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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 27—इज़राइल को दी गई व्यवस्था

    यह अध्याय निर्गमन 19—24 पर आधारित है

    सिने में पड़ाव डालने के तुरन्त बाद मूसा को परमेश्वर से भेंट करने के लिये पर्वत पर बुलाया गया। वह अकले ही उस खड़ी ढाल और उबाड़-खाबड़ रास्ते की चढ़ाई की और उस बादल के निकट आया जो यहोवा की उपस्थिति का अंकित स्थान था। इज़राइल का ‘सर्वोच्च’ अर्थात परमेश्वर के साथ एक घनिष्ठ और असाधारण सम्बन्ध स्थापित होने को था- उन्हें परमेश्वर के शासन के अधीनस्थ एक राष्ट्र और कलीसिया के रूप में संगठित होना था। लोगों के लिये मूसा का यह सन्देश था।PPHin 302.1

    “तुमने देखा है कि मैंने मिस्रियों के साथ क्या किया, तुम को मानो ऊकाब पक्षी के पंखो पर उठाकर अपने पास ले आया हूँ। इसलिये अब यदि तुम निश्चय मेरी मानोगे और मेरी वाचा का पालन करोगे, तो सब लोगो में से तुम ही मेरा निज धन ठहरोगे, क्योंकि समस्त पृथ्वी तो मेरी है। और तुम मेरी दृष्टि में याजकों का राज्य और पवित्र जाति ठहरोगे।’ PPHin 302.2

    शिविर में लौटने पर, मूसा ने इज़राइल के पुरनियों को बुलाकर, ईश्वरीय सन्देश को दोहराया। उन्होंने कहा, “जो कुछ यहोवा ने कहा है, वह सब हम करेंगे ।” इस प्रकार उसे अपना शासक मानकर, स्वयं को प्रतिज्ञाबद्ध करके उन्होंने परमेश्वर के साथ पवित्र वाचा बाँधी, जिसके द्वारा, विशेष रूप से, वे उसके आधिपत्य की प्रजा बन गए।PPHin 302.3

    मूसा फिर से पहाड़ पर चढ़ा और प्रभु ने उससे कहा, “सुन, में बादल के अंधियारे में होकर तेरे पास आता हूँ, इसलिये जब तक में तुझ से बातें करूं तब वे लोग सुनें, और सदा तुझ पर विश्वास करें। मार्ग में कठिनाईयाँ सामने आने पर वे मूसा एवं हारून के विरूद्ध बड़बड़ाने लगते और उन पर दोष लगाते कि वे इज़राइल के लोगों को मिस्र से इसलिये निकाल लाए ताकि उनका विनाश कर सके । परमेश्वर मूसा को उनके सामने सम्मानित करता। ताकि वे उसके निर्देशों में विश्वास ला सकें।PPHin 302.4

    अपनी व्यवस्था को उच्चारित करने के दृश्य को परमेश्वर ने महिमामयी व भव्य बनाया जो कि उसके उत्कृष्ट विशेषता में मेल खाता था। लोगों को इस बात से प्रभावित करना था कि परमेश्वर के कार्यों से सम्बन्धित सभी कार्यों का महानतम भक्तिभाव से आदर करना चाहिये। परमेश्वर ने मूसा से कहा, “लोगों के पास जा और उन्हें आज और कल पवित्र करना, और उन्हें अपने वस्त्र धोने देना। वे तीसरे दिन तक तैयार हो जाएँ, क्‍योंकि तीसरे दिन यहोवा सब लोगों के देखते-देखते सिने पर्वत पर उतर आएगा।” इन मध्यवर्ती दिनों में सभी को परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत होने के लिये विधिवत तैयारी में समय व्यतीत करना था। उनके वस्त्र और व्यक्तित्व अशुद्धता से मुक्त होना था। जब मूसा उन्हे उनके पापों से अवगत कराए, तो उन्हें प्रार्थना, उपवास और विनीतता को समर्पित होकर अपने हृदयों से अधर्म को दूर करना था।PPHin 302.5

