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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 2—सृष्टि

    यह अध्याय उत्पत्ति 1 और 2 पर आधारित है।

    भजन संहिता 38:6,9 में लिखा है, “यहोवा ने आदेश दिया और सृष्टि तुरन्त अस्तित्व में आई। परमेश्वर के श्वास ने धरती पर हर वस्तु रची । जब उस ने आज्ञा दी, तब वास्तव में वैसा ही हो गया। भजन संहिता 104:5 में लिखा है, “तूने पृथ्वी को उसकी नींव पर स्थिर किया है, ताकि वह कभी नहीं डगमगाए ।”PPHin 31.1

    जब सृष्टिकर्ता के हाथों से पृथ्वी की रचना उभर कर आई वह अत्यन्त सुन्दर थी। उसकी सतह को पर्वतों, पहाड़ियों और वादियों ने विधिवता प्रदान की और उसके बीच यहां वहां वैभवपूर्ण नदियाँ और सुन्दर तालाब थे, लेकिन वे वर्तमान के खतरनाक खड़ी ढाल और डरावनी खाईयों से भरपूर विषम और उबड़-खाबड़ पर्वत और पहाड़ियों की तरह नहीं थे। धरती के पथरीले ढांचे के विषम छोर उपजाऊ मिट्टी के नीचे दबे हुए थे, जो चारों तरह हरियाली की प्रचुर उपज उत्पन्न करती थी। वहां वीभत्स दलदल और बंजर रेगिस्तान नहीं थे। प्रत्येक मोड़ पर सुन्दर झाड़ियों और कोमल पुष्प आखों का स्वागत करते थे। शिखर, वर्तमान युग के पेड़ो से अधिक ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से विभूषित थे। हवा, अशुद्ध भाप से अदूषित, साफ और सेहतमन्द थी। सम्पूर्ण परिदृश्य की सुन्दरता सबसे महान महल के सुसज्जित मैदानों को मात देती थी। स्वर्गदूतों की टोली इसदृश्य को प्रसन्‍नचित होकर निहारती थी और परमेश्वर के निराले कृत्यों में आनंदित होतीथी ।जब जीव-जन्तु और पेड़-पौधों से परिपूर्ण धरती अस्तित्व में लाई गई, उसके बाद आदम को, जो सृष्टिकर्ता की श्रेष्ठतम रचना था, जिसके लिये सुन्दर पृथ्वी को रचा गया था, कार्यवाही के मंच पर उतारा गया। उसको उससब पर अधिराज्य दिया गया जिसे उसकी आँखें देख सकती थी, क्‍योंकि “परमेश्वर ने कहा, आओ हम मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाए, और उन्हें समस्त पृथ्वी का अधिराज्य सौंपे.......तब परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार उत्पन्न किया......नर और नारी करके उसने मनुष्यों की सृष्टि की।” यह मानव जाति का उदगम स्पष्ट रूप से बताया है और ईश्वरीय लेख को इतने स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि त्रुटिपूर्ण निष्कर्षा का कोई अवसर नहीं। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया। यहां कोई रहस्य नहीं, इस धारणा का कोई आधार नहीं कि मनुष्य का विकास, धीमी गति से, जीव-जन्तु और पेड़-पौधों के जगत में से हुआ। ऐसी शिक्षा सृष्टिकर्ता के श्रेष्ठ कार्य को मनुष्य की संकीर्ण, दुनियावी धारणा के स्तर पर उतार देती है। मनुष्य परमेश्वर को सृष्टि के प्रभुत्व से वर्जित रखने को इतना अभिलाषी है कि वह मनुष्य को निम्नीकृत करता है और उसके मूल के गौरव से वंचित करता है। उसने तारागण को ऊंचाईयों पर स्थापित किया और सूक्ष्म निपुणता से धरती के फूलों को रंगो से भरा, जिसने अपनी शक्ति के चमत्कार से धरती और आकाश को भर दिया। और जब वह सुन्दर धरती के स्वामी के रूप में एक को स्थापित करने और अपने महिमावान कार्य को मुकूट पहनाने केचरण पर पहुँचा, तो वह उस प्राणी की सृष्टि करने में पीछे नहीं हटा, जो उसके हाथ के सम्मान योग्य था, जिसने उसे जीवन दिया था। हमारी जाति की वंशावली, प्रेरणा अनुसार, महान सृष्टिकर्ता से प्रारम्भ होती है ना कि विकासशील कीटाणुओ, धोंधो या चौपाया जानवरों की श्रृंखला से। हालांकि वह मिट्टी से बना था, पर आदम “परमेश्वर का पुत्र था।”PPHin 31.2

