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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 26—लाल समुद्र से सिने तक

    यह अध्याय निर्गमन 15:22-27, 16-18 पर आधारित हैPPHin 289

    बादल के स्तम्भ के मार्गदर्शन में, इज़राइलियों ने लाल समुद्र से आगे की यात्रा प्रारम्भ की। उनके आस-पास का दृश्य डरावना था-अनावृत, उजाड़ से पहाड़, बंजर भूमि, फैला हुआ समुद्र जिसके किनारे पर उनके शत्रुओं के शव बिखरे पड़े थे, लेकिन फिर भी वेस्वतन्त्रता की चेतना में आनन्द से भरपूर थे, और असंतोष के प्रत्येक विचार को शान्त कर दिया गया था।PPHin 289.1

    लेकिन यात्रा के तीसरे दिन तक भी, उन्हें पानी नहीं मिला। जो पानी पीने व अपने साथ लाए थे समाप्त हो चुका था। उनकी तीव्र प्यास को बुझाने के लिये कुछ नहीं था और वे झुलसे हुए मैदान में थककर धीमी गति से चलते रहे।PPHin 289.2

    मूसा, जो इस क्षेत्र से अपरिचित था, वह जानता था जो दूसरे नहीं जानते थे, कि वहां के निकटतम स्थान, मारा में जल के स्रोत थे, लेकिन उसका पानी पीने योग्य नहीं था। अत्यधिक उत्सुकता के साथ वह मार्गदर्शक बादल को देखता रहा। डूबते हृदय से उसने लोगों को प्रसन्‍्नतापूर्वक पानी!पानी! चिल्लाते हुए सुना। आनन्द से उतावले हुए पुरूष, स्त्रियाँ और बच्चे फेँव्वारे के पास इकट्‌ठे हुए, लेकिन फिर समुदाय में से एक दर्दनाक आवाज़ आईं। पानी खारा था। भय और निराशा में डूबे उन्होंने मूसा पर इस तरह मार्गदर्शन कराने का आरोप लगाया, वे ये भूल गए कि उस रहस्यमयी बादल में ईश्वरीय उपस्थिति उन्हीं का नहीं, मूसा का भी मार्गदर्शन कर रही थी। उनकी पीड़ा पर दुःखी होकरमूसा ने परमेश्वर को सहायता के लिये पुकारा। “और यहोवा ने उसे वह पौधा बतला दिया जिसे जब उसने पानी में डाला, तब वह पानी मीठा हो गया।” यहाँ पर मूसा के माध्यम से इज़राइल को वचन दिया गया, “यदि तू अपने परमेश्वर का वचन तनमन से सुने, और जो उसकी दृष्टि में ठीक है वही करे, और उसकी आज्ञाओं पर कान लगाए, और उसकी सब विधियों को माने, तो जितने रोग मैंने मिस्रियों पर भेजे हैं, उनमें से एक भी तुझ पर नहीं भेजूँग, क्‍योंकि मैं तुम्हारा चँगा करने वाला यहोवा हूँ।’PPHin 289.3

    तब वे मारा से एलीम को आए, “जहाँ पानी के बारह सोते और सत्तर खजूर के पेड़ थे।” यहाँ सिने के निर्जन प्रदेश में प्रवेश करने से पहले वे कई दिन रहे। मिस्र देश से निकलने के एक महीने बाद उन्होंने इस निर्जन प्रदेश में अपना पहला डेरा डाला। उनके पास सामग्री का भण्डार समाप्त होने लगा था। उस उजाड़ प्रदेश में बहुत कम घास थी और उनकी भेड़-बकरियाँ कम होती जा रही थी। इतने बड़े जन समूह के लिए खाद्य सामग्री कहाँ से मुहैया कराई जाएगी। उनके हृदय संकोच से भर गये और वे बड़बड़ाने लगे। परमेश्वर द्वारा नियुक्त अगुवों के विरूद्ध आरोप लगाने में अधिकारी और बड़े बुजुर्ग भी सम्मिलित हो गए। “जब हम मिस्र देश में मास की हडिडयों के पास बैठकर मनमाना भोजन करते थे, तब यदि हम यहोवा के हाथ में मार डाले भी जीते तो उत्तम वही था, पर तुम हम को इस जंगलमें इसलिये निकाल ले आए हो कि इस सारे समाज को भूखा मार डालो।”PPHin 289.4

    अभी तक उन्होंने भूख के कारण कष्ट नहीं उठाया था, उनकी वर्तमान आवश्यकताएं पूरी की जा रही थी, लेकिन वे भविष्य के लिये डरते थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उस निर्जन प्रदेश में यात्रा के दौरान इतने बड़े जन-समूह का भरण-पोषण कैसे होगा, और वे अपने बच्चों के भूखे मरने की कल्पना लगे। परमेश्वर ने उन्हेंकठिनाईयों से घिरने दिया और उनकी खाद्य सामग्री की आपूर्ति भी सीमित कर दी ताकि उनके हृदय उसकी ओर आकर्षित हो सके जो अभी तक उनका मुक्तिदाता रहा था। यदि अपनी घटी में वे उसको पुकारते थे, तो वह तब भी उन्हें अपने प्रेम और देखभाल के स्पष्ट संकेत देता था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि यदि वे उसकी आज्ञाओं का पालन करेंगे, तो उन पर कोई रोग नहीं आएगा और उनका ऐसा सोचना कि उनके बच्चे भूख से मर जाएंगे, पापमयी अविश्वास के बराबर था।PPHin 290.1