    आज्ञानुसार तैयारियाँ की गई और अगले आदेश का पालन करते हुए मूसा ने पहाड़ के चारों ओर बाढ़ा बाँधा, ताकि चाहे मनुष्य हो या पशु कोई भी सीमा लॉघकर उस पवित्र स्थान पर नहीं आए। जो कोई भी पहाड़ को छुए वह निश्चय ही मार डाला जाता। PPHin 303.1

    तीसरे दिन भोर होने पर जब सब लोगों की आँखें पर्वत की ओर थी, पर्वत शिखर एक घने बादल ने ढक गया और बादल स्याह और घना होता गया जो तब तक नीचे उतरता रहा जब तक पूरा पर्वत अन्धकार और भयावह रहस्य में लिपट गया। फिर तुरही का स्वर सुनाई दिया जो लोगों को परमेश्वर से मिलने को बुला रहा था, और मूसा उन्हें पर्वत की सीमा पर ले गया। गहरे अन्धकार में से बिजलियाँ चमक रही थी, औरबादलों का गर्जन आस-पास के पहाड़ो में गूंज रहा था। “और यहोवा जो आग में होकर सिने पर्वत पर उतारा था, इस कारण समस्त पर्वत धुएँ से भर गया, और उसका धुंआँ भट्ठे का सा उठ रहा था, और समस्त पर्वत बहुत काँप रहा था।” “इज़राइलियों की दृष्टि में यहोवा का तेज पर्वत की चोटी पर प्रचण्ड आग के समान दिखाई पड़ता था।” और, “तुरही का शब्द देर तक सुनाई देता रहा, और तेज होता गया।” यहोवा की उपस्थिति के प्रतीक इतने प्रभावशाली थे कि इज़राली डर से काँप उठे, और प्रभु के सम्मुख अपने मुँह क बल गिर पड़े। यहां तक कि मूसा भी बोल उठा, “मैं बहुत डर गया हूँ और कॉप रहा हूँ। - इब्रानियों 12:21PPHin 303.2

    अब गड़गड़हाट थम गई, तुरही का शब्द अब सुनाई नहीं दे रहा था, पृथ्वी भी स्थिर हो गई थी। इस समय सन्नाटा छा गया, और फिर परमेश्वर का शब्द सुनाई दिया। घने बादल के बीच से बोलते हुए, जब वह पर्वत पर स्वर्गदूतों के समूह से घिरा हुआ खड़ा था, परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था को प्रकट किया। इस दृश्य का वर्णन करते हुए मूसा कहता है, “यहोवा सिने से आया, और सेईर से उनके लिये उदय हुआ, उसने पारान पर्वत पर से अपना तेज दिखाया और लाखों पवित्रों के मध्य में से आया, उसके दाहिने हाथ से उनके लिये ज्वालामय विधियाँ निकली। वह निश्चय ही देश-देश के लोगों से प्रेम करता है, उसके सब पवित्र लोग तेरे हाथ में है, ये तेरे पाँवों के पास बैठे रहते हैं, हर एक तेरे वचनों से लाभ उठाता है।” व्यवस्था विवरण 33:2,3PPHin 303.3

    यहोवा ने स्वयं को केवल विधि-निर्माता और न्यायाधीश की महिमामयी तेजस्विता में ही नहीं, वरन्‌ अपने लोगों के दयावान अभिभावक के रूप में भी प्रकट किया, “मैं तेरा परमेश्वर यहोवा हूँ जो तुझे दासत्व के घर अर्थात मिस्र देशसे निकालकर आया है।” वह जिसको वे पहले से ही मार्गदर्शक और मुक्तिदाता के रूप में जानते थे, जो उनके लिये समुद्र के बीच से रास्ता निकाल कर, फिरौन और उसकी सेना को हराकर, मिस्र से निकाल कर लाया था, जिसने स्वयं को मिस्र के सभी देवी-देवताओं से उच्चतर प्रमाणित किया था - वही था जिसने अब अपनी व्यवस्था का उच्चारण किया।PPHin 304.1