    उसे निम्न श्रेणी के प्राणियों के ऊपर परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप मे रखा गया था। ये परमेश्वर के प्रभुत्व को ना ही समझ सकते थे और ना ही स्वीकार कर सकते थे, लेकिन फिर भी इन्हें मनुष्य की सेवा करने और उससे प्रेम करने योग्य बनाया गया था। भजन लिखने वाला भजन संहिता 8:6-8 में लिखता है “तूने उसे अपने हाथों के कार्यों पर प्रभुता दी है, “तूने उसके पांव तले सब कुछ कर दिया है......आकाश के पक्षी और समुद्र की मछलियां और जितने जीव-जन्तु समुद्रों में चलते-फिरते हैं।PPHin 32.1

    मनुष्य को परमेश्वर की छवि धारण करनी थी, सादृश्य में भी और चरित्र में भी यीशु पिता के “तत्व की छाप” है, परन्तु मनुष्य को परमेश्वर के स्वरूप में बनाया गया था। उसके स्वभाव और परमेश्वर की इच्छा में सामंजस्य था। उसका मानस स्वर्गीय विषयों को समझने के योग्य था। उसका मनोवेग पवित्र था, उसकी प्रवृति और अभिलाषाएं विवेक के नियंत्रण में थे। वह परमेश्वर की छवि धारण करने में और उसकी इच्छा की पूर्ण आज्ञाकारिता में खुश था।PPHin 32.2

    परमेश्वर द्वारा सृजन होने पर मनुष्य उत्कृष्ट डील-डौल और उत्तम समरूपता का स्वामी था। उसकी मुखाकति में सेहत का सुर्ख रंग था। और वह सजीवता और आनन्द के प्रकाश से कांतिमान थी। आदम का कद आज के मनुष्यों से बहुत अधिक ऊँचा था। हवा उससे डील-डौल में कुछ कम थी, लेकिन उसका रूप वैभवपूर्ण और सुन्दरता से भरपूर था। यह पापरहित दंपति कोई कृत्रिम वस्त्र नहीं पहने हुए थे, उन्हें स्वर्गदूतों समान प्रकाश और महिमा से आवृत किया गया था। जब तक वे परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करते रहे, यह प्रकाश का आवरण उन्हे ढांके रखा ।PPHin 32.3

    आदम की सृष्टि के पश्चात सभी जीवित प्राणियों को नामकरण के लिये उसके समक्ष लाया गया । परमेश्वर ने देखा कि सबको एक साथी दिया गया था, लेकिन उनमें आदम का सहायक होने योग्य कोई नहीं था। परमेश्वर द्वारा धरती पर समस्त जीवधारियों में एक भी मनुष्य के तुल्य न था। और परमेश्वर ने कहा, “आदम का अकेला रहना उचित नहीं, मैं उसके लिए सहायक बनाऊंगा जो उससे मेल खाएं” मनुष्य को एकान्त में वास करने के लिये नहीं बनाया गया था [उसे एक सामाजिक प्राणी होना था। संगति के अभाव में अदन की वाटिका के मनोहर दृश्य और आनंदमय नियोजन संपूर्ण प्रसन्‍नता नहीं दे पाते। स्वर्गदूतों के साथ संगति भी उसकी मैत्री और दया की अभिलाषा को सन्तुष्ट नहीं कर पाती । कोई भी इस स्वभाव का नहीं था कि प्रेम कर सके था प्रेम पा सके ।PPHin 33.1

