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कलीसिया के लिए परामर्श

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    अध्याय 11 - पवित्र जीवन

    हमारा सृष्टिकर्ता हमारे सर्वस्व की मांग कर रहा है;वह हमारे प्रथम और पवित्रतम विचारों को तथा हमारे प्रगाढ स्नेह को मांगता है.यदि हम वास्तव में ईश्वरीय प्रकृति के भागी हैं तो उसकी स्तुति लगातार हमारे मन तथा मुख में होगी. हमारी एक मात्र सुरक्षा इसी में है कि हम अपना सर्वस्व उसके सिपुर्द कर दें और निरंतर अनुग्रह मेंऔर सत्य की पहचान में बढ़ते जाएं.ककेप 91.1

    पवित्र शास्त्र में वर्णित पवित्रता का कार्य सम्पूर्ण अस्तित्व से है अर्थात् मन,आत्मा तथा देह से. इसमें सम्पूर्ण संकल्प का तथ्य पाया जाता है. पौलुस की प्रार्थना है कि थिस्सलुनीकियों की मण्डली, इस भारी वरदान का आनन्द लेवे.’’परमेश्वर आप ही तुम्हें पूरी रीति से पवित्र करे और तुम्हारी आत्मा और प्राण और देह हमारे प्रभु यीशु मसीह के आने तक पूरे पूरे और निर्दोष सुरक्षित रहें.’’(2थिस्सलुनीकियों 5:23)ककेप 91.2

    धार्मिक जगत में पवित्रता के विषय में एक सिद्धान्त प्रचलित है जो स्वयं असत्य है और प्रभाव में भयानक, बहुत सी स्थितियों में लोग पवित्रता का इकरार तो करते हैं पर अपने अन्दर असली गुण नहीं रखते. उनकी पवित्रता बात ही बात और इच्छा भक्ति की होती है.ककेप 91.3

    वे विवेक और न्याय को ताक में रख देते हैं और सम्पूर्णत: भावनाओं पर निर्भर करने लगते और अपने पवित्रताई के दृढ़ दावों की बुनियाद उन उमंगों पर डालते हैं जो कभी उनके अनुभव में आईं हों, वे अपने पवित्रताई के दृढ़ दांवों को उकसाने में हठी और असत्य है,बक-बक तो करते हैं परन्तु प्रमाण स्वरुप कोई कीमती फल उपस्थित नहीं करते. ये तथाकथित पवित्रजन अपने पाखंडों से अपनी ही आत्माओं को धोखा नहीं दे रहे हैं किन्तु बहुतों को जो यथार्थ में परमेश्वर की इच्छा कीअनुकूलता में चलने चाहते है भटकाने का प्रभाव डाल रहे हैं.शायद वे बार-बार यह कहते हुये सुने जायं कि ‘‘ परमेश्वर मेरा पथप्रदर्शन करता है, परमेश्वर मुझे शिक्षा देता है, मैं पाप रहित जीवन व्यतीत करता हूँ.’’बहुत से जो इस भावना के संसर्ग में आते हैं वे किसी ऐसी अज्ञानता एवं रहस्य का सामना करते हैं जिसको वे बूझ नहीं सकते. परन्तु यह वही है जो मसीह के जो सच्चा नमूना है बिल्कुल विपरीत है.ककेप 91.4

    पवित्रता का कार्य एक क्रमशः कार्य है.पतरस के शब्दों में हमारे सामने क्रमानुसार कदम रखे गये हैं, “इसी कारण भी तुम सब प्रकार का यत्न करके अपने विश्वास पर सद्गुण पर समझ पर संयम और सयम पर धीरज और धौरज पर भक्ति और भक्ति पर भाईचारे की प्रीति और भाईचारे की प्रीति पर प्रेम बढ़ाते जाओ. क्योंकि यदि ये बातें तुम में वर्तमान रहें, और बढ़ती जाएं ,तो तुम्हें हमारे प्रभु मसीह के पहचानने में निकम्मे और निष्फल न होने देंगी.’’(2पतरस 1:5-8)’‘ इस कारण हे,भाइयों,अपने बुलाए जाने,और चुन लिए जाने को सिद्ध करने की भली-भांति यत्न करते जाओ,क्योंकि यदि ऐसा करोग,तो कभी भी ठोकर न खाओगे, वरन् इस रीति से तुम हमारे प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु मसीह के अनन्त राज्य में बड़े आदर के साथ प्रवेश करने पाओगे.’’पद 10:11.ककेप 91.5