    व्यवस्था, इस समय केवल इब्रियों के लाभ के लिये ही नहीं बताई गई । परमेश्वर ने उन्हें उसकी व्यवस्था के रक्षक और अभिभावक बनाकर उनका सम्मान किया, लेकिन उसे सम्पूर्ण जगत के लिये पवित्र कार्यभार जैसे माना जाना चाहिये। दस नियमों के सिद्धान्त सारी मानवता के अनुकल है और वे सभी के संचालन और निर्देशन के लिये दिए गए थे। आधिकारिक, व्यापक व संक्षिप्त दस नियम मनुष्य के परमेश्वर और अन्य लोगों के प्रति कर्तव्य की व्याख्या करते है और सभी प्रेम के महान मौलिक सिद्धान्त पर आधारित है, “तू प्रभु अपने परमेश्वर अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख और अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम रख’-लूका 10:27 [दस आज्ञाओं में इन सिद्धान्तों को विस्तार से कार्यान्वित किया जाता है और मनुष्य की अवस्था और परिस्थितियों के अनुकूल बनाए गए हैं।PPHin 304.2

    “तू मुझे छोड़ दूसरों को ईश्वर करके न मानना ।’’PPHin 304.3

    यहोवा जो, सनातन, आत्म-विद्यमान, जिसे सृजा नहीं गया, जो स्वयं सबका स्रोत ओर पोषक है, वही अकेला आदर और भक्ति का हकदार है। अपने कार्यों या अपने सम्बन्धों में परमेश्वर को छोड़ और किसी चीज को पहला स्थान देने की मनाही है। जो भीहम संजोए रखते हैं, वह परमेश्वर के लिये हमारे प्रेम को कम करने या उसकी भक्ति में हस्तक्षेप करने की प्रवृति रखता है, क्योंकि वही हमारे लिये ईश्वर बन जाता है। PPHin 304.4

    “तू अपने लिये कोई मूर्ति खोदकर न बनाना, न किसी की प्रतिमा बनाना, जो आकाश में या पृथ्वी पर, या जल में है। तू उनको दण्डवत न करना, और न उनकी उपासना करना।”PPHin 305.1

    दूसरी आज्ञा प्रतिभाओं या प्रतिरूपों के माध्यम से सच्चे परमेश्वर की आराधना की मनाही करती है। कई मूर्तिपूजक जातियों ने दावा किया कि उनकी मूर्तियाँ केवल आकार या चिन्ह थे जिनके द्वारा ईश्वर की आराधना की जाती थी, लेकिन परमेश्वर ने ऐसी आराधना को पाप घोषित किया है। सनातन परमेश्वर की सांसारिक वस्तुओं के द्वारा निरूपण करने से मनुष्य की परमेश्वर के बारे में धारणा अपकृष्ट हो जाएगी। यहोवा की अनन्त सर्वत्कृष्टता से हटकर मन सृष्टिकर्ता के बजाय सृष्टि के प्रति आकर्षित हो जाएगा। परमेश्वर के बारे में विचारों के घटने से मनुष्य का स्तर भी गिरता जाएगा। PPHin 305.2

    “में तेरा परमेश्वर यहोवा जलन रखने वाला परमेश्वर हूँ।” विवाह के रूप में परमेश्वर का उसके लोगों के साथ घनिष्ठ और पवित्र सम्बन्ध का प्रतीक है। क्योंकि मूर्तिपूजा आध्यात्मिक व्यभिचार है, परमेश्वर की इसके प्रति अप्रसन्‍नता को जलन कहना उचित है।PPHin 305.3

    “जो मुझसे बैर रखते हैं, उनके बेटों, पोतों, और परपोतों को भी पितरों का दण्ड दिया करता हूँ।” माता-पिता के गलत कायौ के कारण उनकी सन्तान को कष्ट अवश्य उठाना पड़ताहै, लेकिन यदि वे उनके पापों में भाग नहीं लेते तो उन्हें अपने माता-पिता के अपराधों के लिये दण्डित नहीं किया जाता है। लेकिन ऐसा होता है कि बच्चे अपने माता-पिता के कदमों पर चलते है। मीरास और उदाहरण से पुत्र अपने पिता के पापों के भागीदार हो जाते है। विक॒त प्रवृतियाँ, विक॒त रूचियाँ, भ्रष्ट नैतिकता और शारीरिक बीमारियाँ व पतन पिता से पुत्र में धरोहर की तरह, तीसरी और चौथी पीढ़ी तक संचारित हो जाते है। इस भयावह सत्य में वह शक्ति अवश्य है जो मनुष्य को पाप के मार्ग पर चलने से रोकती है। PPHin 306.1