    परमेश्वर ने स्वयं आदम को साथी प्रदान किया। उसने आदम के लिये सहायक प्रदान किया जो उससे मेल खाता था, जो उसका साथी बनने योग्य था और जो प्रेम और दया में एक हो सकता था। हवा की सृष्टि आदम के शरीर से एक पसली निकालकर की गई। इसका यह तात्पर्य था कि ना ही वह आदम पर सिर की तरह नियन्त्रण रखे और ना ही आदम के पैरों तले रौंदी जाए, लेकिन पार्श्व में बराबरी के स्तर पर रहे और उसके प्रेम और संरक्षण में रहे। आदम का हिस्सा, उसकी हड्डी और मांस का मांस वह उसी का दूसरा भाग था और इससे इस तथ्य को दिखाया गया कि इस सम्बन्ध में घनिष्ठ सामजंस्य और स्नहेशील लगाव होना जरूरी है। इफिसियों 5:29 में लिखा है, “कोई अपनी देह से तो कभी धृणा नहीं करता, बल्कि वह उसे पालता पोसता है और उसका ध्यान रखता है” “इस लिए पुरूष अपने माता-पिता को छोड़कर अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनो एक तन होंगे। परमेश्वर ने प्रथम विवाह का उत्सव मनाया। इसलिये इस व्यवस्था का उत्पन्न कर्ता सृष्टि का सृष्टिकर्ता है। इब्रानियों 13:4 में लिखा है, “विवाह सम्मानीय है” ये मनुष्य को परमेश्वर द्वारा दिये गए पहले उपहारों में से एक है और यह उन दो व्यवस्थाओं में से एक है जो आदम,पतन के पश्चात्‌, अपने साथ अदन की वाटिका के द्वार के बाहर लाया था। जब इस सम्बन्ध में ईश्वरीय सिद्धांतो को मान्यता दी जाती है और उनका अनुसरण किया जाता है, तो विवाह एक वरदान साबित होता है। वह कुल की पवित्रता और खुशहाली की रक्षा करता है, मनुष्य के सामाजिक जरूरतों का पूरक होता है और उसके भौतिक, बौद्धिक और नैतिक आचरण को उन्नत करता है। PPHin 33.2

    और यहोवा परमेश्वर ने पूर्व की ओर अदन में एक वाटिका लगाईं, और वहां आदम को जिसे उसने रचा था,रख दिया। सब कुछ जो परमेश्वर ने बनाया था, सुन्दरता की पराकाष्ठा थी और कोई ऐसी कमी नहीं थी जिसकी आपूर्ति इस पवित्र दंपति की प्रसन्‍नता में योगदान दे सकती थी फिर भी परमेश्वर ने इन्हें अपने प्रेम का एक और प्रतीक दिया, उसने उनके लिए एक और वाटिका तैयार की जिसे वह घर कह सके । इस वाटिका में हर तरह के पेड़ थे, और उन में से कई सुगन्धित स्वादिष्ट फलों से लदे थे। यहां मनोहर दाखलताएँ थी जो सीधी तो खड़ी थी, पर फिर भी देखने वे मनभावनी थी और उनकी शाखांए विभिन्‍न गहरे रंगो के आकर्षक फलों के भार से झुकी हुई थी ।आदम का काम था कि वह दाखलताओं से निकुज तैयार करे और इस तरह फलों और वनस्पति से लदे जीवित पेड़ों से अपना घर बनाए। वहां प्रचुर मात्रा में प्रत्येक रंग के सुगंधित फूल थे। वाटिका के बीच में जीवन का वृक्ष था जिसकी अप्रतिम सुन्दरता अन्य पेड़ों से ज्यादा थी। सुन्दर सृष्टि में कोई पाप का दाग था, और ना ही मृत्यु की छाया नहीं थी जो उसे क्षति पहुँचाए। “भोर के तारे एक संग आनंद से गाते थे और परमेश्वर के सब पुत्र जयजयकार करते थे।” अय्यूब 38:7PPHin 34.1