    परमेश्वर ने उनका परमेश्वर होने की, उन्हें अपना बनाने की.उन्‍्हें एक विशाल और खुशहाल देश में ले जाने की प्रतिज्ञा की थी, लेकिन वे उस प्रदेश के मार्ग पर आने वाली प्रत्येक बाधा का सामना रकने में मूच्छित होने को तत्पर थे। वह उन्हें आश्चर्यजनक तरीके से मिस्र में उनके दासत्व से बाहर निकाल लाया था, ताकि वह उन्हें उदात्त और उन्‍नत और पृथ्वी पर प्रशंसा योग्य बना सके। लेकिन अभावों को सहन करना और कठिनाईयों का सामना करना, उनके लिये आवश्यक था। परमेश्वर उन्हें अप्रतिष्ठा की अवस्था से निकालकर, जातियों में सम्मानजनक स्थान ग्रहण करने हेतु और पवित्र व आवश्यक दायित्व ग्रहण करने के लिये सुयोग्य बना रहा था। उसके द्वारा उनके लिये किये गए कार्यों पर दृष्टि करके, यदि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखा होता, तो उन्होंने असुविधा, अभाव और अत्याधिक कष्ट भी प्रसन्नतापूर्वक सहन कर लिये होते, लेकिन न तो वे प्रभु पर और आगे विश्वास करने को और न ही उसकी सामर्थ्य के नित्य प्रमाणों के साक्षी होने को सहमत थे। वे मिस्र में अपने अप्रिय अनुभव को भूल गए। वे दासत्व से उनके छुटकारे में उनके लिये परमेश्वरकी सामर्थ्य और भलाई के प्रदर्शन कोभी भूल गए। वे भूल गए कि जब विनाशक स्वर्गदूत ने मिस्र के सभी पहलौठों का वघ किया किस तरह उनके बच्चों को छोड़ दिया गया था। वे लाल समुद्र पर ईश्वरीय शक्ति के महान प्रदर्शन को भूल गए। वे भूल गए कि उनके लिये खोले हुए मार्ग पर चलकर वे सुरक्षापूर्वक पार हो गए, लेकिन उनके शत्रुओं को, जो उनका पीछा करने का प्रयत्न कर रहे थे, समुद्र के जल ने पराजित कर दिया। उन्होंने केवल अपनी असुविधाओं और परीक्षाओं पर ध्यान दिया और यह कहने के बजाय कि, “यहोवा ने हमारे साथ बड़े-बड़े काम किए हैं, जबकि हम दास थे, वह हमें एक महान जाति बना रहा है, वे रास्ते की कठिनाईयों की बातें कर रहे थे ओर सोच रहे थे कि उनकी दुखदायी तीर्थयात्रा कब समाप्त होगी।PPHin 290.2

    इज़राइल के निर्जन प्रदेश में बिताए जीवन के इतिहास अन्तिम समय तक परमेश्वर के इज़राइल के लाभ के लिये इतिवृत किया गया। मरूधर भ्रमण में परमेश्वर का घुमक्कड़ों के साथ व्यवहार का उल्लेख, भूख, प्यास और थकावट का उनका अनुभव, उनके सुख चैन के लिये परमेश्वर का विस्मयकारी प्रदर्शन, सभी युगों में उसके लोगों के लिये निर्देश और चेतावनियों से भरपूर है। इब्रियों के विभिन्‍न अनुभव, कनान में उनके प्रतिज्ञाबद्ध घर के लिये उपकम की शिक्षा थी। इन दिनों में परमेश्वर अपने लोगों से इज़राइल द्वारा अनुभव की हुई परीक्षाओं को दीन हृदय और सिखाने योग्य स्वभाव से समीक्षा करवाना चाहता था, ताकि स्वर्गीय कनान की तैयारी में उनको निर्देशित किया जा सके ।PPHin 291.1

    कई लोग पीछे मुड़कर इज़राइलियों को देखते हैं, और उनके अविश्वास और बड़बड़ाहट पर अचम्भा करते हैं, और उन्हें लगता है वे स्वयं उतने कृतज्ञहीन नहीं होते, लेकिन जब उनके विश्वास को सामान्य परीक्षाओं द्वारा भी परखाजाता है तो वे भी उतना ही विश्वास और धैर्य प्रकट करते हैं जितना कि प्राचीन इज़राइली करते थे। जब उन्हें कष्टप्रद स्थानों में लाया जाता है तो वे, परमेश्वर द्वारा चुनी गई, उनके शुद्धीकरण की विधि पर बड़बड़ाते है। हालाँकि उनकी तात्कालिक आवश्यकाताओं की आपूर्ति कर दी जाती है, फिर भी बहुत से लोग भविष्य के लिये परमेश्वर पर विश्वास करने को असहमत हैं, और हमेशा चिंतितरहते हैं कि वे निर्धन हो जाएंगे और उनके बच्चों का कष्ट उठाना पड़ेगा । कुछ लोग पहले से ही विपदा के बारे में सोचते रहते हैं या विद्यमान कठिनाईयों को बढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं, जिससे उनकी आखें उन आशीषों को देखने के लिए अन्धी हो जाती है, जिनके लिये उन्हें धन्यवाद करना चाहिये। जो बाधाएँ उनके सामने आती हैं, वे उन्हें, शक्ति के एकल स्रोत, सहायता के लिये परमेश्वर के पास ले जाने के बजाय, उनमें असन्तोष और अशान्ति जागृत करके, उन्हें उससे दूर कर देती हैं।PPHin 291.2