    “जो मुझ से प्रेम रखते है और मेरी आज्ञाओं को मानते है, उन हजारों पर में करूणा किया करता हूँ।” देवी-देवताओं की आराधना की मनाही में, दूसरी आज्ञा सच्चे परमेश्वर की आराधना का आदेश देती है।जो भक्ति में उसके प्रति निष्ठावान है उन्हें तीसरी और चौथी पीढ़ी तक ही नहीं, वरन हजारों पीढ़ियों तक, अनुग्रह का आश्वासन है लेकिन उसका तिरस्कार करने वालों कोतीसरी और चौथी पीढ़ी तक उसके कोप की चेतावनी दी जाती है। PPHin 306.2

    “त्‌ अपने परमेश्वर का नाम व्यर्थ न लेना, क्‍योंकि जो यहोवा का नाम व्यर्थ ले वह उसको निर्दोष न ठहराएगा।” PPHin 306.3

    यह आज्ञा न केवल झूठी शपथों और सामान्य सौगन्धों पर रोक लगाती है, वरन्‌ परमेश्वर का नाम, सहजता या लापरवाही से, उसकी उत्कृष्ट महत्ता के अनादर के साथ लेने की भी मनाही करता है। सामान्य वार्तालाप में परमेश्वर के अचेत उल्लेख से, साधारण विषयों से सम्बन्धित याचनाओं से, और उसके नाम को बार-बार विचारहीनता से लेने में, हम उसका निरादार करते है। “उसका नाम पवित्र और भययोग्य है”-भजन संहिता 111:9। सभी को उसके गौरव शुद्धता और पवित्रता पर मनन करना चाहिये, जिससे कि उसके उत्कृष्ट चरित्र में उनका हृदय प्रभावित हो, और उसका नाम अत्यन्त आदर और संजीदगी से लेना चाहिये। PPHin 306.4

    “तू विश्राम को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखना। छः: दिन तो तू परिश्रम करके अपना सब काम काज करना, परन्तु सातवाँ दिन तेरे परमेश्वर यहोवा के लिये विश्रामदिन है। उसमें न तो तू किसी भांति का काम-काज करना, और न तेरा बेटा, न तेरी बेटी, न तेरा दास, न तेरी दासी, ने तेरे पशु, न कोई परदेशी, जो तेरे घर में हो, क्योंकि छः दिन में यहोवा ने आकाश, पृथ्वी और समुद्र, और जो कुछ उनमें है, सबको बनाया और सातवें दिन विश्राम किया, इस कारण यहोवा ने विश्रामदिन को आशीष दी और उसको पवित्र ठहराया।”PPHin 306.5

    विश्राम दिन या सबत का एक नई व्यवस्था की तरह नहीं वरन्‌ सृष्टि के समय संस्थापित की गईं संस्था के रूप में परिचय कराया गया है। इसे सृष्टिकर्ता के कार्य के स्मारक के रूप में स्मरण रखना है और इसका पालन करना है। परमेश्वर की ओर प्थ्वी और आकाश के रचयिता होने का संकेत करते हुए, वह उसे अन्य देवी-देवताओं से अलग सच्चे परमेश्वर की विशिष्टता प्रदान करता है। जो भी विश्राम दिन को विधिवत मानते है वे यह दर्शाते हैं कि वे यहोवा के उपासक हैं। इस प्रकार जब तक इस पृथ्वी पर उसकी भक्ति करने वाले हैं तब तक विश्राम दिन परमेश्वर के प्रति मनुष्य की स्वामिभक्ति का चिन्ह है। दसों आज्ञाओं में से केवल चौथी आज्ञा में नियम बनाने वाले का नाम और पदवी दोनों पाए जाते हैं। यही एक आज्ञा है जो यह बताती है कि व्यवस्था किसके अधिकार से दी गईं है। इस प्रकार उसकी विश्वसनीयता और बन्धन्कारी शक्ति के प्रमाण के तौर पर उसकी व्यवस्थाके साथ उसकी महुर भी संबद्ध है। PPHin 306.6

