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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 22—मूसा

    यह अध्याय निर्गमन 1-4 पर आधारित है

    मिस्रवासियों ने, अकाल के दौरान स्वयं के लिये खाद्य-सामग्री जुटाने के लिये, अपनी भूमि और मवेशियों को राजा को बेच दिया था और अपने आप को अन्ततः: चिरस्थायी कषि-दासत्व के लिये विवश कर दिया था। युसुफ ने समझदारी से उनके निवारण हेतु प्रबन्ध किया; उसने उन्हें राजसी, पट्टेदार बनने की अनुमति दे दी। वे फिरौन की भूमि के स्वामी तो थे, लेकिन अपने श्रम की उपज का पॉाँचवा हिस्सा वार्षिक शुल्क के तौर पर देते थे।PPHin 240.1

    लेकिन याकूब के पुत्र ऐसे प्रतिबन्धों की आवश्यकता के अधीन नहीं थे। मिस्र देश को युसुफ द्वारा दी गईं सेवा के आधार पर, उन्हें ना केवल राज्य का कुछ भाग निवास स्थान के रूप में प्रदान किया गया, वरन उन्हें कर देने से भी छूट दी गई और अकाल के दौरान उन्हें उदारतापूर्वक भोजनवस्तु मुहैया की गईं। फिरौन ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि युसुफ के परमेश्वर के करूणापूर्ण हस्तक्षेप के कारण मिस्र ने बहुतायत का आनन्द उठाया जबकि अन्य राज्य अकाल से नष्ट हुए जा रहे थे। उसने यह भी देखा कि युसुफ के शासन प्रबन्ध ने राज्य को अत्यन्त समृद्ध किया था और इस कारण याकूब के परिवार पर राजसी कृपा-दृष्टि बनी रही।PPHin 240.2

    लेकिन समय बीतने पर, जिस महान व्यक्ति का मिस्र ऋणी था, ओर जिसके श्रम से वह पीढ़ी धन्य हुईं, वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। और “मिस्र में एक नया राजा गद्दी पर बैठा जो युसुफ को नहीं जानता था।” ऐसा नहीं था कि वह राज्य के प्रति युसुफ की सेवाओं से अनभिज्ञ था लेकिन वह उन्हें मान्यता नहीं देना था और जहां तक सम्भव था उन्हें बिल्कुल भुला देना चाहता था। उसने अपनी प्रजा से कहा, “देखो, इज़राइली हमसेगिनती और सामर्थ्य में अधिक बढ़ गए हैं। इसलिये आओ हम उनके साथ बुद्धिमानी से बर्ताव करें, कहीं ऐसा न हो कि जब ये बहुत बढ़ जाएं और यदि संग्राम का समय आ पड़े, तो हमारे बैरियों से मिल कर हम से लड़े और इस देश से निकल जाएं।”PPHin 240.3

    इज़राइलियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी, वे ‘फूलने-फलने लगे, और वे लोग अत्यन्त सामर्थी बनते चले गए, और इतना अधिक बढ़ गए कि सारा देश उनसे भर गया।” याकूब के पालन-पोषण द्वारा उस समय के फिरौन की कृपा-दृष्टि से वे बढ़ते और फैलते चले गए। लेकिन उन्होंने स्वयं को एक विशिष्ट जाति के रूप में रखा था और धर्म और रीति-रिवाजों में मिस्र के लोगों के साथ समन्वय नहीं बढ़ाया था। उनकी बढ़ती जनसंख्या ने अब फिरौीन और उसके लोगों में भय उत्पन्न कर दिया कि युद्ध के समय वे मिस्र के शत्रुओं के साथ न मिल जाएं। लेकिन विधि अनुसार उन्हें देश निकाला नहीं दिया सकता था। उनमें से कई योग्य व समझदार कारीगार थे जिन्होंने राज्य की निधि को बढ़ाने में योगदान दिया था, फिरीन को अपने वैभवशाली महलों व मन्दिरों के निर्माण के लिये ऐसे श्रमिकों की आवश्यकता थी। इस के अनुसार उसने इज़राइलियों को उसी वर्ग में रख दिया जो उन मिम्नियों का था जिन्होंने स्वयं को अपनी धन-सम्पत्ति सहित, राज्य के हाथों बेच दिया था। उन पर बेगारी कराने वाले को नियुक्त कर दिया गया और इस प्रकार वे पूर्ण रूप से दासत्व में बँध गए। “और मिस्रियों ने इज़राइलियों से कठोरता के साथ सेवा करवाई और उनके जीवन को गारे, ईंट और खेती के भांति-भांति के काम की कठिन सेवा से दुखी कर डाला, जिस किसी काम में वे उनसे सेवा करवाते थे, उसमें वे कठोरता का व्यवहार करते थे।” “लेकिन ज्यो-ज्यों वे उनको दुख देते गए, त्यौं-त्यौं वे बढ़ते और फैलते चले गए।PPHin 240.4

    फिरोन और उसके परामर्शदाताओं ने कठोर परिश्रम करवाकर इज़राइलियों का दमन करके उनकी संख्याकों घटाने और उनके स्वतन्त्र स्वभाव को कुचल डालने की आशा की थी। अपने उद्देश्य की आपूर्ति में असफल होने पर उन्होंने और भी निर्मम युक्तियाँ अपनाई। उन महिलाओं को आदेश दिए गए जिनकी नियुक्ति उन्हें नवजात इब्री बालकों को नष्ट कर देने की आज्ञा का पालन करने का अवसर प्रदान करती थी। इस विषय में पहल करने वाला शैतान था। उसे ज्ञात था कि इज़राईलियों में से एक मुक्तिदाता आने को था, और फिरौन के माध्यम से बालको को नष्ट करवाकर वह ईश्वरीय प्रयोजन को नष्ट कर देना चाहता था। लेकिन महिलाएँ परमेश्वर का भय रखने वाली थीं, और उन्होंने उस निर्दयी जनादेश का पालन करने आ दुस्साहस नहीं किया। परमेश्वर ने उनके उपाय को स्वीकार किया और उन्हें समृद्ध किया। अपनी युक्ति की असफलता से कोधित, फिरौन ने आदेश को और भी आग्रहपूर्ण और व्यापक बना दिया। पूरे राज्य को अधिकार दे दिया गया कि उसके असहारा अहेरों को ढूँढ कर मार दिया जाए। “तब फिरौन ने अपनी सारी प्रजा के लोगों को आज्ञा दी” इब्रियों के जितने बेटे उत्पन्न हो उन सभों को तुम नील नदी में डाल देना और सब बेटियों को जीवित रहने देना।PPHin 241.1