    इस प्रकार अविश्वासी होने में क्या हम अच्छा करते हैं? हम अकृतज्ञ और संदिग्धचित क्‍यों हों? यीशु हमारा मित्र है, सम्पूर्ण स्वर्ग हमारे कल्याण में रूचि रखता है, और हमारी उत्सुंक्ता और हमारा डर परमेश्वर की पवित्र आत्मा को दुःखी कर देते हैं। हमें ऐसी चिंता में नहीं पड़ना चाहिये जो हमें केवल क्षति पहुँचाती है और कठिन परिस्थितियों को सहन करने में सहायता नहीं करती। हमें परमेश्वर के प्रति अविश्वास कोकोई स्थाननहीं देना चाहिये जो भविष्य की आवश्यकताओं के लिये तैयारियों कों हमारे जीवन का लक्ष्य बना दे, जैसे कि हमारी सुख शान्ति इन्हीं सांसारिक वस्तुओं में हो। यह परमेश्वर की इच्छा नहीं है कि उसके लोग बोझ से दबे हों। PPHin 292.1

    लेकिनप्रभुयहनहींकहता कि हमारे मार्ग में कोई भी खतरे नहीं । वह अपने लोगों को बुराई और पाप से भरे जगत से बाहर ले जाने का प्रस्ताव नहीं रखता, वरन्‌ वह एक सुनिश्चित शरण-स्थान का संकेत देता है। वह थके हुओं और बोझ से दबे लोगोंको आमन्त्रित करता है, “हे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे हुए लोगों, मेरे पास आओ, में तुम्हें विश्राम दूँगा।” सांसारिक दायित्व और चिंता का जुआ जो तूने अपनी गर्दन पर रखा हुआ है, उसे निकाल फेंको और, “मेरा जुआ अपने ऊपर उठा लो, और मुझ से सीखो, क्योंकि मैं नम्र और मन से दीन हूँ। तुम अपने मन से आराम पाओगे”-मत्ती 11:28, 29 । हम अपनी सारी चिन्ता उस पर डाल कर, परमेश्वर में शान्ति और आराम पा सकते हैं, क्योंकि उसको हमारा ध्यान है। 1 पतरस 5:7 देखिये।PPHin 292.2

    पौलुस प्रेरित कहता है, “हे भाइयों, चौकस रहो कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो, जो तुम्हें जीवते परमेश्वर से दूर हटा ले जाए।” जो कुछ भी परमेश्वर ने हमारे लिये किया है, उसी दृष्टि से हमारा विश्वास दृढ़, सक्रिय और चिरस्थायी होना चाहिये। बड़बाड़ने और शिकायत करने के बजाय हमारे हृदय से यह शब्द निकलने चाहिये, “हे मेरे मन, यहोवा को धन्य कह, और जो कुछ मुझ में है, वह उसके पवित्र नाम को धन्य कह, और उसके उपकार को न भूलना ।” भजन संहिता 103:1,2PPHin 292.3

    परमेश्वर इज़राइल की आवश्यकताओं के प्रति उदासीन नहीं था। उसने उनके अगुवों को कहा, “मैं तुम्हारे लिये आकाश से भोजन वस्तु बरसाऊंगा।’ और निर्देश दिये गए कि लोग प्रतिदिन का भोजन इकटू्‌ठा करें, और छठवें दिन दुगनी मात्रा में, ताकि विश्राम-दिन की पवित्र व्यवस्था को कायम रख सकें।PPHin 293.1

    मूसा ने कलीसिया को आश्वास्त किया कि उनकी आवश्यकताएँ पूरी की जाएँगी, “यहोवा साँझ को तुम्हें खाने के लिये मास और भोर को पेट भर रोटी देगा। और हम क्‍या है? तुम्हारा बड़बड़ाना हम पर नहीं यहोवा ही पर होता है।” फिर उसने हारून से उनको कहलवाया, “यहोवा के सामने आओ, क्‍योंकि उसने तुम्हारा बड़बड़ाना सुना है।” जब हारून बोल ही रहा था, “उन्होंने जंगल की ओर दृष्टि करके देखा, औरयहोवा का तेज बादल में दिखाई दिया।” ऐसी भव्यता, जो उन्होंने पहले कभीनहीं देखी थी, ईश्वरीय उपस्थिति का प्रतीक थी। उनकी इन्द्रियों को संबोधित करने वाले प्रदर्शनों के माध्यम से उन्हें परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करना था। उन्हें यह सिखाना था कि केवल वह मनुष्य मूसा नहीं, वरन वह जो ‘सर्वोच्चः है उनका अगुवा है, ताकि वे उसके नाम का भय माने और उसकी आज्ञा का पालन करें।PPHin 293.2