    परमेश्वर ने मनुष्य को श्रम करने के लिये छ: दिन दिये हैं और वह चाहता है कि मनुष्य अपने निजी कार्य छः काम-काजी दिनों में सम्पन्न करे। विश्राम-दिन के दौरान आवश्यकता व दया के काम करने की अनुमति है, रोगियों और पीड़ितों की हर समय देखभाल करनी चाहिये, लेकिन अनावश्यक कार्यों को टाल देना चाहिये। यगरायाह 58:13 में लिखा है, “यदि तू विश्रामदिन को अशुद्ध न करे अर्थात मेरे उस पवित्र दिन में अपनी इच्छा पूरी करने का यत्न न करें, और विश्रामदिन को आनन्द का दिन और यहोवा का पवित्र किया हुआ दिन समझकर माने, यदि तू उसका सम्मान करके उस दिन अपने मार्ग पर न चले, अपनी इच्छा पूरी न करे”...और निषेधाज्ञा यहीं समाप्त नहीं होती, “और अपनी ही बाते न बोले” नबी कहता है। जो लोग सबत के दिन व्यापारिक विषयों पर चर्चा करते है या योजनाएं बनाते हैं, उन्हें परमेश्वर व्यापार के वास्तविक लेन-देन में व्यस्त ही मानता है। विश्राम दिन को पवित्र रखने के लिये, हमें अपने मन सांसारिक वर्ग की वस्तुओं में नहीं लगाना चाहिये। और यह आज्ञा हमारे फाटकों के भीतर सब कुछ को सम्मिलित करता है। घर के सदस्यों को पवित्र घड़ियों के दौरान अपने सांसारिक किया-कलापों को अलग रख देना चाहिये। इस पवित्र दिन पर सभी को सहर्ष भक्ति द्वारा एकजुट होकर परमेश्वर की महिमा करनी चाहिये। PPHin 307.1

    “तू अपने पिता और अपनी माता का आदर करना, जिससे जो देश तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे देता है, उसमें तू बहुत दिन तक रहने पाए।”PPHin 307.2

    माता-पिता की एक सीमा तक प्रेम और आदर पाने का अधिकार है, जिसपर और किसी का अधिकार नहीं। उनके सुपुर्द किये गएबच्चों का उत्तरदायित्व परमेश्वर ने स्वयं उन पर डाला है और यह उसी का आदेश है कि अपने बच्चों की बाल्यवस्था में वे उनके लिये परमेश्वर के स्थान पर खड़े रहे । जो अपने मां-बाप की यथोचित अधिकार की उपेक्षा करता है, वह परमेश्वर के प्रभुत्त का तिरस्कार करता है। पांचवी आज्ञा के अनुसार बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति विनम्रतापूर्ण, आज्ञाकारी और आदरपूर्ण होना चाहिये। इसके अतिरिक्त उनके साथ प्रेम और नग्रता से व्यवहार करना चाहिये, उनके बोझ को हल्का करना चाहिये, उनकी प्रतिष्ठा को सुरक्षा करनी चाहिये और उनकी वृद्धावस्था में उन्हें सहायता और सान्‍्तवना देनी चाहिये। इसके अलावा उन्हें शासकों और धर्माध्यक्षों और उन सब का, जिन्हें परमेश्वर ने अधिकार दिया है, आदर करना चाहिये।PPHin 307.3

    इफिसियों 6:2 में प्रेरित कहता है, “यह पहली आज्ञा है जिसके साथ प्रतिज्ञा भी है।” इज़राइल के लिये, जो कनान में जल्द ही प्रवेश करने वाला था, यह आज्ञाकारी लोगों के लिये उस समृद्ध देश में चिरआयु के लिये शपथ थी, लेकिन परमेश्वर के सम्पूर्ण इज़राइल के लिये इसका अभिप्राय विस्तृत है और वह पाप-मुक्त पृथ्वी पर अनन्त जीवन का आश्वासन देता है। PPHin 308.1

    “तू खून न कर।”PPHin 308.2

    अन्याय के वे सारे कृत्य जो जीवनकाल को घटाने के प्रवृति रखते है, घृणा और प्रतिशोध की भावना, ऐसा कोई भी आवेग जो दूसरों के प्रति हानिकारक कृत्यों को उकसाता है, या हमें दूसरों के अनष्ठि की इच्छा को जागृत करता है। (जो अपने भाई से घृणा करे, वह हत्यारा है) दरिद्रों और पीड़ितों की उपेक्षा, अतिभोग या अनावश्यक अभाव या अत्यधिक श्रम जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो- यह सब, कम या अधिक छठी आज्ञा का उल्लंघन है। PPHin 308.3