    जब यह राजाज्ञा पूरे जोर पर थी, लैवी के घराने के धर्मपरायण इज़राइलियों, अम्राम और योकेबेद से एक बेटा उत्पन्न हुआ। यह बालक ‘एक सुन्दर था। यह विश्वास रखते हुए कि इज़राइल के मुक्त होने का समय निकट आ रहा था और यह कि परमेश्वर अपने लोगों के लिये एक मुक्तिदाता को खड़ा करेगा, उसके मां-बाप ने निश्चय किया कि वे अपने बालक की बलि नहीं चढ़ने देंगे। परमेश्वर में विश्वास ने एनके हृदयों को स्थिर किया, “और वे राजा की आज्ञा से भयभीत न हुए”।-इब्रानियों 11:23 ।PPHin 242.1

    तीन मास तक माँ बच्चे को छिपाए रखने में सफल रही । जब उसे लगने लगा कि वह उसे और दिनों तक सुरक्षित नहीं रख सकती थी,तब सरंकडो की एक टोकरी लेकर, उसे चिकनी मिट्टी और तारकोल से जलरोधक बनाकर, उसने बालक को उसमें रखकर और नील नदी के किनारे काँसो के बीच छोड़ आईं । अपने बच्चे व अपने प्राण गँवा देने के डर से वह वहाँ खड़े रहकर उसकी रक्षा कर दुस्साहइस न कर सकी, लेकिन बालक की बहन, मिरियम, वही रूकी रही, बेपरवाह, लेकिन उत्सुकता से यह देखते हुए कि उसके भाई का क्‍या हाल होगा। देखने वाले और भी थे। माँ की विश्वास भरी प्रार्थनाओं ने बालक को परमेश्वर की सुरक्षा के सुपुर्द कर दिया था, और अदृश्य स्वर्गदूत उसके साधारण विश्राम स्थान के ऊपर मण्डरा रहे थे। स्वर्गदूत ने वहाँ फिरौन की पुत्री को भेजा। छोटी सी टोकरी ने उसकी उत्सुकता को जागृत किया और जब उसने उसके अन्दर उस सुन्दर बालक को देखा तो एक ही झलक में उसने कहानी को पढ़ लिया। बच्चों के आँसुंओं ने उसकी करूणा को जागृत किया और उस माँ पर बहुत तरस आया जिसने अपने अनमोल नवजात शिशु के प्राणों की सुरक्षा के लिये यह तरीका अपनाया था। उसने शिशु को अपनी ही संतान के रूप में अपनाकर बचाने का निश्चय किया।PPHin 242.2

    मिरियम छिपकर प्रत्येक गतिविधि को देख रही थी, यह देखकर कि बालक पर नम्रतापूर्वक विचार किया जा रहा था, वह पास जाकर बोली, “क्या मैं जाकर इब्री स्त्रियों में से किसी धाई को तेरे पास बुला ले आऊं, जो तेरे लिये बालक को दूध पिलाया करें?” और उसे अनुमति दे दी गई।PPHin 242.3

    बहन जल्‍दी से यह शुभ समाचार लेकर माँ के पास गईं और, अविलम्ब, फिरोन की बेटी के उपस्थिति में, उसके साथ लौटी। फिरोन की बेटी ने उससे कहा, “तू इस बालक को ले जाकर मेरे लिये दूध पिलाया कर, और में तुझे मजदूरी दूँगी।” PPHin 243.1

    परमेश्वर ने माँ की प्रार्थनाओं को सुना था, उसके विश्वास का प्रतिफल उसे मिला। अत्यन्त कृतज्ञता के साथ उसने अपना सुरिक्षत और आनन्ददायक काम शुरू किया। उसे आभास हुआ किकि बालक को किसी महान कार्य के लिये संरक्षित किया गया था, और वह यह भी जानती थी कि जल्द हर उसे उसकी राजसी माता के सुपुर्द कर दिया जाएगा और तब वह ऐसी शक्तियों से घिरा होगा जो उसे परमेश्वर से दूर ले जा सकती थी। यह सब सोचकर अपने अन्य बच्चों से ज्यादा उसे शिक्षा देने में वह सावधान और उद्यमी थी। उसने उसके मन को पमरेश्वर के भय, सत्य और न्यायपरायणता के प्रति प्रेम से व्याप्त करने का प्रयत्न किया और आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि वह प्रत्येक भ्रष्ट कर देने वाले प्रभाव से सुरक्षित रहे। उसने उसे मूर्तिपूजा के पाप और अज्ञानता से परिचित करवाया और कम आयु में ही उसे जीवित परमेश्वर के सम्मुख झुकना और प्राथना करना सिखया, क्योंकि केवल परमेश्वर उसकी सुन सकता था और प्रत्येक आपातकाल में उसकी सहायता कर सकता था।PPHin 243.2

    उसने जब तक उससे हो सका, बालक की देखभाल की, लेकिन जब वह बारह वर्ष का हो गया तो वह उसको अपनेसेअलगकरने को विवश हो गई । उसके साधारण घर से उसे फिरौन की बेटी के पास राजसी महल में ले जाया गया, जहाँ, “वह उसका बेटा ठहरा” लेकिन यहाँ भी वह बचपन में प्राप्त हुए संस्कारों को नहीं भूला। जो सबक उसने अपनी माँ से सीखे थे, उन्हें उसने हमेशा याद रखा। ये संस्कार दरबार के वैभव के बीच पनपने वाली, अधर्म और घमण्ड के प्रति एक कवच के समान थे।PPHin 243.3