    सांझ को बटेरें आकर सारी छावनी पर बैठ गई, और वे पूरे जन समूह की आवश्यकता की आपूर्ति के लिये पर्याप्त थी। भोर होने पर भूमि की सतह पर, “एक छोटी गोल सी वस्तु, जो पाले के किनकों के समान थी, पड़ी हुई मिली । वह धनिये के समान था, और उसका रंग रूप मोती का सा था।” लोगों ने उसे ‘मनन्‍ना’ कहा। मूसा ने कहा, “यह वही भोजनवस्तु है जो यहोवा तुम्हें खाने के लिये देता है।” लोगों में मन्‍ना को इकट्ठा किया और उन्हें पता चला कि वह सब के लिये पर्याप्त मात्रा में था। वे उसे, “चक्की में पीसते या ओखली में कटते थे, फिर तसले में पकाते और उसके फलके बनाते थे” और “उसका स्वाद शहद में बने पुए के समान था।” उन्हें निर्देश दिया गया कि प्रतिदिन प्रति मनुष्य के पीछे एक-एक ओमेर बटोरे, और सवेरे तक नहीं रख छोड़ना था। किसी ने उसमें से कुछ सवेरे तक रख छोड़ा, तो सुबह तक वह मनन्‍ना खाने योग्य नहीं रहा। खाद्य सामग्री को प्रात: काल ही इकट्ठा करना था, क्योंकि जो कुछ भी भूमि पर रह जाता था, सूर्य की गर्मी से पिघल जाता था।PPHin 293.3

    मन्‍ना के इकट॒ठा करने में यह पाया गया कि किसी ने नियत मात्रा से अधिक और किसी ने कम मनन्‍ना पाया। लेकिन, “जब उन्होंने उसको ओमेर से नापा, तब जिसके पास अधिक थाउसके पास अधिक न रह गया, और जिसके पास थोड़ा था, उसको कुछ घटी नहीं हुईं ।” इस पवित्र वचन का अर्थ औरउससे प्राप्त व्यावहारिक उपदेश, पौलूस द्वारा कुरिन्थियों की दूसरी पत्री में दिया गया है। “यह नहीं कि दूसरों को चैन और तुम को क्लेश मिले। परन्तु बराबरी के विचार से इस समय तुम्हारी बढ़त उनकी घटी में काम आए, ताकि उनकी बढ़त भी हो “जिसने बहुत बटोरा उसका कुछ अधिक न निकला और जिसने थोड़ा बटोरा उसका कुछ कम न निकला ।”2 कुरिन्थियों 8:13-15PPHin 294.1

    छठवें दिन लोगों ने प्रत्येक मनुष्य के पीछे दो ओमेर इकट्ठा किये। मण्डली के सब प्रधानों ने शीघ्र ही जाकर मूसा को इस बात से अवगत कराया। मूसा ने उत्तर दिया, “यह वही बात है जो यहोवा ने कही, क्‍योंकि कल परमविश्राम, अर्थात यहोवा के लिये पवित्र विश्राम होगा, इसलिये तुम्हें जो तन्दूर में पकाना हो उसे पकाओ और जिसे उबालना है उबालो, और इसमें से जितना बचे उसे सवेरे के लिये रख छोड़ो।” उन्होंने ऐसा नहीं किया और उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। “तब मूसा ने कहा, आज उसी को खाओ, क्योंकि आज यहोवा का विश्रामदिन है, इसलिये आज तुम को वह मैदान में न मिलेगा। छः: दिन तो तुम उसे बटोरा करोगे, परन्तु सातवाँ दिन विश्राम का दिन है, उसमें वह न मिलेगा।”PPHin 294.2

    परमेश्वर अपेक्षा करता है कि उसका पवित्र दिन को आज भी वही मान्यता मिले जो इज़राइल के समय में दी जाती थी। इब्रियों को दी गई आज्ञा को सब मसीहियों द्वारा यहोवा का आदेश माना जाना चाहिये। विश्राम दिन से पहले वाला दिन तैयारी का दिन होना चाहिये ताकि उसकी पवित्र घड़ियोंसे सम्बन्धित सब कुछ तैयार हो। किसी भी परिस्थिति में हमारी निजी व्यवस्था को पवित्र समय पर हावी नहीं होने देना चाहिये। परमेश्वर का निर्देश है कि रोगियों और पीड़ितो की देखभाल की जाए, उनके आराम के लिये किया गया परिश्रम दया का काम है, विश्राम दिन का खण्डन नहीं, लेकिन अनावश्यक कार्यों को टाल देना चाहिये। कई लोग उन छोटे-छोटे कार्यों को, जो तैयारी के दिन किये जा सकते थे, विश्राम दिन के प्रारम्भ होने तक छोड़ देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिये। जिन कार्यों को विश्राम दिन के प्रारम्भ तक अवहेलना की जाती है, उन्हें विश्राम दिन के बीत जाने तक नहीं करना चाहिये। यह नियम वे जो बेपरवाह है उनको विश्राम दिन का स्मरण कराएगा और वे अपने निजी कार्य छः कामकाजी दिनों में करने का ध्यान रखेंगे।PPHin 294.3

    निर्जन प्रदेश में लम्बे समय तक डेरा लगाए रखने के दौरान प्रत्येक सप्ताह इज़राइली एक तिहरा चमत्कार के साक्षी होते थे जो विश्रामदिन की पवित्रता को उनके मनों पर अंकित करने के लिये किये जाते थे। छठवें दिन दुगुनी यात्रा में मन्‍ना बरसता था व सातवें दिन बिल्कूल नहीं और विश्राम दिन के लिये आवश्यक भाग मीठे और शुद्ध रूप से संरक्षित रहता था, जबकि अन्य दिनों में दूसरे दिन तक रखे रहने पर प्रयोग में लाने योग्य न रहता था।PPHin 295.1