    महान यहोवा ने धरती की नीवों को रखा था, उसने पूरे जगत को सुन्दरता के आवरण से सजाया था, और मनुष्य के उपयोगी वस्तुओं से परिपूर्ण किया था। उसने जल और थल के सभी अजूबों का सृजन किया था। छह दिनों में सृष्टि का महान कार्य सम्पन्न हुआ था ।और उसने अपने किये हुए सारे काम से सातवें दिन विश्राम किया और परमेश्वर ने सातवें दिन को आशीष दी और पवित्र ठहराया, क्योंकि उसमें उसने अपनी सृष्टि की रचना के सारे काम से विश्राम लिया। परमेश्वर को अपने हाथों की रचना को देखकर संतोष हुआ। सब कुछ उत्तम था,पवित्र रचयिता के सम्मान योग्य, और उसने अपनी प्रतिभा के प्रत्यक्षीकरण और अपनी बुद्धिमता और अच्छाई के परिणाम से प्रसन्‍न होकर विश्राम किया।PPHin 34.2

    सातवें दिन विश्राम करने के पश्चात, परमेश्वर ने उसे पवित्र ठहराया और मनुष्य के लिए विश्राम दिन के तौर पर अलग किया। सृष्टिकर्ता के उदाहरण का अनुसरण करके मनुष्य को इस पवित्र दिन विश्राम करना था ताकि स्वर्ग और धरती को देखकर वह परमेश्वर की सृष्टि के महान कार्य का चिंतन कर सके, और परमेश्वर की बुद्धिमता और अच्छाई के साक्ष्य को देखकर उसका हृदय सृष्टिकर्ता के प्रति प्रेम, और भक्ति से भर सके ।PPHin 34.3

    अदन में, सातवें दिन को आशिषित करते हुए उसने सृष्टि के अपने कार्य का स्मारक बनाया। सबत को आदम के सुपुर्द किया गया और आदम सम्पूर्ण मानव परिवार का पिता और प्रतिनिधि था। पृथ्वी के वासियों द्वारा सबत का पालन उनकी आभारपूर्ण स्वीकृति का प्रदर्शन था कि परमेश्वर उनका सृष्टिकर्ता और यथोचित अधिपति था, और यह कि वे उसके हाथों की रचना और उसके राज्य की प्रजा थे। इस तरह यह पूरी व्यवस्था स्मणीय थी और समस्त मानव जाति के लिए दी गईं थी। इसमें किसी के लिये कुछ भी धुंधला या वर्जित प्रयोग का नहीं था।PPHin 35.1

    परमेश्वर ने देखा कि मनुष्य के लिये परलोक में भी सबत जरूरी था। उसके लिये सात दिनों में से एक दिन के लिये अपनी रूचि और अपने उद्यम को अलग रखना होगा, ताकि वह परमेश्वर के कामों पर पूरी तरह विचार कर सके और उसकी शक्ति और अच्छाई पर मनन कर सके। उसे परमेश्वर को स्पष्ट रूप ये याद दिलाने के लिये और उसमे आभार का भाव उत्पन्न करने के लिये सबत की जरूरत थी, क्‍योंकि वह सब जो उसके पास था और जिसका वह आनंद उठाता था सृष्टिकर्ता के उदार हाथों से आया था।PPHin 35.2