    कितना व्यापक था अपने परिणामों में उस एक इब्री स्त्री का प्रभाव, और वह भी एक प्रवासी और दास। मूसा का सम्पूर्ण भावी जीवन व इज़राइल अगुवा होने के नाते जो महान विशिष्ट कार्य उसने सम्पन्न किया था, एक मसीही माँ के काम के महत्व को प्रमाणित करता है। इस काम का कोई तुल्य नहीं। बहुत हद तक बच्चों का भविष्य माँ केहाथों में होता है। उसका काम विकासशील चित्रों और मनों से सम्बन्धित है, जो केवल समय के लिये नहीं वरन अनंतकाल के लिये कार्यशील रहती है। वह बीज बोती है जो अंकुरित होता है और फल देता है, भले के लिये या बुरे के लिये। उसे न तो कैन्वस पर सौन्दर्य के आकार को पेंट करना है और न ही संगमरमर से काट कर निकालना है, वरन्‌ ईश्वर की छवि की मानव पर छाप छोड़नी है। विशेषकर, बच्चों के प्रारम्भिक वर्षो के दौरान उनके चरित्र निर्माण का दायित्व माँ पर होता है। जो प्रभाव उनके विकासशील बुद्धि पर पड़ता है वह उनके साथ जीवन भर रहता है। अभिभावकों को अपने बच्चों को मसीही रखने के उद्देश्य से उन्हें बहुत कम आयु से निर्देश और प्रशिक्षण देना चाहिये। उन्हें एक सांसारिक साम्राज्य के सिंहासन का उत्तराधिकारी के रूप में नहीं, वरन्‌ चिरकालिक युगों के दौरान राज करने क लिये परमेश्वर में राजाओं के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करने हेतु हमारी देख-रेख में रखा गया है।PPHin 243.4

    प्रत्यक माँ को लगना चाहिये कि उसके क्षण अनमोल है, लेखा-जोखा के पवित्र दिन उसके कार्य को परखा जाएगा। उस समय ज्ञात होगा कि पुरूषों व स्त्रियों के अपराध और विफलताएँ उन लोगो की उपेक्षा और अज्ञानता का परिणाम है, जिनका कर्तव्य था कि वे बचपन में अपने बच्चों का सही मार्ग-दर्शन करें । फिर ज्ञात होगा कि कई लोग जिन्होंने पवित्रता और सच्चाई और प्रतिभा के प्रकाश से संसार को धन्य किया, वे उनकी सफलता और प्रभाव की प्रेरणा देने वाले सिद्धान्तों का श्रेय एक प्रार्थना में लीन मसीही माँ को देते हैं।PPHin 244.1

    फिरौन के दरबार में, मूसा ने सर्वोच्च मानव-समाज सम्बन्धी व सामरिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। फिरौन ने अपनेदत्तक नाती को अपने सिहासन का उत्तराधिकारी बनाने का निश्चियकर लिया था और नौजवन को उसके ऊँचे पद के लिये शिक्षित किया गया। “मूसा की मिस्रियों की सारी विद्या पढ़ाई गई, और वह वचन और कर्म दोनों में सामर्थी था।”-प्रेरितों के काम 7:32। सैनिक अधिकारी के रूप में उसकी योग्यता ने उसे मिस्र की सेनाओं का प्रीतिपात्र बना दिया और उसे एक असाधारण व्यक्ति माना जाता था। शैतान अपनी योजना में पराजित हुआ। जिस आज्ञा के अनुसार इब्री बालकों को मृत्यु के घाट उतारा जाना था वह परमेश्वर के द्वारा रद कर दी गई ताकि उसके लोगों के भावी अगुवे का प्रशिक्षण और शिक्षण हो सके।PPHin 244.2

    इज़राइल के बड़ों को स्वर्गदूतों द्वारा सिखाया गया कि उनकी मुक्ति का समय निकट था और मूसा वह पुरूष था जिसके माध्यम से परमेश्वर अपने कार्य को पूरा करने वाला था। स्वर्गदूतों ने मूसा को भी निर्देश दिया कि परमेश्वर ने उसके लोगों को दासत्व से निवारण के लिये उसे चुना था। मूसा ने यह सोचकर कि वे अस्त-शस्त्र की ताकत से स्वतन्त्र प्राप्त करेंगे, मिस्र की सेनाओं के विरूद्ध इब्री सेना नेतृत्व करने की अपेक्षा की और इसी बात को दृष्टि में रखते हुए, उसने अपने मोह को सीमित रखा कि कहीं अपनी पालन पोषण करने वाली मां से या फिरीन से लगाव के कारण वह परमेश्वर की इच्छा पूरी को स्वतन्त्र न होगा।PPHin 244.3

    मिस्र के नियमों के अनुसार जो भी फिरौन के सिंहासन पर बैठता था, उसके लिये धर्मगुरू की जाति का सदस्य बनाना अनिवार्य था, और मूसा को होने वाला उत्तराधिकारी होने के नाते, राष्ट्रीय धर्म के रहस्यों में दीक्षित होना था। यह कर्तव्य धर्म गुरूओं को दिया गया। लेकिन जब तक वह एकजउत्कृष्ट और अथक विद्यार्थी था, उसे देवी-देवताओं की आराधना में सम्मिलित होने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता था। उसे सिंहासन खो देने की धमकी दी गईं और यह चेतावनी दी गई कि यदि वह इब्री विश्वास के प्रति अपनी भक्ति में लीन रहेगा तो उसका राजकुमारी द्वारा परित्याग कर दिया जाएगा। लेकिन मूसा एकल परमेश्वर को छोड़ और किसी को श्रद्धांजलि न देने के संकल्प में दृढ़ था। उसने धर्मगुरूओं और आराध्यों से तक॑-वितक॑ किया और निजीव वस्तुओं की अन्धविश्वासी उपासना करने की मूर्खता से परिचित करवाया। कोई भी उसके तर्कों का खण्डन न कर सका और ना ही उसके लक्ष्य को बदल सका, लेकिन उस समय के लिये उसके उच्च पद और फिरौन और लोगों की कृपा-दृष्टि का पात्र होने के कारण उसकी दृढ़ता को सहन कर लिया गया।PPHin 245.1