    मन्‍ना के दिये जाने से सम्बन्धित परिस्थितियों में, हमारे पास निर्णायक प्रमाण है कि विश्राम दिन का संस्थापन सिने पर्वत पर दस-आज्ञाओं के देने के समय नहीं हुआ था, जैसा कि कई लोग दावा करते है। सिने आने से पहले इज़राइली समझते थे कि विश्राम दिन को मानने के लिये वे कर्तव्यबद्ध हैं।PPHin 295.2

    विश्राम दिन को मन्‍ना नहीं गिराया जाता था; इसदिन की तैयारी के लिये, शुकवार को दो गुना भाग इकट्ठा करने के निर्देश के द्वारा विश्राम दिन के पवित्र स्वभाव को लगातार उन्हें स्मरण कराया जाता था ।।और जब कुछ लोग विश्राम दिन पर मन्‍ना इकट्ठा करने बाहर गए, तो परमेश्वर ने पूछा, “तुम लोग मेरी आज्ञाओं और व्यवस्था को कब तक नहीं मानोगे?PPHin 295.3

    “इज़राइली जब तक बसे हुए देश में न पहुँचे तब तक, अर्थात चालीस वर्ष तक मनन्‍ना खाते रहे, वे जब तक कनान देश की सीमा पर नहीं पहुँचे तब तक मन्‍ना खाते रहे।” चालीस वर्षों तक इस चमत्कारी प्रेम और सहानुभूति का प्रतिदिन स्मरण कराया गया। भजन लेखक के शब्दों में परमेश्वर ने उन्हें “स्वर्ग का अन्न दिया, मनुष्यों नेस्वर्गदूतों का खाना खाया”-भजन संहिता 78:24,25 । जिसका तात्पर्य है स्वर्गदूतों द्वारा उनके लिये दिया गया खाना। स्वर्ग के अन्न’ को खाकर जीवित मनुष्यों को सिखाया गया कि परमेश्वर की प्रतिज्ञा के होते हुए वे घटी के प्रति ऐसे सुरक्षित थे मानो उपजाऊ तराईयों के लहराते अनाज के खेतों से घिरे हुए हों। PPHin 295.4

    मन्‍ना, जो इज़राइल को जीवित रखने के लिये स्वर्ग से गिरता था उसका प्रारूप था जो संसार को जीवन देने के लिये परमेश्वर की ओर से आया। यीशु ने कहा, “जीवन की रोटी मैं हूँ। तुम्हारे बाप-दादाओं ने जंगल में मन्‍ना खाया और मर गए। यह वह रोटी है जो स्वर्ग से उतरती है। जीवन की रोटी जो स्वर्ग से उतरी में हूँ। यदि कोई इस रोटी में से खाए, तो सर्वदा जीवित रहेगा, और जो रोटी मैं जगत के जीवन के लिये दूँगा, वह मेरा माँस है।” और भावी जीवन में परमेश्वर के लोगों के लिये आशीर्वाद की प्रतिज्ञाओं में लिखा है, “जो जय पाए, उसे मैं गुप्त मन्‍ना में से दूँगा।” प्रकाशित वाक्य 2:17PPHin 295.5

    सीन नामक जंगल ने निकलने के पश्चात, इज़राइलियों ने रपीदीम में डेरा डाला। यहां पर पानी नहीं था और फिर से उन्होंने परमेश्वर की शक्ति पर अविश्वास किया। अपनी अज्ञानता और घृष्टता में वे लोग मूसा के पास यह माँग लेकर आए, “हमें पीने को पानी दे। लेकिन उसका धैर्य बना रहा। उसने कहा, “तुम मुझ से क्‍यों वाद-विवाद करते हो? और यहोवा की परीक्षा क्‍यों लेते हो? वे कोध से बड़बड़ाने लगे, “तू हमें बाल-बच्चों और पशुओं समेत प्यासा मार डालने के लिये मिस्र से क्‍यों ले आया है?” जब उन्हें बहुतायत से खाना मुहैया कराया गया, उन्होंने शर्मसार होकर अपने अविश्वास और अपनी बड़बड़ाहट का स्मरण किया और भविष्य में प्रभु पर विश्वास रखने की प्रतिज्ञा की, लेकिन वे शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा को भूल गए और अपने विश्वास की प्रथम परीक्षा में असफल रहे । उनका मार्गदर्शन करने वाला बादल का स्तम्भ एक भयानक रहस्य पर पर्दा डाले प्रतीत हो रहा था। और मूसा कौन था वह? वे पूछ रहे थे, और उनको मिस्र से लाने में उसका क्या उद्देश्य था? उनके हृदय सन्देह और अविश्वास से भर गए और उन्होंनेउस पर निर्भीकता से आरोप लगाया कि उसने उन्हें और उनके बच्चों को कठिनाईयों और अभावों से मार डालने का षड़यन्त्र रचा था ताकि वह स्वयं को उनकी धन-सम्पत्ति से धनवान बना सके। घृणा और कोध के कोलाहल में वे उस पर पथराव करने वाले थे।PPHin 296.1