    यहाँ पर वह स्तर रखा गया है जिससे हमें विश्वास दिलाया जाता है कि हम कभी नहीं गिरंगे, जो मसीही सद्गुणों की इस योजना को प्राप्त करने में काम कर रहे हैं उनको विश्वास है कि परमेश्वर उनको अपनी आत्मा के वरदानों को प्रदान करने में वृद्धि की योजना को कार्यान्वित करेगा.ककेप 92.1

    पवित्रता का कार्य एक क्षण,घंटे या दिन का नहीं है.यह तो अनुग्रह में लगातार बढ़ते रहने का कार्य है. एक दिन में हम नहीं बतला सकते कि हमारा संघर्ष दूसरे दिन कितना दृढ़ होगा. शैतान तो जीवित और सक्रिय है और हमें प्रतिदिन परमेश्वर को जोर से पुकारना चाहिए कि उसका मुकाबला करने को मदद और बल दे. जब तक शैतान का राज्य है तब तक हमें स्वार्थ पर जय पानी,झंझटों पर विजय प्राप्त करनी होगी और ठहरने का स्थान नहीं है, कोई मुकाम ऐसा नहीं जहाँ पहुँच कर हम कह सकें कि अब हमने पूरी तौर से प्राप्त कर लिया है.ककेप 92.2

    मसीही जीवन लगातार आगे कदम बढ़ाने का है. यीशु अपने लोगों को सुनार की और शुद्ध करने वाले की भांति बैठा है और जब उसकी प्रतिभा का उनमें पूर्ण रुप से प्रतिबिम्ब दिखने लगेगा तभी वे सिद्ध और पवित्र होकर स्वर्गारोहण के लिए तैयार होंगे.मसीही से एक भारी काम की मांग की जाती है.हमको उपदेश दिया गया है कि हम सारी शारीरिक व आत्मिक मलीनता से शुद्ध हों और परमेश्वर के भय में पवित्रता को उन्नत करें.यहीं पर सारे कार्य का बोझ है.मसीही को लगातार काम करना है.दाख की प्रत्येक डाली को दाखलता में से जीवन और बल प्राप्त करना है ताकि वह फल देवे.ककेप 92.3

    कोई धोखा न खाए इस विचार को रखते हुए कि परमेश्वर क्षमा करेगा तथा आशीर्वाद भी देगा, जब वे उसकी मांगों में से एक को पांवों के नीचे रौंद रहे हैं.पापी को जान बूझकर करने से पवित्र आत्मा की साक्षी देने वाली आवाज खामोश हो जाती है और मानव को परमेश्वर से पृथक कर देती है.धार्मिक भावनाओं से जो कुछ भी आनन्द प्राप्त हों, परंतु यीशु उस हृदय में वास नहीं कर सकता जो ईश्वरीय व्यवस्था का अनादर करता है. परमेश्वर केवल उन्हीं का आदर करता है जो उसका आदर करते हैं.ककेप 92.4

    जब पौलुस ने लिखाः’शाति का परमेश्वर आप ही तुम्हें पूरी रीति से पवित्र करे.’’(2 थिस्सलुनीकियों 5:23)उसने अपने भाइयों को यह उपदेश नहीं दिया कि ऐसे स्तर की ओर लक्ष्य बांधना जिस तक पहुँचना उनके लिये असंभव था;उसने ऐसी प्रार्थना नहीं की कि उन्हें वे आशीषं मिल सकती हैं जिन्हें देने की परमेश्वर की इच्छा नहीं है.वह जानता था कि जितने मसीह को शांति के साथ मिलने के योग्य समझे जायंगे उनका चाल चलन शुद्ध व पवित्र होना चाहिये.(पढिये 1कुरिन्थियों 9:25-27;1कुरिन्थियों 6:19,20)ककेप 92.5

    खरा मसीही सिद्धान्त परिणामों को विचार करने के लिये नहीं ठहरेगा.वह यह प्रश्न नहीं करता,यदि मैं ऐसा करुं तो लोग क्या सोचेंगे? या यदि मैं वह करुं तो इससे मेरे लौकिक भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? बड़ी उत्सुकता से परमेश्वर की संतान जानने की इच्छा करती है कि वह क्या चाहता है कि हम करें जिस्ते उनके कार्य से उसकी महिमा हो सके.परमेश्वर ने पर्याप्त प्रबंध किया है कि उसके सारे अनुयायियों के हृदय और जीवन ईश्वरीय अनुग्रह के अधीन हों और वे जलते और चमकते हुये प्रकाशककेप 92.6

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