    “विश्वास ही से मूसा ने सयाना होकर फिरौन की बेटी का पुत्र कहलाने से इन्कार किया। इसलिये कि उसे पाप में थोड़े दिन के सुख भोगने से परमेश्वर के लोगों के साथ दुःख भोगना अधिक उत्तम लगा। उसनेमसीह के कारण निन्दित होने को मिस्र के भण्डार से बड़ा धन समझा, क्योंकि वहअपना प्रतिफल पाने की बाटजोहरहा था।” मूसा प्रथ्वी के महान लोगों में विशिष्ट कहलाने, उसके सबसे गौरवशाली राज्य के दरबारों में सम्मानित होने व उसके अधिकार का राजदण्ड धारण करने के योग्य था। उसकी विवेक-सम्बन्धी श्रेष्ठता उसे सब युगों के महापुरूषों से अधिक विशिष्ट ठहराती है। इतिहासकार, कवि, दर्शनशास्त्री, सेनाध्यक्ष और विधायक के रूप में उसका कोई तुल्य नहीं। फिर भी संसार के सामने होते हुए भी, उसमें प्रसिद्धि और श्रेष्ठ और धन-सम्पत्ति के लुभावने प्रस्तावों को अस्वीकार करने का हौसला था और उसने “पाप में थोड़े दिन के सुख भोगने से परमेश्वर के लोगों के साथ दुःख भोगने को चुना ।मूसा को परमेश्वर के दीन और आज्ञाकारी सेवकों को दिये जाने वाले निर्णायक पुरूस्कार के सम्बन्ध में निर्देशित किया गया था, और उसकी तुलना में सांसारिक लाभ अपने वास्तविक महत्वहीनता पर उतर आया। फिरौन का शानदार महल और उसका सिंहासन मूसा के लिये प्रलोभन के रूप में सामने आए लेकिन वह जानता था कि उसके भव्य दरबारों में वे पापमय सुख थे जो मनुष्यों को परमेश्वर को भुला देने का काम करते हैं। उसने वैभवपूर्ण महल के परे, सम्राट के मुक्‌ट के परे, पापरहित राज्य में सर्वश्रेष्ठ के पवित्र लोगों को मिलने वाले सम्मान को देखा । विवश्वास के द्वारा उसने स्वर्ग के राजा द्वारा विजेता के सिर पर रखे जाने वाले अनवश्वर मुकुट को देखा। इसी विश्वास ने उसे पृथ्वी के तेजस्वी राज्यों से मुहँ मोड़ कर उस दीन, दरिद्र और तिरस्कृत जाति से जुड़ने कोविवश किया जिन्होंने पाप के काम करने के बजाय परमेश्वर की आज्ञा मानने को चुना था।PPHin 245.2

    मूसा चालीस वर्ष की आयु तक दरबार में रहा। अपने लोगों की दयनीय स्थिति पर वह अक्सर विचार किया करता था, और वह दासत्व में फंसे अपने भाईयों से मिलता था और उन्हें यह आश्वासन देकर प्रोत्साहित करता था कि परमेश्वर उनकी मुक्ति को कारगर करेगा। प्रायः उन पर किये जाने वाले अत्याचार व अन्याय के दृश्यों से कोधित होकर वह प्रतिशोध की आग में जलता था। एक दिन, जब वह बाहर था, उसने देखा कि एक मिस्री जन उसके एक भाई को मार रहा था। वह आगे कद पड़ा और उसने मिस्नरी को मार डाला। इस्राएली भाई के अलावा और कोई साक्ष्य को न देख, उसने तुरन्त उस शव को बालू में गाढ़ दिया। अब उसने स्वयं को यह प्रमाणित कर दिया था कि वह अपने लोगों के आन्दोलन को कायम रखने को तैयार था और उन्हें अपनी स्वतन्त्रता पुनः प्राप्त करने हेतु जागृत होते हुए देखने का इच्छुक था। “उसने सोचा कि उसके भाई समझेंगे कि परमेश्वर उसके हाथों से उसका उद्धार करेगा, परन्तु उन्होंने न समझा ।”-प्रेरितों के काम 7:25 । वे अभी स्वतन्त्र के लिये तैयार नहीं थे। दूसरे दिन मूसाने दो इब्रियों को लड़ते हुए देखा, जिनमें से एक यथार्थ में गलत था। मूसा ने अपराधी को डॉटा, जो यह कहते हुएएकदम प्रतिकार पर उतर आया, कि मूसा को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं और वह मूसा पर ही अपराध का अरोप लगाने लगा, “तुझे किसने हम पर हाकिम और न्यायी ठहराया है? क्‍या जिस रीति से तूने कल मिस्री को मार डाला, मुझे भी मार डालना चाहता है?PPHin 246.1

    यह सारी बात शीघ्र ही मिस्रियों में फैल गयी और बढ़-चढ़कर, फिरौन के कानों तक पहुँची। राजा के सम्मुख इस घटना को ऐसे प्रस्तुत किया गया मानों वह बहुत कुछ कह रही हो, कि मूसा अपने लोगों का मिस्रियों के विरूद्ध नेतृत्व करना चाहता था, वह सरकार को पराजित करना चाहता था और स्वयं सिंहासन पर बैठना चाहता था और यह कि उसके जीवित रहते हुए राज्य सुरक्षित नहीं था। फिरौन ने तुरन्त निर्णय किया कि मूसा को मरना होगा, लेकिन मूसा इस खतरे से सावधान होकर अरब की ओर बच कर भाग निकला। PPHin 247.1

    परमेश्वर ने उसका मार्गदर्शन किया और उसे मिद्यान के राजकुमार और धर्मगुरू यित्रो, जो स्वयं परमेश्वर का आराध्य था, के घर में आश्रय मिला। कुछ समय पश्चात मूसा ने यित्रो की एक बेटी से विवाह किया और वहाँ, अपने ससुर की सेवा में, भेड़ बकरियाँ चराते हुए उसने चालीस वर्ष व्यतीत किए।PPHin 247.2

    ग्रिसी को मारने में मूसा वहीं पाप कर बैठा था, जो उसके पूर्वज प्राय: किया करते थे, जिस काम को करने की परमेश्वर ने प्रतिज्ञा की हो उसके स्वयं अपने हाथों में ले लेने की गलती। अपने लोगों को युद्ध के माध्यम से स्वतन्त्र कराना परमेश्वर की इच्छा न थी, जैसाकिमूसा ने सोचा; वरन परमेश्वर अपने निजी पराक्रमी सामर्थ्य से उन्हें स्वाधीन कराना चाहता था, ताकि महिमा केवल उसी को मिले। लेकिन यह अविवेकीय कृत्य भी परमेश्वर द्वारा अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये भुला दिया गया ।मूसा अपने महान कार्य के लिये तैयार नहीं था।PPHin 247.3

    उसे अभी भी विश्वास का वह सबक सीखना था जो अब्राहम और याकूब को सिखाया गया था कि परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं के पूरा होने के लिये मानवीय सामर्थ्य व बुद्धि पर नहीं, वरन्‌ परमेश्वर की सामर्थ्य पर निर्भर होना चाहिये। इसके अलावा कुछ और सबक थे जो पहाड़ी के एकान्त में मूसा को प्राप्त होने थे। आत्म-त्याग और कठिनाईयों की पाठशाला में उसे अपने आवेग पर नियन्त्रण रखना और धेरयवान होना सीखना था। बुद्धिमानी से शासन करने से पहले उसे आज्ञापालन के लिये प्रशिक्षण पाना था। इससे पहले कि वह परमेश्वर की इच्छा का ज्ञान उसके लोगों को दे सकता परमेश्वर के साथ हार्दिक सामंजस्य आवश्यक था। अपने अनुभव से उसे उन सब की पिता-समान देखभाल करने के लिये तैयार होना था, जिन्हें उसकी सहायता की आवश्यकता थी।PPHin 247.4