    “तू व्यभिचार न कर।”PPHin 308.4

    यह आज्ञा ना केवल अशुद्धता के क॒त्यों की, वरन्‌ उत्तेजना उत्पन्न करने वाले विचारों और अभिलाषाओं की, या कोई भी ऐसा काम जो उन्हें उत्तेजित करे, उनकी मनाही करता है। पवित्रता केवल बाहरी जीवन में ही नहीं, वरन्‌ हृदय के गुप्त प्रयोजनों और भावनाओं में भी होनी चाहिये। जिसने परमेश्वर की व्यवस्था की व्यापक प्रतिबद्धता के बारे में सिखाया, उसी मसीह ने घोषणा कि कि कृदृष्टि या बुरे विचार भी गैर कानूनी काम के समान पाप ही है। PPHin 308.5

    “तू चोरी न कर”PPHin 308.6

    इस निषेधाज्ञा में सार्वजनिक पाप व निजी पाप दोनों ही सम्मिलित हैं। आठवीं आज्ञा मनुष्य की चोरी और दासों के व्यापार को दोषी ठहराती है और दूसरे देशों की जीतने के लिये युद्ध करने की मनाही करती है। यह चोरी और डकैती की निंदा करती है। यह जीवन की गतिविधियों की छोटी से छोटी विशेषता में सम्पूर्ण समग्रता की माँग करती है। यह व्यापार में ठगी की मनाही करती है और न्यायसंगत ऋण और वेतन की अदायगी की अपेक्षा करती है। यह आज्ञा यह घोषणा करती है कि स्वयं के लाभ के लिये दूसरे की अज्ञानता, दुर्बलता या दुर्भाग्य का लाभ उठाना, स्वर्ग की पुस्तकों में धोखाधड़ी के नाम से पंजीकत है।PPHin 308.7

    “तू किसी के विरूद्ध झूठी साक्षी न देना।”PPHin 309.1

    किसी भी विषय में झूठ बोलना, अपने पड़ोसी को धोखा देने का उद्देश्य या प्रयत्न, इसमें सम्मिलित है। धोखा देने का ध्येय अधर्म को संगठित करता है। आँख की सरसरी नजर से, हाथ के संकेत से, मुखाकृति के भाव से झूठ को सत्य जैसे ही प्रभावशाली ढंग से कहा जा सकता है। सभीसाभिप्राय सुविचारित कथन, अतिश्योक्तिपूर्ण व भ्रमात्मक प्रभाव को व्यक्त करने के लिये सुनियोजित कटाक्ष या संकेत, यहां तक कि पथशभ्रष्ट करने के उद्देश्य से तथ्यों का वर्णन भी अधर्म है। यह सिद्धान्त हमें हानिकारक सन्देह या मिथ्या प्रस्तुति, लाँछन या गप-शप अपने पड़ोसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने के प्रयत्न की भी मनाही करता है। सत्य को सुविचारित रूप से दबाना, जिससे दूसरे को ठेस पहुँचे, नवीं आज्ञा का उल्लंघन है। PPHin 309.2

    “त्‌ किसी के घर का लालच न करना, न तो किसी की स्त्री का लालच करना और न किसी के दास या बैल गधे का, न किसी को किसी वस्तु का लालच करना।”PPHin 309.3

    दसवीं आज्ञा, स्वार्थी मनोकामनापर, जहां से पापमय कृत्य उत्पन्न होता है, रोक लगाते हुए पाप की जड़ पर ही प्रहार करती है। जो दूसरों का है उसके लिये पापमय अभिलाषा रखने पर, परमेश्वर की आज्ञा को मानते हुए, रोक लगा लेता है, वह अपने सह-प्राणियों के साथ गलत काम करने का अपराधी न होगा।PPHin 309.4

