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कलीसिया के लिए परामर्श

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    प्रार्थना के उत्तर पाने की शर्ते

    परन्तु केवल उसी समय जब हम उसके वचन के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं उसके वायदों के पूरा होने का दावा कर सकते हैं. भजन लेखक कहता है, “यदि मैं अपने मन में अनर्थ बात सोचता तो प्रभु मेरी न सुनता.’’(भजनसंहिता 66:18)हम आंशिक रुप में या आधे मन से उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं तो उसकी प्रतिज्ञाएं हमारे लिए पूरी न होंगीककेप 309.3

    परमेश्वर के वचन में रोगियों के चंगा होने के हितार्थ खास प्रार्थना के विषय में आदेश दिये गये हैं.परन्तु ऐसी प्रार्थना करना एक अति गम्भीर विषय है और सावधानी के साथ सोचविचार किये बिना इस ओर पग नहीं उठाना चाहिए.प्रार्थना की अपने परिस्थितियों में बीमारी के चंगा होने के प्रति जिसे विश्वास द्वारा होना कहते हैं वह धृष्टता से कुछ कम नहीं है.ककेप 309.4

    बहुत से लोग व्यसन में लिप्त रहने के कारण अपने ऊपर बीमारी ले आते हैं.उन्होंने अपना जीवन प्राकृतिक नियम अथवा कड़ी शुद्धता के सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं व्यतीत किया.दूसरों ने खाने, पीने, कपड़े पहनने अथवा काम करने की आदतों से स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन किया है.अवसर कुछ प्रकार के अपराधों के कारण मस्तिष्क और देह कमजोर हो जाते हैं.यदि ऐसे लोगों को स्वास्थ्य की देन प्राप्त हो जाय तो कई एक तो परमेश्वर के प्राकृतिक तथा आध्यात्मिक नियमों को खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करने की गति जारी रखेंगे और यह तर्क उपस्थित करेंगे कि जब परमेश्वर प्रार्थना के उत्तर में चंगा कर देता है फिर तो वे अपनी दूषित आदतों को जारी रखने को स्वतंत्र हैं और बेलगाम अपनी भष्ट आदतों में व्यस्त रहेंगे.यदि परमेश्वर इन लोगों को आरोग्य करने में एक आश्चर्य कर्म भी करे तो वह पाप को प्रोत्साहन देता है.ककेप 310.1

    लोगों को इस बात को सिखलाने में कि परमेश्वर की ओर ताकना चाहिए क्योंकि वह सारी कमजोरियों को चंगा करता है मेहनत व्यर्थ जाती है जब तक उनको पहिले यह न सिखलाया जाय कि अस्वस्थ आदतों को अपने में से पृथक करें.प्रार्थना के उत्तर में परमेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करने के हेतु उन्हें बुराईको छोड़ना और भलाई करना सीखना चाहिए.उनका चौगिर्द साफ सुथरा रहना चाहिए और उनके जीवन की आदतें ठीक होनी चाहिए.उन्हें परमेश्वर की प्राकृतिक और आध्यात्मिक व्यवस्था के अनुकूल अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए.ककेप 310.2

    जो लोग स्वास्थ्य की पुन: प्राप्ति के लिए प्रार्थना करवाना चाहते हैं उन पर यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि परमेश्वर की प्राकृतिक अथवा आध्यात्मिक व्यवस्था का उल्लंघन पाप है और उसकी आशीषों को ग्रहण करने के लिए पाप को मान कर उसको त्याग देना चाहिए.ककेप 310.3