    व्यर्थ समय गँवाना मानकर, मनुष्य अज्ञानता और परिश्रम की लम्बी अवधि से स्वयं को मुक्त कर लेता लेकिन ‘असीमित ज्ञान’ यानि परमेश्वर ने उसे, जिसे उसके लोगों का अगुवा बनना था, चालीस वर्षो तक चरवाहे का दीन काम करने के लिये नियुक्त किया। इस व्यवसाय के द्वारा विकसित देखभाल, स्वयं को भूल जाना और भेड़-बकरियों के प्रति संवेदनशील चिंता की व्यवहारिक विशेषताएं उसे इस्राएल का संवेदनशील व सहनशील चरवाहा बनने के लिये तैयार करती। मानवीय प्रशिक्षण या रीति-रिवाज द्वारा दिया गया कोई भी सुअवसर इस अनुभव का प्रतिनिधि नहीं हो सकता था।PPHin 248.1

    अभी तक मूसा वह सीख रहा था जिसे उसे भुलाना था।वे प्रभावजोमिस्र में उसे चारों ओर सेघेरे हुएथे-पालन-पोषण करने वाली उसकी मां, फिरौन का नाती होने के नाते उसका उच्च पद, हर तरफभ्रष्टाचार, कृत्रिम धर्म की सजावट, जटिलता और रहस्यवाद, मूर्तिपूजा का वैभव, मूर्तिकला और वास्तुशिल्प की प्रभावशाली भव्यता- इन सब ने उसके विकासशील मन पर गहरा प्रभाव डाला था और कुछ हद तक उसके चरित्र और आचरण को ढाला था। समय, परिवेश में बदलाव, और परमेश्वर के साथ संपर्क इन संस्करणों को दूर कर सकते थे। इसके लिये मूसा को वैसा ही संघर्ष करना था जैसा कि वह अपने प्राणों के लिये करता ताकि वह असत्य को त्याग कर सत्य को अपना सके, लेकिन संघर्ष के मानवीय सामर्थ्य के लिये अधिक विकट होने पर परमेश्वर उसका सहायक हुआ।PPHin 248.2

    उन सब में, जिन्हें परमेश्वर के किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिये चुना जाताहै, वह मानवीय प्राकृतिक स्वभाव दिखाई देता है। लेकिन फिर भी वे आचरण व चरित्र से रूढ़िवादी नहीं थे, जो उसी अवस्था में रहने में सन्तुष्ट थे। वे परमेश्वर से ज्ञान प्राप्त करने और उसके कार्यों को करने की शिक्षा प्राप्त करने की अभिलाषा करते थे। अनुयायी कहता है, “पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो तो परमेश्वर से माँगे, जो बिना उलहाना दिये सब को उदारता से देता है, और उसको दी जाएगी ।”-याकूब 1:5 ।लेकिन जब मनुष्य अन्धकार में रहने में सन्तुष्ट है तब परमेश्वर उन्हें ईश्वरीय प्रकाश नहीं प्रदान करेगा। परमेश्वर की सहायता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अपनी निर्बलता व अपूर्णता का आभास होना चाहिये, स्वयं में बदलाव लाए जाने के लिये उसे मन से तैयार होना चाहिये। उसे निरन्तर प्रार्थना व प्रयत्न के लिये जागरूक होना चाहिये । गलत आदतों व प्रथाओं को दूर कर देना चाहिये; इन गलतियों को सुधारने हेतु निर्धारित प्रयत्न और पवित्र सिद्धान्तों कीपुष्टि द्वारा ही विजय प्राप्त हो सकती है। कई लोग उस पद तक नहीं पहुँचते, जहाँ वे हो सकते थे, क्‍योंकि वे परमेश्वर द्वारा वह करने के लिये रूके रहते है, जिसे स्वयं करने की सामर्थ्य उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई है। जो भी उपयोग में लाए जाने योग्य है उन्हें कठोरतम मानसिक व सात्विक अनुशासन द्वारा प्रशिक्षण मिलना चाहिये, और मानवीय प्रयत्न के साथ ईश्वरीय सामर्थ्य को जोड़ने में परमेश्वर उनकी सहायता करेगा।PPHin 248.3

    पहाड़ों के एकान्तवास में मूसा परमेश्वर के साथ अकेला था। मिस्र के भव्य मन्दिर अब उसके मन को उनके अन्धविश्वास और भ्रान्ति द्वारा प्रभावित नहीं करते थे। उन अनन्त पहाड़ों के पवित्र गौरव में उसने ‘सर्वोच’ परमेश्वर के गौरव को देखा और उसे आभास हुआ कि इसकी तुलना में मिस्र के देवी-देवता कितने महत्वहीन और शक्तिहीन हैं। प्रत्येक जगह सृष्टिकर्ता का नाम अंकित था। मूसा को प्रतीत होता था कि वह उसकी उपस्थिति में खड़ा है और उसके सामर्थ्य की छाया उसपर है। यहाँ उसका घमण्ड और उसकी आत्म-निर्भरता दूर हो गए। निर्जन प्रदेश में जीवन की कठोर सादगी में भोग-विलास व सहजता के परिणाम विलोप हो गए। मूसा, धर्यवान, श्रद्धापूर्ण, दीन, “पृथ्वी भर के रहने वाले सब मनुष्यों से बहुत अधिक नम्र स्वभाव” का हो गया (गिनती 12:3)। फिर भी वह याकूब के परमेश्वर में दृढ़ विश्वास रखता था।PPHin 249.1

    समय बीतता गया, और वह एकान्त स्थानों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ घूमता था, अपने लोगों की उत्पीड़ित दशा पर मनन करते हुए उसे अपने पूर्वजों के साथ परमेश्वर का व्यवहार और चुनी हुईं जाति की धरोहर परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं का स्मरण हुआ और वह रात दिनइज़राइल के लिये प्रार्थना करने लगा। पवित्र स्वर्गदूतों ने उसके चारों ओर अपना प्रकाश बिखेरा। यहाँ, पवित्र आत्मा की प्रेरणा से, उसने उत्पत्ति की पुस्तक लिखी। मरूधर के एकांत में बिताए चिरकाल, ना केवल मूसा और उसके लोगो के लिये, वरन्‌ उत्तरगामी युगों में जगत के लिये बहुतायत से आशीषें लाए।PPHin 249.2

