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कलीसिया के लिए परामर्श

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    अध्याय 49 -हमारा भोजन

    हम जो भोजन खाते हैं उसो से शरीर बनता है.देह के सूक्ष्म भाग निरंतर टूटते फूटते रहते हैं;प्रत्येक इन्द्रिय की गति में क्षति अवश्य होती है जिस क्षति की पूर्ति भोजन द्वारा की जाती है.देह का प्रत्येक अंग खुराक का अंश मांगता है. मस्तिष्क को उसका हिस्सा मिलना चाहिये और हड्डियों,मांसपेशियों और स्नायुओं को भी उनका भाग मिलना चाहिये.य क्ह एक अद्भुत कार्यवाही है जिसके द्वारा भोजन रक्त में परिवर्तन होता है और यह रक्त देह के भिन्न-भिन्न भागों के निर्माण करने में उपयोग किया जाता है;पर यह कार्यवाही निरंतर जारी है और प्रत्येक स्नायु मांसपेशी तथा सूक्ष्म भाग को जीवन और बल देती है.ककेप 279.1

    उन भोजनों का चुनाव करना चाहिये जो देह के निर्माण के लिये उत्तम तत्व प्रदान करते हैं.इस चुनाव में क्षुधा सुरक्षित पथ दर्शक नहीं हैं.खाने की बुरी आदतों के द्वारा क्षुधा भ्रष्ट हो जाती है.अवसर वह ऐसे भोजन की मांग करती है जिससे स्वास्थ को हानि पहुंचती है और बल देने की अपेक्षा कमजोरी पैदा करती है.हमारे समाज की रीति रिवाज से सुरक्षापूर्वक मार्ग दर्शन नहीं हो सकता.चारों ओर बीमारी और दु:ख के फैलने का साधारणता कारण भोजन के प्रति सामान्य गलतियों ही हैं.ककेप 279.2

    परन्तु भोजन के सारे प्रदार्थ, भले ही वे आरोग्यकर हों, हर हालत में हमारा जरुरत के अनुसार उपयुक्त नहीं है. भोजन को चुनाने में सावधानी बरतनी चाहिये.हमारा भोजन ऋतु आबहवा और व्यवसाय के अनुकूल होना चाहिये.कुछ खाद्याहार जो एक मौसम या आबहवा में प्रयोग किये जाते हैं वे दूसरे मौसम या आबहवा उपयुक्त नहीं होते.इसी प्रकार विभिन्न व्यवसाय वालों के लिये विभिन्न भोजनहार उपयुक्त होते हैं.अकसर वे भोजनहार जो कठिन शारीरिक परिश्रम करने हारे लाभ के साथ उपयोग कर सकते हैं, कुर्सी पर बैठे रहने वालों तथा मस्तिष्क से कड़ी मेहनत करने वालों के लिये उपयुक्त सिद्ध नहीं होते.परमेश्वर ने हमें नाना प्रकार के स्वास्थ्य भोजन प्रदार्थ दिये हैं और प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव और यथोचित विवेक के अनुसार अपनी आवश्यकता के अनुसार जो उत्तम प्रतीत हो उसमें से चुन लेना चाहिये.ककेप 279.3