    धर्म पुस्तक आज्ञा देती है, *“इस लिए तुम आपस में एक दूसरे के सामने अपने अपने पापों को मान लो;और दूसरे के लिए प्रार्थना करा, जिस से चंगे हो जाओ;धर्मी जन की प्रार्थना के प्रभाव से बहुत कुछ हो सकता है.’’(याकूब 5:16)जो प्रार्थना के लिए विनती करता है उसको इस प्रकार के विचारों से सूचित करनी चाहिए:’हम आपके हृदय को पढ़ नहीं सकते न आपके जीवन की गुप्त बातों को जान सकते हैं.इनसे केवल आप और परमेश्वर ही परिचित हैं.यदि आप अपने अपराधों से पश्चाताप करें तो आप को कर्तव्य है कि उनको मान भी लें.गुप्त पाप मसीह के सामने मान लेना चाहिए जो परमेश्वर और मनुष्य के बीच एक मात्र मध्यस्थ है. क्योंकि, “यदि कोई पाप करे तो पिता के पास हमारी एक सहायक है अर्थात् धार्मिकत यीशु ख्रीष्ट.” (1योहन 2:1)हर एक पाप परमेश्वर के विरुद्ध अपराध है और परमेश्वर के सामने मसीह के द्वारा उसका इकरार करना चाहिए.हर एक प्रत्यक्ष पाप का खुलेआम इकरार होना चाहिये.जिस किसी को ठेस लगाई गई उसके साथ मेल मिलाप कर लेना उचित है और गलती को ठीक कर लेना चाहिए.जो आरोग्य होना चाहते हैं और वे दूसरों की बदनामी करने के अपराधी हैं,यदि उन्होंने परिवार में या पड़ोस में अथवा मंडली में फूट डलवाई है और शत्रुता तथा बैर को भड़काया है,यदि किसी बुरी आदत के कारण उन्होंने दूसरों को भी गुनाहगार बनाया है तो ये पाप परमेश्वर के सामने और जिनका अपराध किया गया है उनके सामने इकरार करने चाहिए, जो हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने को विश्वासयोग्य और धमी है.’’(1योहन 1:9)ककेप 310.4

    जब गलतियां ठीक ठाक कर ली जाये तब हम बीमारों की जरुरत को शान्त विश्वास के साथ जैसा परमेश्वर की आत्मा मार्ग दर्शन करे उसके सामने पेश कर सकते हैं.वह प्रत्येक जन को नाम बनाम जानता है और उसकी ऐसी देखरेख करता है मानो कि पृथ्वी पर कोई और प्राणी नहीं है जिनके लिए उसने अपना प्रिय पुत्र दिया है.परमेश्वर का प्यार इतना महान और अचूक है कि बीमार को उसमें भरोसा रखने और आनंदित होने को प्रोत्साहित करना चाहिए.चिंता रोग और बीमारी का कारण बनता है.यदि वे उदासी और शोक छोड़ दें तो उनकी पुन:स्वस्थता की आशा बेहतर हो जायगी क्योंकि “यहोवा की दृष्टि ...उन पर जो उसकी करुणा की आशा रखते हैं बनी रहती है.’‘ (भजन संहिता 33:18)ककेप 311.1

    रोगियों के लिए प्रार्थना करते समय स्मरण रखना चाहिए कि हम नहीं जानते,कि प्रार्थना किस रीति से करना चाहिए.’’(रोमियों 8:26)हम नहीं जानते,कि जो आशीष हम चाहते हैं वह अच्छी रहेगी अथवा नहीं.इस लिए हमारी प्रार्थना में यह विचार सम्मिलित होना चाहिए.’‘ हे प्रभु,तू आत्मा के सारे भेद जानता है.. तू इन जनों से परिचित है.उनके वकील,यीशु ने अपने प्राण उनके बदले दिया.उसका प्रेम उनके लिए हम से बड़ा है.यदि इससे तेरी महिमा प्रकट हो तथा दु:खियों को कल्याण हो तो हम यीशु के नाम पर विनती करते हैं कि वे फिर से स्वस्थ हो.यदि तेरी इच्छा नहीं है कि वे चंगे हों तो हम विनती करते हैं कि तेरा अनुग्रह उनको चैन दे और तेरी उपस्थित उनको संकट के समय सम्भाले.’‘ककेप 311.2

    परमेश्वर अन्त को आदि से जानता है. वह सब लोगों के हृदयों से परिचित है.हृदय की गुप्त बात से परिचित है.वह जानता है कि जिनके लिए प्रार्थना की जा रही है वे उन दु:खों को सहन कर सकेंगे या नहीं जो उन हितार्थ पर आने वाली हैं कि वे जीवित रहें.वह जानता है कि उनके जीवित रहने से स्वयं उनको तथा संसार को वरदान मिलेगा अथवा श्राप.यह एक कारण है कि जब हम उत्साह के साथ प्रार्थना करते हैं हमें यह कहना चाहिए’तौभी मेरी नहीं परंतु तेरी इच्छा पूरी हो.’’(लूका 22:43)जब यीशु गेतशिमनी के बाग में था उसने परमेश्वर के ज्ञान व इच्छा की आधीनता में ये शब्द कहे, “हे मेरे पिता जो हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जायं.’’(मत्ती 26:39) और यदि वे शब्द उसके लिए उचित थे जो परमेश्वर का पुत्र था तो हम जो सीमाबद्ध गलती के पुतले नश्वर हैं ये हमारे ओठों के लिए कितने अधिक योग्य होंगे.ककेप 311.3