    “बहुत दिनों के बीतने पर मिस्र का राजा मर गया, इज़राइली दासत्व के कारण लम्बी-लम्बी सांस लेकर आहे भरने लगे, और पुकार उठे, और उनकी दुहाई जो जो दासत्व से प्रवाहित थी, परमेश्वर तक पहुँची। परमेश्वर ने उनका कराहना सुनकर, अपनी वाचा को, जो उसने अब्राहम, इसहाक और याकूब के साथ बाँधी थी, स्मरण किया और परमेश्वर ने इज़राइलियों की मुक्ति का समय आ गया था। लेकिन परमेश्वर की योजना को इस प्रकारसे परिपूर्ण होना था कि मानवीय धमंड का तिरस्कार हो। मुक्ति दिलाने वाले को, हाथ में केवल एक लाठी लिये हुए एक दीन चरवाहा बनकर जाना था, लेकिन परमेश्वर उसी लाठी को उसके सामर्थ्य का प्रतीक बनाने वाला था। एकदिन होरेब नामक परमेश्वर के पर्वत के पास अपनी भेड़-बकरियों को चराते हुए, मूसा ने एक जलती हुईं झाड़ी को देखा जिसकी शाखाएं, तना, पत्ते सब जले रहे थे लेकिन भस्म नहीं हो रहे थे। वह इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखने के लिये झाड़ी के पास गया और झाड़ी के बीच आग की लौ में से एक आवाज ने उसे नाम लेकर बुलाया। कंपकंपाते होठों से उसने उत्तर दिया, “मैं यहां हूँ” उसे सावधान किया गया कि वह उस स्थान पर श्रद्धाहीनता से आगे न बढ़े “इधर पास मत आ, और अपने पाँवों से जूतियों को निकाल दे क्‍योंकि जिस स्थान परतू खड़ा है वह पवित्र भूमि हे.......में तेरे पिता का परमेश्वर, और अब्राहम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर हूँ यह वही था, जिसने वाचा के स्वर्गदूत के रूप में, बीते युगों में उसके पूर्वजों को दर्शन दिये थे।” तब मूसा ने जो परमेश्वर की ओर देखने से डरता था, अपना मुँह ढांप लिया।”PPHin 249.3

    परमेश्वर की उपस्थिति में आने वाले सभी मनुष्यों के आचरण में आदर और दीनता चरित्रार्थ होने चाहिये। यीशु के नाम में हम आत्म-विश्वास के साथ उसके सम्मुख तो आ सकते हैं, लेकिन उसके पास जाने में हमें यह सोचने का दुस्साहस नहीं करना चाहिये, कि वह भी उसी स्तर पर है जहाँ हम है। कई लोग हैं जो अगम्य प्रकाश में निवास करने वाले महान पवित्र व सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ऐसे संबोधित करते हैं, जैसे वे अपने तुल्य या अपने से निम्नव्यक्ति को संबोधित करते हैं। फिर वे लोग है जो परमेश्वर के घर में ऐसा व्यवहार करते है,जैसा वे एक सांसारिक शासक के श्रोता कक्ष में करने को सोचेंगे भी नहीं। इन्हें स्मरण रखना चाहिये कि वे उसकी दृष्टि में है जिसकी प्रशंसा उच्च कोटि के स्वर्गदूत करते हैं, जिसके सामने स्वर्गदूत भी अपने मुहँढाँप लेते हैं। परमेश्वर को बहुत आदर मिलना चाहिये; जिन्हें उसकी उपस्थिति का आभास होता है, वे उसके सामने दीनतापूर्वक दण्डवत करेंगे और, परमेश्वर का दर्शन पाते हुए याकूब की तरह, ऊँचे स्वर में कहेंगे, “कितना डरावना है ये स्थान! यह स्थान कोई और नहीं, वरन्‌ परमेश्वर का घर है, और यह स्वर्ग का फाटक है।”PPHin 250.1

    मूसा परमेश्वर के सम्मुख आदरपूर्ण भय के साथ रूका रहा और परमेश्वर का कथन जारी रहा, “मैंने अपनी प्रजा के लोग जो मिस्र में है, उनके दुख को निश्चय देखा है, और उनकी जो चिल्लाहट परिश्रम कराने वालों के कारण होती है उसको भी मैंने सुना है, और उनकी पीड़ा पर मैंने चित्त लगाया, इसलिये अब मैं उतर आया हूँ कि उन्हें मिस्नरियों के वश में छड़ाऊं, और उस देश से निकलकर एक अच्छे और बड़े देश में, जिसमें दूध और मधु की धाराएँ बहती है....इसलिये आ, मैं तुझे फिरीन के पास भेजता हूँ कि तू मेरी इज़राइली प्रजा को मिस्र से निकाल ले आए।”PPHin 250.2

    आज्ञा सुनकर आश्चर्यवकित और भयभीत, मूसा पीछे हटकर बोला, “मैं कोन हूँ जो फिरौन के पास जाऊं और इज़राइलियों को मिस्र से निकाल ले आऊं?” उसे उत्तर मिला, “निश्चय में तेरे संग रहूँगा, और इस बात का कि तेरा भेजने वाला मैं हूँ तेरे लिये यह चिन्ह होगा कि जब तू उन लोगों को मिस्र से निकाल चुके, तब तुम इसी पहाड़ पर उपासना करोगे।”PPHin 251.1

    मूसा उन कठिनाईयों के बारे में सोचने लगा जिसका उसे सामना करना था, अपने लोगों की अज्ञानता, दृष्टिहीनता और अवश्विस और वे जिनमें परमेश्वर सम्बन्धी ज्ञान का अभाव था। मूसा ने परमेश्वर से कहा, “जब में इज़राइलियों के पास जाकर उनसे कहूँ, ‘तुम्हारे पितरों के परमेश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, तब यदि वे मुझसे पूछें, “उसका नाम क्‍या है?” तब में उनको क्‍या बताऊं” इस प्रश्न का उत्तर मिला- “मैं जो हूँ सो हूँ।” “तू इज़राइलियों से यह कहना, जिसका नाम मैं हूँ है”, उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।”PPHin 251.2