    महान नियम बनाने वाले के गौरव और सामर्थ्य के आश्चर्यजनक प्रदर्शन के साथ आग और आग की लपटों के बीच से बोले गए दस आज्ञाओं के पवित्र सिद्धान्तों का यह वर्णन है। परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था के साथ अपनी महिमा और सामर्थ्य का प्रदर्शन इसलिये किया ताकि लोग इस दृश्य को कभी नहीं भूले, और नियम के लेखक के प्रथ्वी और आकाश के सृष्टिकर्ता से प्रभावित हो। वह सभी मनुष्यों को अपनी व्यवस्था की पवित्रता, महत्ता और स्थायित्व को दिखाना चाहता था।PPHin 309.5

    इज़राइली भय से भर गए। परमेश्वर के कथनों की विस्मयकारी शक्ति उनके कांपते हृदयों की सहनशक्ति से बाहर थी। जब उसके सम्मुख परमेश्वर के सत्य-आधारितसंचालन को प्रस्तुत किया गया तो उन्हें पाप के हानिकारक स्वभाव और पवित्र परमेश्वर की दृष्टि में उनके निजी दोष का आभास हुआ, जैसा पहले कभी न हुआ था। श्रद्धा और भय से वे पर्वत से पीछे हट गए।PPHin 310.1

    उन्होंने मूसा से कहा, “तू ही हम से बातें कर, तब तो हम सुन सकेंगे, परन्तु परमेश्वर हम से बातें न करे, ऐसा न हो कि हम मर जाएँ ।” मूसा ने लोगों से कहा, “डरो मत, क्योंकि परमेश्वर इसलिये आया है कि तुम्हारी परीक्षा करे, और उसका भय तुम्हारे मन में बना रहे कि तुम पाप न करो।” लेकिन लोग दृश्य को भयभीत होकर निहारते हुए दूर ही खड़े रहे, परन्तु मूसा “उस घोर अन्धकार के समीप गया जहाँ परमेश्वर था।”PPHin 310.2

    लोगों के मन जो अधर्म और दासत्व से पतित और अँधे हो गएथे ,परमेश्वर की दस आज्ञाओं के व्यापक सिद्धान्तों कोपूर्ण रूप से मान्यता देने को तैयार नहीं थे। दस आज्ञाओं के सिद्धान्तों के उदाहरण और प्रयोग देते हुए अतिरिक्त सिद्धान्त भी दिये गए जिससे दस आज्ञाओं की प्रतिबद्धता पूरी तरह समझी जा सके और लोगोंपर लागू की जा सके। इन नियमों को दण्डाज्ञा कहा गया क्‍योंकि इनका आधार अनन्त बुद्धिमता और न्याय था और न्यायियों को इनके अनुसार न्याय करना था। दस आज्ञाओं के विपरीत, येमूसा को व्यक्तिगत रूप से दिये गये और उसे इन्हें लोगों तक पहुँचाना था।PPHin 310.3

    इनमें से पहला नियम दासों से सम्बन्धित था। प्राचीन काल में कभी-कभी न्यायियों द्वारा अपराधियों को दास्तव में बेच दिया जाता था, कुछ एक मामलों में ऋणियों को उनके साहूकारों को बेच दिया जाता था, और गरीबी के कारण लोग स्वयं को या अपने बच्चों को बेच दिया करते थे। लेकिन एक इब्री को जीवन भर के लिये दास के तौर पर नहीं बेचा जा सकता था। उसकी सेवा की अवधि छः वर्षों के लिये सीमित थी ।सातवें वर्ष उसे स्वतन्त्र किया जाना था। मनुष्यों की चोरी, सुविचारित हत्या, और माता-पिता की आज्ञाओं का विरोध करने पर मृत्यु दण्ड प्राप्त होना था। जिन दासों का जन्म इज़राइली नहीं था उन्हें दास बनाए रखने की आज्ञा थी, लेकिन उनका जीवन और अस्तित्व पूर्णतया सुरक्षित थे। यदि उसे दाँत टूटने जितनी भी, अपने स्वामी द्वारा चोट पहुँचायी जाती तो वह स्वतन्त्रता का हकदार था।PPHin 310.4