    यह परमेश्वर की योजना है कि सबत मनुष्य का मन उसकी रचनाओं के अवलोकन की तरफ मोड़े। प्रकृति मनुष्य की इन्द्रियों से बात करती है और यह घोषणा करती है कि एक जीवित परमेश्वर सृष्टिकर्ता और उच्चतम अधिपति है। भजन संहित 19:1,2 में लिखा है,“आकाश ईश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है, और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है, दिन में दिन बातें करता है और रात का रात ज्ञान सिखाती है।” सुन्दरता जो धरती को आवृत करती है, परमेश्वर के प्रेम का प्रतीक है। हम इसे अमर पर्वतों में, ऊंचे-ऊंचे वृक्षों में, खिलती हुई कलियों में और कोमल फूलों में देख सकते हैं। ये सब हमें परमेश्वर के बारे में बताते है। हमेशा इनके बनाने वाले की तरफ संकेत करते हुए, सबत, मनुष्य को प्रकृति की महान पुस्तक खोलने की आज्ञा देता है और उसमें सृष्टिकर्ता के प्रेम, विवेक और सामर्थ्य को ढूंढने को कहता है।PPHin 35.3

    हमारे प्रथम अभिभावक रचना के समय पवित्र और निर्दोष थे, लेकिन वह दुराचार की संभावना से सुरक्षित नहीं थे। परमेश्वर ने उन्हें स्वतन्त्र नैतिक कर्मक बनाया था, जो परमेश्वर की अपेक्षाओं की न्यायबद्धता, उसके चरित्र की उदारता और विवेक की सराहना करने में समर्थ हो। और उन्हें आज्ञा मानने या ना मानने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। परमेश्वर और पवित्र स्वर्गवूतों के साथ आनंद मनाना उनके भाग्य में था, लेकिन अनन्तकाल तक सुरक्षित होने से पूर्व, उनकी निष्ठा का परीक्षण हाना था। मनुष्य के अस्तित्व के आरम्भ से ही आत्म-भोगी होने की अभिलाषा पर रोक लगाई गई थी। शैतान के पतन का कारण भी यही घातक भावावेश था। ज्ञान का वृक्षजो वाटिका के बीच जीवन के वृक्ष के पास खड़ा था, आज्ञाकारिता, विश्वास और हमारे अभिभावकों के प्रेम का परीक्षण था। उन्हें इस पेड़ को छोड़कर अन्य सभी पेड़ों के फल खाने की छट थीं। शैतान के प्रलोभनों से भी उनका सामना कराना था, और यदि वे परीक्षा में खरे खतरे तो उन्हें शैतान की शक्ति से ऊपर कर दिया जाता और वे परमेश्वर की अनंत कृपादृष्टि का आनंद उठाते। व्यवस्था के अधीन होना, मनुष्य के अस्तित्व का अर्परहार्य प्रतिबन्ध था जो परमेश्वर ने लगाया था। वह ईश्वरीय सत्ता की प्रजा था और व्यवस्था के अभाव में कोई सत्ता नहीं होती। परमेश्वर मनुष्य को व्यवस्था का उल्लंघन करने की योग्यता से वंचित रख सकता था, वह आदम के हाथ को निषिद्ध फल को छूने से रोक सकता था, लेकिन ऐसा करने से मनुष्य एक स्वतन्त्र नैतिक कर्क ना होकर स्वचालित मशीन के समान होता। चयन की स्वतन्त्रता के अभाव में, उसकी आज्ञाकारिता स्वैछिक ना होकर कृत्रिम होती। इन परिस्थितियों में चरित्र का विकास असम्भव थ। यह तरीका अन्य ग्रहों के निवासियों के साथ व्यवहार करने की परमेश्वर की योजना के विपरीत होता। यह बुद्धिजीवी मानव के लिये अनुचित होता और शैतान द्वारा लगाए गए आरोप को प्रमाणित कर देता कि परमेश्वर का शासन एकपक्षीय है ।PPHin 36.1