    मूसा को आज्ञा दी गई कि वह इज़राइली पुरनियों को इकट्ठा करे, जो उनमें सबसे शिष्ट और धर्मी थे, जो अपने दासत्व के कारण बहुत समय दुखी रहे, और उन्हें परमेश्वर कीओर से छुटकारे की प्रतिज्ञा के साथ यह सन्देश दे, तत्पश्चात उसे पुरनियों सहित राजा के सामने जा कर यह कहना था- ‘इब्रियों के परमेश्वर, यहोवा से हम लोगों की भेंट हुई है, इसलिये अब हम को बीहड़ में तीन दिन की यात्रा की अनुमति दे ताकि हम अपने परमेश्वर यहोवा को बलिदान चढ़ाएँ।”PPHin 251.3

    मूसा को पहले से ही ज्ञात कराया गया था कि फिरौन इज़राइल को जाने देने की याचना को स्वीकार नहीं करेगा। लेकिन, फिर भी परमेश्वर के दास का साहस कम नहीं होना था, क्योंकि परमेश्वर इस बात को अपने लोगों और मिस्रियों के सम्मुख अपने सामर्थ्य को प्रकट करने का अवसर बनाना चाहता था। “मैं हाथ बढ़ाकर उन सब आश्चर्यकर्मों से, जो मिस्र के बीच करूंगा, उस देश को मारूंगा, और उसके पश्चात वह तुम को जाने देगा।”PPHin 251.4

    यात्रा के लिये सामग्री-सम्बन्धितनिर्देश भी दिया गया। पमरेश्वर ने कहा, “जब तुम निकलोगे तो खाली हाथ न निकलोगे। वरन्‌ तुम्हारी एक-एक स्त्री अपनी-अपनी पड़ोसन और उनके घर में रहने वाली से सोने चांदी के गहने, और वस्त्र मांग लेगी, और तुम उन्हें अपने बेटों और बेटियों को पहिनाना।” मित्री लोग इज़राइलियों से बेगार करवाकर धनवान हुए थे, और अब जब इज़राइली अपने नये घर की ओर यात्रा शुरू करने वाले थे, यह उनका अधिकार था कि वे अपने वर्षों के परिश्रम के प्रतिफल का दावा करें। उन्हें मूल्यवान वस्तुएँ माँगनी थी, जिन्हें आसानी से ले जाया सके और परमेश्वर मिस्रियों की दृष्टि में उन पर कृपा-दृष्टि करेगा। उनकी मुक्ति के लिये किये गए सामर्थी आश्चर्यकर्म अत्याचारियों में भय उत्पन्न करता ताकि दासों की माँग पूरी हो सके।PPHin 252.1

    मूसा अपने सामने दुर्गम प्रतीत होने वाली कठिनाईयाँ देख रहा था। वह अपने लोगों को क्या प्रमाण दे सकता था। परमेश्वर ने वास्तव में उसे भेजा था? उसने कहा, “वे मेरा विश्वास नहीं करेंगे और न मेरी सुनेंगे, वरन्‌ कहेंगे, “यहोवा ने तुझको दर्शन नहीं दिया।” अब उसे वह प्रमाण दिया गया जो उसकी इन्द्रियों को भावता था। उससे कहा गया कि वह अपनी लाठी को भूमि पर फेंके। जैसे ही उसने ऐसा किया, “वह सर्प बन गई, और मूसा उसके सामने से भागा।” फिर उसे सर्प को पूँछ से पकड़ लेने की आज्ञा दी गई और उसके हाथ में वह फिर लाठी बन गया। फिर उसे उसका हाथ छाती पररखकर ढॉपनेको कहा गयाऔर, फिर जब उसनेहाथ बाहरनिकाला तब क्‍या देखा कि उसका हाथ कोढ़ के कारण हिम के समान श्वेत हो गया था।” फिर उसे दोबारा अपना हाथ छाती पर रखकर ढॉपने को कहा गया और वापस निकाले जाने पर उसने उसे अपने दूसरे हाथ के समान पाया। इन चिन्हों से परमेश्वर ने मूसा को आश्वस्त किया कि उसके अपने लोगों व फिरौन को यह विश्वास हो जाएगा कि मिस्र के राजा से अधिक शक्तिशाली प्रकट रूप से उनके बीच में था।PPHin 252.2

    लेकिन परमेश्वर का दास अभी भी उस अद्भुत और चमत्कारिक कार्य के जो उसके सामने था, विचार से डरा हुआ था। दुःख और डर के प्रभाव में उसने हकलाने का बहाना बनाया, “हे मेरे प्रभु, मैं बोलने में निपुण नहीं, मैं तो धीरे-धीरे बोलता हूँ और उत्तम शब्दों का प्रयोग नहीं करता।” वह मिम्रियों से बहुत दिनों पहले दूर हो गया था और अब उसे उनकी भाषा का ना ही सही उपयोग करना आता था और ना ही उसका स्पष्ट ज्ञान जो कि तब था जब वह उनके बीच था।PPHin 252.3

    परमेश्वर ने उससे कहा, “मनुष्य का मुहँ किसने बनाया है? और मनुष्य को गूगा या बहरा या देखने वाला या अन्धा, मुझ यहोवा को छोड़ कोन बनाता है? “साथ ही उसने ईश्वरीय सहायता का एक और आश्वासन दिया? “अब जा, में तेरे मुख के संग होकर जो तुझे कहना होगा वह तुझे सिखलाता जाऊँंगा।” लेकिन फिर भी मूसा ने आग्रह किया कि उसे अधिक योग्य व्यक्ति को चुना जाए। पहले ये बहाने संकोच और विनग्रता से उत्पन्न हुए थे, लेकिन परमेश्वर द्वारा दी गई प्रतिज्ञा के बाद कि वह सब कठिनाईयों कोदूर कर देगा और उसे निर्णायक सफलता देगा, उसका और संकोच करना और अपनी निर्बलता पर कूड़कड़ाना परमेश्वर के प्रति अविश्वास प्रकट करता। इसका अभिप्राय एक डर से था कि जिस महान कार्य के लिये उसे परमेश्वर ने बुलाया था, उसी के लिये वह मूसा को सुयोग्य नहीं बना सका या उसने मनुष्य के चुनाव में उससे गलती हुई थी। PPHin 253.1

