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कलीसिया के लिए परामर्श

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    बालकों में भक्ति की भावना होनी चाहिए

    माता-पिता,मसीह धर्म के स्वर को अपने बालकों के हृदय में ऊंचा कीजिए;मसीह को वे अपने अनुभव में लावें ऐसा करने में उनको सहायता कीजिए;उनके हृदय में परमेश्वर के घर के लिए अत्यधिक सम्मान होना चाहिए ऐसा उनको सिखलाइये;उनको समझाइये कि जब परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं तो उनके मन नम्र हों और इस प्रकार कि विचार से गम्भीर होना चाहिये,’’यहां पर परमेश्वर है;यह उसका घर है. मेरे विचार पवित्र और इरादे शुद्ध होने चाहियें. मेरे मन में घमण्ड,द्वेष,डाह,कटु विचार,घृणा अथवा धोका नहीं होना चाहिये क्योंकि मैं परमेश्वर की उपस्थिति में आया हुआ हूँ.यही जगह है जहां परमेश्वर अपने लोगों से भेंट करता और उन्हें आशीर्वाद देता है.परम पवित्र परमेश्वर जो अनंतकाल लो बास करता हैं मुझको देखता है, मेरे हृदय को छानता है और मेरे जीवन के सब से गुप्त विचारों को और कार्यों को पढ़ता है.”ककेप 113.2

    युवकों के सूक्ष्मऔर ग्रहणशील मन परमेश्वर के दासों के परिश्रम का मूल्य अपने माता-पिता के रवैये से लगाते हैं.बहुत से परिवारों के प्रधान व्याख्यानों को अपने घरों में आलोचना का विषय बनाते हैं और थोड़ी सी बातों को स्वीकार करते हैं.यों परमेश्वर के संदेश की आलोचना होती और उस पर संदेह किया जाता है और एक हल्का विषय जैसा समझा जाता है.इन लापरवाह,निन्दित आलोचनाओं से युवकों पर जो भी प्रभाव पड़ता है स्वर्गीय पुस्तक ही उनको प्रत्यक्ष करेंगे. इन बातों को माता-पिता के ध्यान आने की अपेक्षा बालक जल्दी से देख सकते और समझ सकते हैं. उनकी नैतिक ज्ञानदन्द्रियां ऐसी पक्षपाती हो जाती हैं कि समय भी उन्हें दुरुस्त नहीं कर पायेगा. तब माता-पिता अपने बालकों की कठोरता पर और उनकी नैतिक चेतनता उत्तेजित करने की कठिनाई पर खेद प्रकट करते हैं.ककेप 113.3

    परमेश्वर के नाम के लिए भी आदर प्रकट करना चाहिये.सामान्य रीति से अथवा समझे बुझे न लेना चाहिये. प्रार्थना करते भी उसको बार-बार अथवा व्यर्थ दुहराना चाहिये.’‘ उसका नाम पवित्र और भय योग्य है.’’(भजनसंहिता 111:9)दूत जब उसको लेते हैं तो अपने मुंह ढाँक लेते हैं. तो हम जो पतित और पापी है उस नाम को कितना आदर के साथ लेना चाहिये.ककेप 113.4

    मुझे दिखाया गया कि परमेश्वर का नाम भय तथा श्रद्धापूर्ण उच्चारण करना आवश्यकता हैं. “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ‘’ये दो शब्द के साथ उपयोग किया जाता है और कोई कोई प्रार्थना करने के समय इनको बड़ी असावधानी और न समझ के साथ उच्चारण करते हैं.ककेप 114.1

    उनका उच्चारण करने के समय उनके मन में श्रद्धा या भक्ति का आभास नहीं रहता है.अत:आचरण परमेश्वर को अत्यन्त अप्रसन्न करता है. ऐसे लोगों के मन में परमेश्वर की उपस्थिति की अथवा सत्य की चेतना नहीं हैं अन्यथा वे महान एवं भयंकर परमेश्वर के प्रति जो शीघ्र अन्त के दिन में उनका न्याय करने आ रहा है ऐसी निरादरता से नहीं बोलते.दूत ने कहा, उनको एक साथ न जोडो, क्योंकि उसका नाम भंयकर है. जितने परमेश्वर की महानता तथा वैभव को अनुभव करते हैं वे उसके नाम को अपने ओठों से पवित्र भय के साथ उच्चारण करेंगे. वह ऐसी अगम्य ज्योति में निवास करता है जहा हमारा पहुंचना दुर्लभ है. उसको देखकर कोई मनुष्य जीवित नहीं रह सकता है. मुझे दिखाया गया कि कलीसिया को सफलता के पथ पर अग्रसर होने के लिए इन बातों को समझना पड़ेगा और संशोधन करना आवश्यक है. अरली रायटिंग्स पेज 122ककेप 114.2

    हमें परमेश्वर के वचन (बाइबल)का सम्मान करना चाहिये. पवित्रशास्त्र के लिए हमें आदर प्रकट करना चाहिये और उसे सामान्य रीति से उपयोग में न लाना चाहिये अथवा लापरवाही से उठाना-रखना न चाहिये.हंसी ठट्टा के रुप में शास्त्र का प्रयोग न करना चाहिये और न किसी चतुराई की कहावत के संकेत करने के लिए अनुवाद करने की चेष्टा करनी चाहिये.’ईश्वर का एक-एक वचन ताया हुआ है वे उसे चांदी के समान जो भट्टी में मिट्टी पर ताई गई,ओर सात बार निर्मल की गई हो.(नीतिवचन 30:5,12:6)ककेप 114.3