    परमेश्वर ने मनुष्य को सिद्ध बनाया था। उसने मनुष्य को चरित्र की कुलीन विशेषताएं दी थी, जिनका बुराई की तरफ झुकाव नहीं था। उसने उसे बौद्धिक योग्यता से युक्त किया था, और उसके समक्ष प्रभावशाली सम्भव प्रोत्साहन रखे थे जिससे वह अपनी निष्ठा में खरा उतरे। परिपूर्ण और अनंत आज्ञाकारिता अनादि आनंद का प्रतिबंध थी। इसी शर्त पर वह जीवन के वृक्ष तक पहुँच सकता था।PPHin 36.2

    जैसे-जैसे उनके बच्चे धरती पर आकर निवास करते, हमारे प्रथम अभिभावकों का घर दूसरे परिवारों के लिये आदर्श होना था। वह घर, परमेश्वर के हाथों से सुसज्जित किया हुआ, अति सुन्दर महल नहीं था। मनुष्य, अपने घमण्ड में, बहुमूल्य व भव्य विशाल भवनों से प्रसन्‍न होते है और स्वयं की हस्तकृतियों पर गर्व करते है।PPHin 37.1

    लेकिन आदम को परमेश्वर ने वाटिका में रखा ।वही उसका घर था। नीला आकाश उसका गुबंद था और धरती, अपने कोमल फूलों और हरी घास के कालीन सहित, उसकी सतह थी, सुन्दर वृक्षों की पत्तेदार शाखाएं उसका मण्डप । उसकी दीवारें अत्याधिक सुन्दर सजावट से सजी हुई थी, वह महान दक्ष कलाकार की हस्तकला से सुसज्जित थी। पवित्र दंपति के परिवेश में यह सबक सीखने को था कि वास्तविक प्रसन्नता, गर्व और भोग-विलास से नहीं, वरन्‌ परमेश्वर के साथ, उसकी सृष्टि के माध्यम से, संपर्क बनाए रखने से होती है। अगर मानव कृत्रिम पर कम ध्यान दे, और अधिक सहजता को बढ़ाए तो वह अपनी सृष्टि में परमेश्वर की योजना को जान पाएगी। घमण्ड और महत्वकांक्षा कमी सन्तुष्ट नहीं होते, लेकिन जो वास्तव में बुद्धिमान है वे उन उपभोग के स्रोतों में पर्याप्त और मन को हल्का करने वाले सुख को प्राप्त करेंगे जो परमेश्वर ने सबकी पहुँच में रखे हैं।PPHin 37.2

    अदन वासियों को वाटिका की देखभाल का कार्य सौंपा गया था। उनका व्यवसाय थकाने वाला नहीं बल्कि सुखद और शक्तिवर्धक था। परमेश्वर ने श्रम को मनुष्य के लिये आशीष के रूप में बनाया था, जिससे वह मन को बहला सके, शरीर को स्वस्थ कर सके और अपनी योग्यता का विकास कर सके। मानसिक और शारीरिक क्रिया-कलाप में आदम ने अपने पवित्र अस्तित्व के उच्चतम आनन्द को प्राप्त किया। और जब अवज्ञा के परिणाम स्वरूप, उसे अपने सुन्दरनिवास स्थान से निकाला गया, और बाध्य किया कि वह कठोर धरती पर प्रतिदिन के भोजन के लिये संघर्ष करें तो वही श्रम, जो वाटिका के सुखद व्यवसाय से बहुत भिन्‍न था, प्रलोभन के प्रति बचाव और प्रसन्‍नता का स्रोत बना। जो काम को श्राप समझते है, क्योंकि वह थकाने वाला और दुखदायी होता है, वे गलती करते है। धनवान श्रमिकों को तुच्छ समझते है, लेकिन यह मनुष्य की सृष्टि में परमेश्वर की योजना से पूर्णतया भिन्‍न है। तेजस्वी आदम की दी गई धरोहर की तुलना में सबसे धनवान व्यक्ति की सम्पत्ति कुछ भी नहीं है। फिर भी आदम को आलस्य से दूर रहना था। सृष्टिकर्ता ने आदम को कार्य करने को दिया, क्योंकि वह समझता है कि मनुष्य की प्रसन्‍नता किस में है। उद्यम करने वाले नर और नारियों को ही जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त होता है। स्वर्गदूत भी परिश्रमी कर्मकर है, वे मनुष्य के बच्चों के लिये परमेश्वर के प्रतिनिधि है। सृष्टिकर्ता ने आलस्य की विकासहीन प्रथा के लिये कोई स्थान नहीं बनाया।PPHin 37.3