    मूसा का ध्यान उसके बड़े भाई हारून की ओर किया गया, जो मिस्रियों की भाषा का प्रतिदिन प्रयोग करके, उसे भली-भांति बोल सकता था। उससे कहा गया कि हारून उससे भेंट करने आ रहा था। परमेश्वर द्वारा बोला गया अगला वचन एक अप्रतिबन्ध आज्ञा था, “तू उसे ये बातें सिखाना, और मैं उसके मुख के संग और तेरे मुख के संग होकर जो कुछ तुम्हें करना होगा वह तुम को सिखलाता जाऊंगा। वह तेरी ओर से बातें किया करेगा, वह तेरे लिये मुह और तू उसके लिये परमेश्वर ठहरेगा और तू इस लाठी को हाथ में लिए जा, और इसी से इन चिन्हों को दिखाना।” मूसा, इसक आगे प्रतिरोध न कर सका, क्योंकि बहानों का सम्पूर्ण आधार ही हटा दिया गया।मूसा को दी हुईं ईश्वरीय आज्ञा ने उसे स्व-अविश्वासी, हकलाने वाला और कायर पाया। इज़राइल के परमेश्वर का प्रवक्ता बनने में अयोग्य होने की भावना से वह विह्लल हो गया। लेकिन एक बार कार्य को स्वीकार करने के बाद परमेश्वर में पूर्ण विश्वास के साथ, वह सहृदय उस कार्य को करने में जुट गया। उसके उद्देश्य की महानता ने उसके विवेक की उत्तम क्षमताओं का अभ्यास करवाया। परमेश्वर ने उसकी तत्पर आज्ञाकारिता को आशीष दी और वह मनुष्यों को अब तक दिये गए कार्यों में सवश्रेष्ठ कार्य को करने के लिये शब्दचतुर, आशावादी, आत्म-सम्पन्न व सुयोग्य बन गया। यह इस बात का उदाहरण है कि परमेश्वर उनके चरित्र को सुदृढ़ करने के लिये क्या करता है जो उसमें पूरी तरह से विश्वास करते है और उसकी आज्ञाओं का पूरी तरह पालन करता है।PPHin 253.2

    जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा दिये गए दायित्व को स्वीकार कर लेता है और उसे सही तरह से निभाने के लिये पूरे मन से स्वयं को योग्य बनाने का प्रयत्न करता है, उसे शक्ति और कायक्षमता प्राप्त होती है। उसका पद कितना ही निम्न और उसकी दक्षता कितनी हो सीमित हो, वह मनुष्य वास्तविक महानता को प्राप्त करेगा, जो ईश्वरीय सामर्थ्य में विश्वास रखते हुए अपने कार्य को सम्पूर्ण निष्ठा के साथ करता है। यदि मूसा ने अपनी सामर्थ्य और बुद्धिमानी पर निर्भर किया होता और इस महान प्रभार को उत्सुकतापूर्वक ग्रहण कर लिया होता तो उसने ऐसे कार्य के लिये अपनी सारी अयोग्ता का प्रदर्शन कर दिया होता। मनुष्य का कमी का आभास इस बात का प्रमाण हे कि वह उसे दिये गए कार्य के महत्व को पहचानता है और यह कि वह परमेश्वर कोअपना परामर्शदता और अपनी ताकत बनाएगा।PPHin 254.1

    अपने सुसर यित्रो के पास लौटकर, मूसा ने मिस्र में अपने भाईयों से भेंट करने जाने की इच्छा व्यक्त की। यित्रो ने कहा, “कुशल से जा’ और उसे जाने की अनुमति दी। अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मूसा यात्रा पर निकल पड़ा। उसने अपने विशेष कार्य का उद्देश्य बताने का दुःस्साहस नहीं किया नही तो उसे पत्नी और बच्चों की साथ ले जाने की अनुमति नहीं मिलती। लेकिन मिस्र पहुँचने से पहले, उसने स्वयं उनकी सुरक्षा के लिये उन्हें मिद्यान में उनके घर वापस भेजना उचित समझा।PPHin 254.2

    फिरोन और मिम्नियों का एक अप्रकट भय, जिनका कोध चालीस वर्ष पूर्व उसके प्रति भड़क उठा था, मूसा को मिस्र देश को लौटने में विमुख कर रहा था। लेकिन जब वह परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने निकल पड़ा, तब परमेश्वर ने उस पर प्रकट किया कि उसके शत्रु मर चुके थे।PPHin 254.3

    मिद्यान से मिस्र के मार्ग पर, मूसा को परमेश्वर के कोध की एक आश्चर्यजनक व भयानक चेतावनी मिली। एक स्वर्गदूत उसको तत्काल मार देने वाले भयानक रूप में प्रकट हुआ। उसने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया, लेकिन मूसा को स्मरण हुआ कि उसने परमेश्वर की एक आज्ञा को नहीं माना था; अपनी पत्नी के अनुनय के आगे समर्पण कर, उसने अपने सबसे छोटे पुत्र के खतने की विधि का पालन नहीं किया था। उसने उसप्रतिबंधका अनुपालन नहीं किया थाजिससे उसका पुत्रपरमेश्वर की इज़राइल के साथ बाँधी वाचा के आशीर्वाद का हकदार हो सकता था। चुने हुए अगुवा की ओर से ऐसी अवहेलना, लोगों पर, निश्चित रूप से, पवित्र आज्ञाओं का दबाव कम कर देती। इस डर से कि उसके पति को मार दिया जाएगा, सिप्पोरा ने खतने की विधि स्वयं सम्पन्न की, और फिर स्वर्गदूत ने मूसा को अपनी यात्रा पर बढ़ने की अनुमति दी। फिरौन से सम्बन्धित विशेष कार्य में, मूसा को एक संकटपूर्ण पद पर आसीन होना था। उसका जीवन केवल पवित्र स्वर्गदूतों कीसुरक्षा के माध्यम से संरक्षित रखा जा सकता था। लेकिन यदि वह एक ज्ञात कर्तव्य की अवेहलना करते हुए जीवित रहता तो वह सुरक्षित न होता, क्‍योंकि तब परमेश्वर के स्वर्गदूत उसकी रक्षा न कर पाते।PPHin 254.4

    मसीह के आगमन के ठीक पहले संकटकाल में, धर्मी जनों को स्वर्गदूतों को सहायता से संरक्षित रखा जाएगा, लेकिन परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने वालों के लिये कोई सुरक्षा न होगी। फिर स्वर्गदूत पवित्र आज्ञाओं का तिरस्कार करने वालों की रक्षा नहीं कर सकते।PPHin 255.1

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