    सर्वोपरि बालकों को शिक्षा देनी चाहिये कि सच्चा आदर आज्ञा पालन द्वारा प्रकट किया जाता है. परमेश्वर ने किसी अनावश्यक वस्तु की आज्ञा नहीं दी है, और आदर प्रकट करने का कोई दूसरा मार्ग नहीं हैं सिवाय उसके मुंह से निकले हुये वचन की आज्ञाकारिता के.ककेप 114.4

    परमेश्वर के प्रतिनिधियों-अध्यक्षों, शिक्षकों तथा माता-पिताओं के लिए जो उसके स्थान में व्याख्यान देने तथा कार्य करने को नियुक्त किये गये हैं आदर प्रकट करना चाहिये.परमेश्वर का हो आदर होना है जब उसके भक्तों का आदर किया जाता है. ककेप 114.5

    अच्छा होगा कि वृद्ध और युको दोनों शास्त्र के इन शब्दों पर विचार करें जो प्रकट करते हैं कि उस स्थान का जहा परमेश्वर की विशेष उपस्थिति हो कैसा सम्मान होना चाहिये. उसने जलती झाड़ी में से मूसा को आज्ञा दी, “अपने पांवों से जूतियों को उतार दे,क्योंकि जिस स्थान पर तू खड़ा है वह पवित्र भूमि है.’’(निर्गमन 3:5)तब याकूब जाग उठा और कहने लगा.’ ‘निश्चय इस स्थान में यहोवा है;और मैं इस बात को न जानता था. और भय खाकर उसने कहा, यह स्थान क्या हो भयानक है! यह तो परमेश्वर के भवन को छोड़ और कुछ नहीं हो सकता वरन् यह स्वर्ग का फाटक हो होगा.’’(उत्पत्ति 28:16,17)ककेप 114.6

    सिद्धांत और नमूने से पवित्र वस्तुओं के विषय में आदर भाव में बोलने से आपको धर्म के लिये आदर प्रकट करना चाहिये. जब आप शास्त्र का उद्धत करते हैं तो अपने होठों से कोई हलका या तुच्छ न निकलना चाहिये.जब आप बाइबल को हाथ में लेते हैं तो याद रखिये कि आप पवित्र भूमि में हैं. स्वर्गदूत आप के इर्द-गिर्द हैं यदि आपकी आँखे खोली जाये तो आप उनको देख सकते हैं.आप की चाल ढाल ऐसी हो कि जिस किसी व्यक्ति से आपका संबंध हो उस पर प्रभाव पड़े कि आप को पवित्र व शुद्ध वायुमंडल घेरे हुये है.कोई व्यर्थ शब्द, कोई निकृष्ट हंसी किसी आत्मा पर गलत शिक्षा की ओर जाने में जोर डाल सकती है. परमेश्वर के साथ लगातार संपर्क न होने के परिणाम भयंकर होते हैं.ककेप 115.1

    सब को साफ-सुथरा रहने और अपने वस्तु को उचित रुप से पहनने की शिक्षा देनी चाहिये.ऊपर ठाट-बाट में नहीं लगा रहना चाहिये क्योंकि यह मंदिर के लिये सर्वथा अनुचित है.वस्त्र दिखावे के लिए नहीं होना चाहिये क्योंकि इससे श्रद्धा तथा भक्ति जाती रहती है.लोगों का ध्यान पहिराव के उत्तम वस्त्र पर आकर्षित होता है.और ऐसे विचार घुस जाते हैं जो उपासकों के मन में होने नहीं चाहिये.परमेश्वर हो सोचने का विषय और उपासना की वस्तु हो;और कोई वस्तु जो पवित्र आराधना से मन को अपनी ओर आकर्षित करती है वह परमेश्वर की घृणित है.ककेप 115.2

    पवित्रशास्त्र के नियमानुकूल चलते हुए पहिरावे के सब बातों में बहुत सावधान होना चाहिये.पहिनावा(फैशन) बाहरी दुनिया पर देवी की मूर्ति शासन करने वाली रही है और वह अवसर कलोसिया के बीच घुसना चाहती है.कलीसिया को उचित है कि वह परमेश्वर के वचन को अपना मापदंड बनावे और माता-पिता को बुद्धिमानी के साथ इस विषय पर सोच-विचार करना चाहिये.जब वे देखते हैं कि उनके बालक सांसारिक पहिनावे की ओर झुक रहे हैं तो उनको इब्राहीम की भांति अपने परिवार को दुढ़ता पूर्वक अनुशासन करना चाहिये.उनको संसार के साथ मिलाने के बजाय परमेश्वर के साथ सम्पर्क कराना चाहिये, अपने भड़कोले वस्त्र से कोई परमेश्वर के मंदिर का अपमान न करे.वहां पर परमेश्वर और स्वर्गदूत उपस्थित रहते हैं. इस्राएल के पवित्र परमेश्वर ने अपने प्रेरितों द्वारा कहा है, “और तुम्हारा सिंगार दिखावटी न हो, अर्थात बाल गूंथने और सोने के गहने,या भांति के कपड़े पहनना. वरन् तुम्हारा छिपा हुआ और गुप्त मनुष्यत्व,नम्रता और मन की दौनता की अविनाशी सजावट से सुसज्जित रहे, क्योंकि परमेश्वर की दृष्टि में इसका मूल्य बड़ा है.’’(1 पतरस 3:3,4)ककेप 115.3