    परमेश्वर के प्रति सच्चे होते हुए, आदम और हवा को धरती पर राज्य करना था। उन्हें हर जीवधारी पर असीमित नियंत्रण दिया गया था। सिंह और भेड़ शान्ति से उनके आस-पास खेलते थे या उनके चरणों में बैठ जाते थे। प्रसन्‍न पक्षी निडरता सेउनके पास उड़ते रहते और जब पक्षी अपनी चहचहाट से सृष्टिकर्ता का गुणगान करते, तो आदम और हवा भी उनके साथ पिता और पुत्र को धन्यवाद करते ।PPHin 38.1

    वह पवित्र दंपति केवल बच्चों समान नहीं थे जो परमेश्वर पिता की देखरेख में थे, बल्कि वे शिष्य भी थे, जो सर्वज्ञानी सृष्टिकर्ता से निर्देश प्राप्त कर रहे थे। स्वर्गदूत उनसे भेंट करने आने थे और उन्हें सृष्टिकर्ता से संपर्क करने की अनुमति प्राप्त थी। वे जीवन के वृक्ष में प्रदान की गई शक्ति से भरपूर थे और उनकी बौद्धिक योग्यता स्वर्गदूतों से कुछ ही कम थी। प्रत्यक्ष सृष्टि के रहस्य- “सर्वज्ञानी की अद्भुत कृतियों’ अय्यूब 37:46 में मनुष्य को निर्देश और प्रसन्नता का कभी ना खत्म होने वाला स्रोत मिला। प्रकृति के नियम और कार्य विधियाँ, जिसने छः: हजार वर्षों से मनुष्य को अध्ययनरत रखा है, मनुष्य को अनन्त परमेश्वर द्वारा स्पष्टता से दिखाई गई। वे पेड़ पौधो और पत्तो से बात करते थे और हर एक से उसके जीवन के रहस्य की जानकारी लेते थे ।विशालकाय समुद्री जन्तु लिवियायन से लेकर सूर्य की किरण में उड़ते कण समान कीड़ो से आदम परिचित था। उसी ने हर एक को नाम दिया था और वह उनके स्वभाव और आदतों को जानता था। स्वर्ग में परमेश्वर का वैभव, यथाकम परिकमण करते असंख्य ग्रह, वादलों का संतुलन, प्रकाश और ध्वनि के रहस्य, दिन और रात के रहस्य-ये सब हमारे पूर्वजों के लिये अध्ययन के विषय थे। जंगल के हर पत्ते पर, पर्वतों के हर पत्थर पर, हर चमकते तारे में, धरती, हवा और आकाश में परमेश्वर का नाम लिखा था।PPHin 38.2

    सृष्टि का कम और सामंजस्य अनंत बुद्धिमता और सामर्थ्य को दर्शाते थे। वह हर पल कोई आकर्षण का खोज निकालते थे जिससे उनके हृदय और भी गहरे प्रेम से भर जाते और वे आभार की अभिव्यक्ति करते ।PPHin 38.3

    जब तक वे ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति निष्ठावान रहते,उनमें जानने की, आनंदित होने की और प्रेम करने की क्षमता बढ़ती रहती । वे ज्ञान के नए भण्डार निरन्तर पाते रहते, प्रसन्‍नता के नये सोते पता लगाते रहते और परमेश्वर के अपरिवर्तनीय और अथाह प्रेम की और स्पष्ट अवधारणा प्राप्त करते।PPHin 39.1