    तब मूसा ने यहोवा की दुहाई दी, “इन लोगों के साथ मैं क्‍या करूँ? उसे इज़राइल के वृद्ध लोगों और मिस्र में जिसके प्रयोग से आश्चर्यकर्म किये गए थे, उस लाठी को लेकर लोगों के आगे-आगे जाने को कहा गया। और परमेश्वर ने उससे कहा, “देख, मैं तेरे आगे चलकर होरेब पहाड़ की एक चट॒टान पर खड़ा रहूंगा, और तू उस चट्टान पर मारना,तब उसमें से पानी निकलेगा, जिससे ये लोग पीएँ; उसने वैसा ही किया और जीवन्त जल की धारा फूट पड़ी और पूरे डेरे को बहुतायत से जल प्राप्त हुआ। मूसा को लाठी उठाकरइन बड़बड़ाते हुए सरदारों पर किसी भयानक विपत्ति को बुलानेकी आज्ञादेने के बजाय, अपनी करूणा में प्रभु ने उसी लाठी को उनके छुटकारे के लिये अपना साधन बनाया।PPHin 296.2

    “वह जंगल में चट॒टानों को फाड़कर उनको मानो गहरे जलाशयों से पानी पिलाता था। उसने चट्टान से भी धाराएँ निकाली और नदियों का सा जल बहाया -भजन संहिता 78:45,16 ।मूसा ने चट्टान पर लाठी से मारा, लेकिन उस बादल के स्तम्भ में आवृत परमेश्वर का पुत्र था, जिसने मूसा के पास खड़े होकर जीवनदायी पानी को बहाया, ना सिफ मूसा और पुरनियों ने, वरन्‌ दूरखड़ी समस्त कलीसिया ने प्रभु की महिमा के दर्शन किये, लेकिन यदि बादल को हटा दिया जाता, तो उसमें रहने वाले तेज प्रकाश ने उन्हें मार दिया होता।PPHin 297.1

    प्यास के प्रभाव में लोगों ने यह कहते हुए परमेश्वर को परखा, “प्रभु हमारे बीच में है या नहीं”? ” यदि परमेश्वर हमे यहां लेकर आया है, तो वह हमे रोटी और पानी क्‍यों नहीं देता?” इस प्रकार प्रकट किया हुआ अविश्वास आपराधिक था और मूसा को डर था कि परमेश्वर की दण्डाज्ञा उन पर आएगी और उसने उस स्थान का नाम मस्सा-'परीक्षा’ और मरीबा, ‘डॉटना’ रखा। यह उनके पाप का स्मारक था।PPHin 297.2

    अब उनके ऊपर एक नया खतरा मण्डरा रहा था। उनकी बड़बड़ाहट के कारण परमेश्वर ने उनके दुश्मनों द्वाराइउन पर आक्रमण होने दिया। अमालेकी, उस क्षेत्र में रहने वाली एक उग्र, रणकुशल जाति, उनसे लड़ने को आ गये और उन सब को मार गिराया जो थक कर पीछे रह गये थे। यह जानते हुए कि अधिक संख्या में लोग युद्ध करने के लिये तैयार नहीं थे, मूसा ने यहोशू को कहा कि वह अलग-अलग कुठम्बों में से योद्धाओं का एक समूह चुने और दुश्मन से लड़ने में उनका नेतृत्व करें, और वह स्वयं परमेश्वर की लाठी हाथ में लिये हुए पहाड़ी की चोटी पर खड़ा रहेगा। मूसा की इस आज्ञा के अनुसार यहोशू और उसकी टोली ने अमालेकियों पर आक्रमण किया, और मूसा हारून और हूर पहाड़ी की चोटी पर चढ़ गए। अपने हाथ स्वर्ग की ओर उठाए व अपने सीधे हाथ में परमेश्वर की लाठी पकड़े हुए, मूसा ने इज़राइल की सेनाओं की सफलता के लिये प्रार्थना की। युद्ध के दौरान यह देखा गया कि जब तक मूसा अपना हाथ ऊपर उठाए रहता, तब तक इज़राइल प्रबल होता, परन्तु जब उसके हाथ नीचे आ जाते तो शत्रु विजयी होने लगता। जब मूसा थक गया, तब हारून और हूर सूर्यास्त तक उसके हाथों को सम्भाले रहे और तब शत्रु को खदेड़ दिया गया।PPHin 297.3

    हारून और हूर ने मूसा के हाथों को उठाए रखने में लोगों को यह बताया कि जब मूसा उन्हें बताने के लिये परमेश्वर के आदेश को ग्रहण करे, यह उनका कर्तव्य था कि उस कठिन काम में वे उसका समर्थन करें। मूसा की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि उससे पता चलता था कि उनका भविष्य परमेश्वर के हाथों में था; जब वे उस पर विश्वास रखेंगे वह उनके लिये लड़ेगा और उनके शत्रुओं को वश में करेगा, लेकिन जब वे उसे छोड़कर स्वयं की योग्यता पर विश्वास करेंगे तो वे उनसेभीदुर्बलहो जाएँगे जिनके पास परमेश्वर का ज्ञाननहीं था और उनके शत्रु उन पर विजय पा लेंगे।PPHin 298.1

    जैसे मूसा के द्वारा हाथ स्वर्ग की ओर ऊपर उठाकर इब्रियों की मध्यस्थता करने में उनकी विजय हुईं, इसी प्रकार जब परमेश्वर का इज़राइल विश्वास के साथ अपने ‘महान सहायक’ के सामर्थ्य पर निर्भर करता है तो वह विजयी होता है। अभी भी ईश्वर की शक्ति और मनुष्य के प्रयत्नों को मेल आवश्यक है। मूसा को यह विश्वास नहीं था कि इज़राइल के निष्किय रहने पर परमेश्वरउनके शत्रुओंको पराजितकरेगा। जब महान अगुवा प्रभु से विनती कर रहा था, तबयहोशूऔर उसके साहसी अनुयायी परमेश्वर और इज़राइल के शत्रुओं कोखदेड़ कर भगा देने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।PPHin 298.2

