान्तभाव में इस पर विचार करना चाहिए कि कितने बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की सामर्थ उन में है.बच्चों को संसार में लाकर समाज पर उनका भार लादना उन के लिए उचित नहीं हैं. ककेप 205.6

    बालक के भविष्य भाग्य का विचार बहुत कम किया जाता है.कामेच्छा पूर्ति मात्र ही एक विचार मन में रहता है जिसके फलस्वरुप पत्नी एवं माता पर बोझ लादा जाता है जिससे उसकी शक्ति क्षीण होकर उसके आत्मिक बल पर आघात पहुंचता है.दुर्बल शरीर लेकर नैराश्यपूर्ण आत्मों में वह अपने आपको एक ऐसे असहाय शिशु समूह के मध्य में पाती है जिनका वह लालन-पालन उचित रुप से नहीं कर सकती.शिक्षा के अभाव में वे ईश्वर का अनादर करते एवं अपने स्वभाव से दूसरों को भी दूषित करते हैं.इस प्रकार एक सेना तैयार होती है जिसे शैतान अपनी इच्छानुसार प्रयोग करता है.ककेप 205.7