    उचित रीति यह है कि हम अपनी अभिलाषाओं को अपने सर्वज्ञानी स्वर्गीय पिता को सौंप दें तब पूर्णविश्वास के साथ अपना सर्वव उसके हाथ में छोड़ दें.हम जानते हैं कि परमेश्वर हमारी सुनता है यदि हम उसकी इच्छानुसार मांगे.परन्तु अपनी प्रार्थनाओं को बिना नम्र भावना के पेश करना न्यायसंगत नहीं है;परन्तु अपनी प्रार्थनाओं आदेश देने वाली नहीं किन्तु सिफारिश करने वाली शक्ल होनी चाहिए.ककेप 311.4

    कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जहां परमेश्वर अपनी ईश्वरीय शक्ति हमारा बीमारी को चंगा करता है.परन्तु सारे रोगी चंगे नहीं किये जाते उनमें से बहुत से भी मसीह में सो जाते हैं.पटमस के द्वीप में योहन को यह लिखने का आदेश मिला,“जो मुरदे प्रभु में मरते हैं वे अब से धन्य हैं; आत्मा कहता है ‘’हां वे अपने परिश्रम से विश्राम पाएंगे और उनके कार्य उनके संग हो लेते हैं.’’(प्रकाशित वाक्य 14:13)इसमेंककेप 311.5

    हम यह देखते हैं कि यदि बीमार चंगे नहीं होते तो इस सब्बत से उनको नहीं समझना चाहिए कि उनके ईमान में कमी है.ककेप 311.6

    हम सब की यही इच्छा होती है कि हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर तुरन्त और सीधा मिले और यदि उत्तर में विलम्ब हो अथवा अप्रत्याशित रुप में मिले तो हम सम्भवत:निराश हो जाते हैं.परन्तु परमेश्वर हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर सदा उचित समय में और जिस प्रकार हम चाहते हैं ठीक उसी प्रकार देने को अति बुद्धिमान तथा दयालु है.वह तो हमारी इच्छाओं को पूरा करने से भीअधिक बेहतर कार्य करेगा.और इस लिए कि हम उसकी बुद्धि और प्रेम पर भरोसा रखते हैं हमें यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि वह हमारी इच्छा को स्वीकार करे प्रत्युत उसके मनोरथ में प्रवेश होने और उसको पूरा करने की चेष्टा करनी चाहिए. हमारी इच्छाएं तथा हमारे हित उसकी इच्छा में लोप हो जाने चाहिए.ये अनुभव जिनसे धर्म की परख होती हैहमारे हित उसकी इच्छा में लोप हो जाने चाहिए. ये अनुभव जिनसे धर्म की परख होती है हमारे लाभ के लिए हैं.उनके द्वारा यह बात प्रत्यक्ष हो जाती है कि हमारा विश्वास सच्चा और यथार्थ है और केवल परमेश्वर के वचन पर निर्भर करता है अथवा परिस्थितियों और अवलम्बित है,अनिश्चय तथा परिवर्तनशील है.विश्वास अभ्यास से बलवान होता है.हमें धीरज को पूर्ण कार्य करने देना चाहिए.यह याद रखते हुए कि धर्मपुस्तक में परमेश्वर की बाट जोहने वालों के लिए कीमती वायदे दिये गये हैं.ककेप 312.1

    सब तो इन सिद्धान्तों को समझ पाएंगे.कितने ही जो परमेश्वर की आरोग्य होने की करुणा की तलाश में हैं सोचते हैं कि उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर सीधा और तुरन्त मिलना चाहिए अन्यथा उनका विश्वास खोटा है.इस कारण जो लोग बीमारी के कारण निर्बल हो गये हैं उनको बुद्धिमानी के साथ सलाह देनी चाहिए कि वे समझ बुझ से काम लें.उन्हें मित्रों की ओर अपने कर्तव्य की अवहेलना न करनी चाहिए अथवा आरोग्य होने के लिए प्रकृति के साधनों के प्रयोग में गफलता नहीं करनी चाहिए.ककेप 312.2