    अमालेकियों की पराजय के पश्चात परमेश्वर ने मूसा को निर्देश दिया, “स्मरणार्थ इस बात को पुस्तक में लिख ले और यहोशू को सुना दे कि मैं आकाश के नीचे से अमालेक का स्मरण भी पूरी रीति से मिटा डालूँगा।” मृत्यु से कुछ समय पहले इस महान अगुवे ने अपने लोगों को यह आज्ञा दी, “स्मरण रख कि जब तू मिस्र से निकलकर आ रहा था तब अमालेक ने तुझ से मार्ग में क्‍या किया। जब तू मार्ग में थका माँदा था, तब तुझ पर चढ़ाई करके जितने निर्बल होने के कारण सबसे पीछे थे उन सभी को मारा, उनको परमेश्वर का भय न था. ......प अमालेक का नाम धरती पर से मिटा डालना, और तुम इस बात को न भूलना ”-व्यवस्थाविवरण 25:17-19। इन दुष्ट लोगों के सन्दर्भ में प्रभु ने घोषणा की, “यहोवा अमालेकियों से पीढ़ियों तक लड़ाई करता रहेगा ।”-निर्गमन 17:16PPHin 298.3

    अमालेकी परमेश्वर के चरित्र या उसकी सार्वभौमिकता से अनभिज्ञ नहीं थे, लेकिन उसका भय मानने के बजाय, उन्होंने उसके आधिपत्य को ललकारने का दुस्साहस किया। अमालेक के लोगों ने मूसा के माध्यम से दिखाए गए आश्चर्यकर्मो कोउपहास का विषय बना दिया और पड़ोसी देशों के भय का ठट्ठा उड़ाया गया। उन्होंने अपने देवी-देवताओं की शपथ खाई कि वे इब्रियों का विनाश कर देंगे ताकि कोई भी भाग कर निकल नहीं पाए और वे अंहकारी मन से कहते रहे कि इज़राइल का परमेश्वर उनका विरोध करने में असमर्थहोगा। उन्हें इज़राइलियों द्वारान तो धमकी दी गई थी और न ही चोट पहुँचाई गयी थी । उनका आक्रमण बिल्कूल अकारण था। वे केवल परमेश्वर के प्रति अवज्ञा व घृणा को प्रकट करने हेतु उसके लोगों का विनाश करना चाहते थे। अमालेकी लम्बे समय से कर पापी थे और उनके अपराधों ने परमेश्वर को प्रतिशोध लेने के लिये पुकारा, लेकिन फिर परमेश्वर ने उन्हें प्रायश्चित का अवसर दिया लेकिन जब अमालेक के योद्धाओं ने इज़राइल के निहत्थे और थके हुए सिपाहियों पर आक्रमण किया तो उन्होंने अपने ही देश का विनाश निश्चित कर लिया। परमेश्वर अपने सबसे दुर्बल संतान की रक्षा करता है। स्वर्ग उन पर हुए अत्याचार और निर्दयता के किसी भी कृत्य को अनदेखा नहीं करता। जो भी उससे प्रेम करते हैं और उसका भय मानते है, उन पर उसकी सुरक्षा का हाथ होता है, मनुष्य सावधान रहे कि वह उस हाथ पर वार नहीं करे, क्‍योंकि उस हाथ में न्याय की तलवार होती हैं।PPHin 298.4

    इज़राइलियों के डेरे से कुछ ही दूरी पर मूसा के सुसर यित्रो का घर था। इब्रियों के छुटकारे का समाचार पाकर यित्रोमूसा की पत्नी और दोनों पुत्रों को मूसा के पास लौटाने के लिये उससे भेंट करने को निकला। मूसा को सन्देशवाहकों द्वारा उनके आगमन की सूचना दी गई और वह प्रफुल्लित होकर उनसे मिलने गया, और औपचारिक अभिनन्दन के बाद उन्हें अपने तम्बू में ले गया। मिस्र से इज़राइल का नेतृत्व करने में खतरों से बचाने के लिये वह उन्हें पीछे छोड़ आया था, लेकिन अब वह उनकी संगति का सुख भोग सकता था। उसने यित्रो को इज़राइल के लिये किए गएसभी कार्यों का वर्णन किया और कुलपिता आनन्दित हुआ और परमेश्वर को धन्य किया, मूसा और पुरनियों के साथ मिलकर उसने बलि की भेंट चढ़ाई और परमेश्वर की करूणा के स्मरण में प्रतिभोज का आयोजन किया।PPHin 299.1

