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कलीसिया के लिए परामर्श

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    हमारे विद्यालयों को नैतिक सहयोग

    माता-पिता को शिक्षक के साथ सहयोग देना और अपने बालकों के हृदय परिवर्तन के लिये उत्साहपूर्वक कोशिश करना चाहिये.उनको परिवार के बीच आध्यात्मिक मनोरंजनों को जीवित रखने का उद्योग करना चाहिये और अपने बालकों को पोषण परमेश्वर की शिक्षा व सलाह के अनुसार करना चाहिये.उन्हें प्रतिदिन अपने बालकों के संग शिक्षार्थी के रूप में अध्ययन करना चाहिये.इस प्रकार से शिक्षा के घंटे को मनोरंजक व लाभदायक बना सकते हैं जिससे अपने बालकों के त्राण की इस तरह की कोशिश में स्वयं उनका भरोसा बढ़े. ककेप 262.4

    कुछ विद्यार्थी जब घर लौटते हैं तो शिकायतें साथ ले जाते है.और माता-पिता तथा मण्डली के सदस्य उनके एक पक्षीय अथवा बढ़ी-चढ़ी बातों को कान लगाकर सुनते हैं.उनको विचार करना चाहिये कि प्रत्येक कहानी को दी तर्फे होती हैं परन्तु वे इन झूठ सच खबरों का विश्वास करके अपने और कालेज के बीच एक दीवा खड़ी कर देते हैं.फिर वे कालेज की कार्यवाही के प्रति भय,तथा संदेह व्यक्त करने लगत हैं. इस प्रकार का प्रभाव हानिकर होता है.अशांतिपूर्ण वचन स्पर्श रोग की भांति फैल जाते हैं जिसका मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव पड़ता है.जितनी बार ये बातें दुहराई जायेगी,बढ़ती ही जायगी जब कि यह बढ़कर एक बड़ी कहानी बन जायंगी परन्तु जांच करने से मालूम हो जायगा कि यथार्थ में शिक्षकों का कोई दोष नहीं था.वे पाठशाला के नियमों को प्रचलित करने में अपना कर्तव्य पूर्ण कर रहे थे जिनका करना जरुरी था अन्यथा पाठशाला का आचार भ्रष्ट हो जायगा.ककेप 262.5

    यदि माता-पिता अपने आप को शिक्षकों के स्थान में रखें और देखें कि किसी पाठशाला का जिससे हर श्रेणी व बुद्धि के सैकड़ों बालक पढ़ते हों सबंध तथा अनुशासन करना कितना कठिन है तो उनका विचार बिल्कुल भिन्न होगा.उनको सोचना चाहिये कि कुछ बालकों को घर पर कभी कोई ताड़ना नहीं हुई.जब तक ऐसे बालकों के लिये कुछ न किया जाय जिनकी लापरवाह माता-पिताओं द्वारा उपेक्षा की गई है मसीह उनको कभी ग्रहण नहीं करेगा;जब तक उन पर नियंत्रण का दबाव न डाला जायगा वे इस जीवन में बेकार रहेंगे और भविष्य के जीवन में उनका कोई भाग न होगा.ककेप 263.1

    बहुत से माता-पिता विश्वस्त शिक्षक की प्रयासों का असमर्थन करने में भूल करते हैं.युवा पुरुषों तथा बालकों में समझने की अपूर्ण क्षमता तथा अविकासित विवेक के कारण वे सर्वदा शिक्षक की योजनाओं तथा साधनों को समझने के अयोग्य रहते हैं. तौभी जब ये बालक जो कुछ पाठशाला में कहा गया अथवा किया गया उसकी खबर घर पर लाते है.तो उसकी पारिवारिक वृत में माता-पिता द्वारा खुलकर आलोचना की जाती है.यही पर बालक ऐसे पाठ सीख लेते हैं जो सरलता से भूले नहीं जा सकते.जब कभी उन पर दबाव डाला जाता है.जिसके वे अभ्यस्त नहीं हैं या उनसे मेहनत के साथ अध्ययन करने को कहा जाता है तो वे अपने अविवेकी माता-पिता से सहानुभूति तथा लाड़ प्यार के लिये प्रार्थना करने लगते हैं.इस प्रकार अशान्त तथा असंतोष की भावना को प्रोत्साहन मिलता है,समस्त पाठशाला को नैतिक-पतन के प्रभाव से हानि उठानी पड़ती है, और शिक्षक का भार और भी कठिन बन जाता है. परन्तु सबसे भारी हानि उनको उठानी पड़ती है जो माता-पिता के कुप्रबंध के शिकार बन रहें.यथोचित शिक्षण द्वारा चरित्र में से जिन दोषों को पृथक हो जाना चाहिये था वे उम्र के साथ पक्के हो जाते है और दोषयुक्त व्यक्तियों की उपयोगिता को नष्ट कर डालते हैं.ककेप 263.2

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