    यहीं पर अक्सर गलती की सम्भावना है.इस बात का विश्वास करके कि प्रार्थना के उत्तर में चंगे तो हो ही जायंगे कुछ लोग भी नहीं करते कहीं उससे विश्वास की कमजोरी प्रकट न हो जाय.परन्तु उन्हें अपने मामलों को ठीक ठाक करने में उससे कम सावधानी नहीं करनी चाहिए जैसा वे उस समय करते जब मृत्यु का इतिजार हो रहा हो.उनको बुराई के समय अपने प्रिय जनों से उत्साहपूर्ण शब्द कहने से तथा सलाह देने से नहीं डरना चाहिए.ककेप 312.3

    जो प्रार्थना के द्वारा चंगे होने की आशा रखते हैं उनको अपनी पहुंच के अन्दर चिकित्सा सम्बंधी साधनों को प्रयोग करने में लापरवाही नहीं करनी चाहिए.कष्ट को कम करने तथा प्रकृति को रोग निवृति के कार्य में सहायता देने के निमित्त ऐसी औषधियों के प्रयोग करने में जिन्हें परमेश्वर ने प्रस्तुत किया है विश्वास का इन्कार नहीं होता.इसमें विश्वास का इन्कार नहीं होता कि परमेश्वर के सहयोग में काम करें और अपने को रोगनिवृत्ति की अनुकूल अवस्था में रखें. जीवन के नियमों का ज्ञान प्राप्त करना परमेश्वर ने हमारी शक्ति के अन्दर रखा है.यह ज्ञान हमारी पहुंच के अन्दर उपयोगार्थ रखा गया है.स्वास्थ की पुन:प्राप्ति के लिए हमें हर सुविधा का उपयोग करना चाहिए और प्राकृतिक नियमों के साथ हर सम्भावित अवसर का लाभ उठाना चाहिए. जब हमें रोगी के चंगे होने के निमित्त प्रार्थना कर चुकें तो हम और भी जोर के साथ काम कर सकते हैं और परमेश्वर को धन्यवाद दें कि हमें यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि उसके साथ मिलकर काम करें और उससे विनती करें कि उसका आशीर्वाद उन साधनों पर हो जिन्हें उसने प्रस्तुत किया है.ककेप 312.4

    चिकित्सा सम्बन्धी साधनों के प्रयोग करने के निमित्त हमें परमेश्वर के वचन का अधिकार प्राप्त है.इस्राएल का राजा हिजकियाह बीमार था और परमेश्वर का एक नबी उसके पास यह संदेश लेकर आया कि वह मर जायगा. वह परमेश्वर के सामने रो रोकर चिल्लाया,परमेश्वर ने अपने सेवक की विनती सुनी और यह संदेश उसको भेजा कि उसकी आयु में पन्द्रह वर्ष और बढ़ाये गये हैं.परमेश्वर की ओर से एक ही शब्द हिजकियाह को तुरन्त चंगा कर सकता था;परन्तु खास खास हिदायतें उसको दी गई “अंजीरों की एक टिकिया बनाकर हिजकियाह के फोड़े पर बाँधी जाए तब वह बचेगा.’’(यशायाह 38:21)ककेप 313.1

    जब हम रोगी के चंगे होने के लिए प्रार्थना करें तो उस परिस्थिति का जो भी परिणाम हो हम को परमेश्वर पर से विश्वास नहीं छोड़ना चाहिए.यदि हमें किसी प्रिय जन की मृत्यु का दु:ख भोगना पड़े तो हम उस रिक्त कटोरे को स्वीकार कर लें और याद रखें कि पिता के हाथ उसको हमारे मुंह तक सम्भाले हुए हैं.परन्तु यदि स्वास्थ्य की पुन: प्राप्ति हो तो भूलना नहीं चाहिए कि आरोग्यता के दया पात्र सृजनहार के प्रति नये तौर से कृतज्ञता के अधीन रखा गया है. जब दस कोढ़ियों की शुद्धि हुई थी तो केवल एक ही ने लौटकर यौशु की स्तुति की.हम में से कोई उन विचारहीन नौं की भांति न बने जिनके हृदय परमेश्वर की दया से अछूते रहे.’’हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है और ज्योतियों की पिता की ओर से जिसमें अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है.’’(याकूब 1:17)ककेप 313.2