    डेरे में रहते हुए यित्रो ने देखा कि मूसा पर कितना बड़ा उत्तरदायित्व था। इतने विशाल, अज्ञान और अप्रशिक्षित जन-समूह में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखना बहुत बड़ा काम था। मूसा उनका मान्यता प्राप्त अगुवा और न्यायी था और न केवल लोगों के कर्तव्य और सामान्य हितों की बातें, वरन्‌ उनके बीच उत्पन्न लड़ाई झगड़ों कोभी निर्णय के लिये उसके पास भेजा जाता था। उसने ऐसा होने दिया क्‍योंकि ऐसा करने से उसे उन्हें निर्देश देने का अवसर मिल जाता था जैसा कि उसने कहा, “में उन्हें परमेश्वर की विधि और व्यवस्था समझता हूँ।” लेकिन यित्रों ने विरोध करते हुए कहा, “यह काम तेरे लिये बहुत भारी है, तू इसे अकेला नहीं कर सकता ।” “तुम निश्चय ही थक जाओगे।” और उसने मूसा को सम्मति दी कि वह गुणी मनुष्यों को हजार-हजार सौ-सौ, पचास-पचास और दस-दस मनुष्यों पर प्रधान नियुक्त कर दे। ये पुरूष, “परमेश्वर का भय मानने वाले, सच्चे और कपटीपन से घृणा करने वाले होने चाहिये ।” उन्हें छोटे-छोटे मुकदमों को मूसा के सम्मुख लाना था। यित्रों ने कहा, “तू इन लोगों के लिये परमेश्वर के सम्मुख जाया कर, और इनके मुकद्दमों को परमेश्वर के पास तू पहुँचा दिया करं इन्हें विधि और व्यवस्था प्रगट करके, जिस मार्ग पर इन्हें चलाना है, और जो-जो काम इन्हें करनाहो, वह उनको जता दिया कर ।” इस सम्मति को मूसा ने स्वीकार किया और इससे ना केवल मूसा को राहत मिली, वरन्‌इसके परिणामस्वरूप लोगों में सम्पूर्ण शान्ति व्यवस्था स्थापित हो गई।PPHin 299.2

    परमेश्वर ने मूसा को बहुत सम्मानित किया था, और उसके हाथों आश्चर्य कर्म करवाये थे, लेकिन दूसरों को निर्देश देने के लिये चुने जाने के तथ्य ने उसे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने दिया कि स्वयं उसे किसी निर्देशन की आवश्यकता नहीं थी। इज़राइल के नियुक्त अगुवे ने मिद्यान के धर्मपरायण याजक के सुझावों को शान्ति से सुना और उसकी योजना को एक ज्ञानपूर्ण आयोजन के रूप में अपनाया ।PPHin 300.1

    रपीदीम से वे लोग बादल के स्तम्भ के पीछे-पीछे यात्रा करते रहे । उनका मार्ग बंजर मैदानों के पार, खड़ी ढाल वाली चढ़ाईयों से और पथरीली संकरी घाटियों में से होकर निकला। बालुई बंजर भूमि के पारगमन में उन्होंने अपने सामने उबड़-खाबड़ पहाड़ों को किले के समान अपने मार्ग के आड़े खड़े पाया, जो उनकी प्रगति में बाधा प्रतीत हो रहे थे। लेकिन निकट पहुँचने पर उन्होंने पाया कि पहाड़ो की दीवार में यहाँ-वहाँ खुली जगह थी, जिसके पार दूसरी घाटी सदृश्य हो रही थी। अब उन्हें एक गहरे कंकरीले रास्ते से ले जाया गया। यह एक भव्य और प्रभावशाली दृश्य था। दोनो ओर कईं फीट ऊंचे पथरीली चट्टानों के बीच से, जहां तक दृष्टि जा सकती थी, अपने भेड़-बकरियों और गाय-बैलों समेत इज़राइल की सेनाएँ, बहती धारा के समान प्रतीत हुए। और अब उनके सामने पवित्र वैभव लिये सिने पर्वत का अति-विशाल अग्र भाग खड़ा था। बादल का स्तम्भ सिने पर्वत के शिखर पर जा टिका और लोगों में नीचे मैदानों में अपने तम्बू गाढ़े। यहीं पर लगभग एक साल तक उन्हें बसेरा करना था। रात को अग्नि-स्तम्भ उन्हें ईश्वरीय सुरक्षा का आश्वासन देता और जब वे निद्रा-मग्न हो जाते, तब उनके शिविर पर हल्के से स्वर्ग की रोटी गिरती थी।PPHin 300.2

    भोर पहाड़ो की मेढ़ो को स्वर्णिम कर रही थी और सूरज की स्वर्णिम किरणें, तंग नदी घाटियों को भेद रही थी और इन थके मांदे यात्रियों को करूणा की किरणों सी प्रतीत हो रही थी। हर तरफ उबड़-खाबड़ ऊंचाईयाँ अपनी सुनसान भव्यता में सनातन स्थायित्व और तेजस्विता को दर्शातीप्रतीत हो रही थी । यहाँ लोगों का मन पवित्रता और श्रद्धायुक्त भय से प्रभावित हुआ।PPHin 301.1

    “जिसने पहाड़ों को तराजू में और पहाड़ियों को काँटे में तोला है” (यगाययाह 40:42) उसकी उपस्थिति में, मनुष्य को उसकी अज्ञानता और दुर्बलता का आभास कराया गया। यहाँ प्रभु ने अपनी निजी आवाज में घोषणा द्वारा अपने लोगों पर अपनी अपेक्षाओं की छाप छोडने के लिये उन्हें इकट्ठा किया। उनमें महत्वपूर्ण व सुधारवादी परिवेंतन लाया जाना था, क्‍योंकि मूर्तिपूजा से उनका चिरकालीन सम्बन्ध और दासत्व के निम्नकारी प्रभावों ने उनके आचरण व चरित्र पर अपनी छाप छोड़ दी थी। परमेश्वर उन्हें अपने बारे में ज्ञान देकर उन्हें उच्चतर सात्विक स्तर पर उठाने के लिये प्रयत्नशील था।PPHin 301.2

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