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कलीसिया के लिए परामर्श

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    अध्याय 18 - व्यक्तिगत परमेश्वर पर विश्वास

    अंतिम न्याय के दिन में प्रत्यक्ष हो जायगा कि परमेश्वर प्रत्येक मनुष्य से नाम बनाम परिचित था.हमारे जीवन के प्रत्येक कार्य को अदुश्य गवाह भली भांति जानता है. “मैं तेरे कामों को जानता हुँख’ ‘वह यह कहता है जो सातों सोने की दीवटों के बीच में फिरता है.’’(प्रकाशितवाक्य 2:1,2)यह प्रत्यक्ष है कि कैसे-कैसे शुभ अवसरों की उपेक्षा की गई,जो टेढ़े मार्गों पर भटकते फिरते हैं उनको सुरक्षा और शांति की राह पर ले आने के लिए गडेरिए के अथक परिश्रम को विचार कोजिए.बार-बार परमेश्वर ने भोगविलास प्रेमियों को पुकारा है;बार-बार उसने अपने वचन का प्रकाश उसके मार्ग पर डाला कि वे अपने खतरे को देखकर उससे बचें. परन्तु वे चौड़े मार्ग पर हंसी ठट्टा करते हुए आगे बढ़ते चले जाते हैं जब कि उनके लिए दया का द्वार बन्द हो जाता है.परमेश्वर की राहें यथार्थ और पक्षपात रहित हैं,और जो तराजू में कम उतरे हैं उनके विरुद्ध दण्डाज्ञा की जायगी तो हर एक का मुंह बन्द हो जाएगा.ककेप 132.1

    अद्भुत शक्ति जो प्रकृित द्वारा कार्य करती है और सारी वस्तुओं को सम्भालती है केवल एक सर्वव्यपाक सिद्धान्त यो कार्य करने वाली शक्ति ही नहीं है जैसा कुछ वैज्ञानिक समझते हैं. परमेश्वर आत्मा है तौभी वही व्यक्तिगत जीवात्मा है;क्योंकि मनुष्य उसके स्वरुप पर पैदा किया गया है.ककेप 132.2

    प्रकृति में परमेश्वर की कारीगारी स्वयं परमेश्वर नहीं.प्रकृति की वस्तुएँ परमेश्वर के चरित्र को प्रकट करती हैं;उनके द्वारा हम उसके प्रेम,शक्ति तथा महिमा को समझ सकते हैं;परन्तु को स्वयं परमेश्वर नहीं समझना चाहिए.मानव प्राणी की सुन्दर कला कौशल द्वारा मनोहर कृतियां उपस्थित की जाती हैं.ऐसी कृतियां जिनसे नयन हर्षित होते हैं और वे वस्तुएँ कलाकार के विचार की झलक दिखलाते हैं परन्तु बनी हुई वस्तु स्वयं मनुष्य नहीं हो सकती.कारीगरी नहीं किन्तु कारीगर सम्मान के योग्य समझा जाता है.इसी प्रकार प्रकृति जो परमेश्वर के विचार का रुप है स्वयं परमेश्वर नहीं इस लिए प्रकृति की नहीं परन्तु प्रकृति के परमेश्वर की प्रशंसा होनी चाहिए.ककेप 132.3

    मनुष्य की सृष्टि में एक व्यक्तिगत परमेश्वर का अभिकर्ता प्रकट होता है. जब परमेश्वर ने मनुष्य को अपनी प्रति-मूर्ति किया था तो मानव आकार सम्पूर्ण रीति से सिद्ध था परन्तु उसमें प्राण न थे.तब एक व्यक्तिगत स्वयंस्थित परमेश्वर ने उस आकृति में जीवन का सांस फूका और मनुष्य एक जीवित,सांस लेने वाला समझदार प्राणी बन गया.मानव अंगरचना के प्रत्येक अंग कार्यशील हुए.हृदय धमनियाँ रक्त वाहिनियाँ, जिह्य, भुजाएँ, पाँव,ज्ञानेद्रियाँ,मानसिक ज्ञान सारे के सारे अपना कार्य करने लगे और सब-केसब नियम के अधीन रखे गए. मनुष्य जीता प्राणी बन गया.व्यक्तिगत परमेश्वर ने यीशु मसीह द्वारा मनुष्य को सृजा और उसको बुद्धि और शक्ति प्रदान की.ककेप 132.4

    जब हम गुप्त में बनाए गए तो हमारा तत्व उससे छिपा हुआ नहीं था. उसकी आंखों ने हमारा तत्व देखा जो अभी अपूर्ण था;और उसकी पुस्तक में हमारी सारी इंद्रिया लिखी हुई थीं जब कि अभी तक उन में से उपस्थित नहीं हुई.ककेप 133.1

    निम्न कोटि के प्राणियों की रचना के अलावा परमेश्वर ने यह युक्ति सोची कि उसकी सृष्टि रचना की शिरोमणि कार्य, मनुष्य उसके (परमेश्वर के)विचार की और उसकी महिमा को प्रकट करे. परन्तु मनुष्य अपने को परमेश्वर जैसा उच्च न बनावे.ककेप 133.2

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