    इज़राइली स्वयं अभी तक दास रहे थे, अब जब उनके अधीन दासों को रहना था, तो अपनी मिस्री स्वामियों के अधीनस्थ होने के समय जिस निर्दयता और बेगारी को उन्होंने सहन किया था, उससे उन्हें सावधान रहना था। उनके दासत्व के कड़वे अनुभव की समृति से उन्हें स्वयं को अपने दास के स्थान पर रखने के योग्य बनाना था, जिससे वे संवेदनशील व दयालु बन सके और दूसरों के साथ ऐसा हो व्यवहार कर सके, जैसा कि वे स्वयं के साथ चाहते है।PPHin 311.1

    विधवाओं और अनाथों के अधिकारों का विशेषकर ध्यान रखा गया और उनकी असहाय अवस्था के बारे में यह विनम्र घोषणा की गयी, “यदि तुम ऐसों को किसी प्रकार का दुख दो और वे मेरी दुहाई दें, तो मैं निश्चय उनकी दुहाई सुन्नंगा, तब मेरा कोध भड़केगा, और मैं तुमको तलवार से मरवाऊँगा, और तुम्हारी पत्नियां विधवा और तुम्हारे बालक अनाथ हो जाएंगे। “जो परदेशी इज़राइल के साथ जुड़ गए थ.उन्हें उत्पीड़न व अन्याय से बचाया जाना था। “तुम परदेशी को न सताना और न उस पर अंधेर करना, क्‍योंकि मिस्र देश में तुम भी परदेशी थे।PPHin 311.2

    दरिद्रों से अत्यधिक ब्याज दर लेना मना था। एक निर्धन मनुष्य का प्रतिज्ञा के तौर पर लिया गया वस्त्र या कम्बल, सूर्यास्त तक उसे लौटा देना होता था। चोरी करने में दोषी पाए गए व्यक्ति को दोगुना वापस करना था। इसके अतिरिक्‍त न्यायियों और शासकों का सम्मान करना था और न्यायियों को दण्ड की आज्ञा को विकृत करने, झूठे कार्य का समर्थन करने और रिश्वत लेने के प्रति चेतावनी दी गई। झूठे आरोप लगाने और मानहानि पहुँचाने की मनाही थी और निजी शत्रुओं के प्रति भी दयालुतापूर्ण व्यवहार करने का आदेश था।PPHin 311.3

    फिर से लोगों को विश्राम दिन के पवित्र कर्तव्य का स्मरण कराया गया। वार्षिक पर्वों का प्रयोजन रखा गया, जब राज्य के सभी लोगों को प्रभु के सम्मुख, अपने खेतों की पहली उपज का पहला भाग और धन्यवाद की भेंटो सहित, इकटठा होना था। इन सभी विधियों का उद्देश्य बताया गया था: यह मात्र एकपक्षीय सार्वभौमिकता के अभ्यास से उत्पन्न नहीं हुए थे; इन्हें इज़राइल की भलाई के लिये दिया गया था। प्रभु ने कहा, “तुम मेरे लिये पवित्र बने रहना’- पवित्र परमेश्वर द्वारा स्वीकार किये जाने योग्य।PPHin 311.4

    इन आज्ञाओं को लिपिबद्ध करने का दायित्व मूसा पर था और इज़राइल को दी गई परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं के सम्पूर्ण होने के प्रतिबन्ध वे दस सिद्धान्तों के साथ जिन्हें उदाहरण के तौर पर दिया गया था, इन्हें राष्ट्रीय व्यवस्था की नींव की तरह ध्यानपूर्वक संजो कर रखना था।PPHin 312.1

    अब उन्हें यहोवा की ओर से सन्देश दिया गया, “सुन, मैं एक दूत तेरे आगे-आगे भेजता हूँ जो मार्ग में तेरी रक्षा करेगा, और जिस स्थान को मैंने तेयार किया है उसमें तुझे पहुँचाएगा। उसके सामने सावधान रहना और उसकी मानना, उसका विरोध न करना, क्योंकि वह तुम्हारा अपराध क्षमा न करेगा, इसलिये कि उसमें मेरा नाम रहता है। यदि तू सचमुच उसकी माने और जो कुछ मैं कहूँ वह करे, तो मैं तेरे शत्रुओं का शत्रु और तेरे द्रोहियों का द्रोही बनूँगा। इज़राइल के सम्पूर्ण भ्रमण के दोरान, बादल और आग के स्तम्भ के रुप में मसीह उनका मार्गदर्शक था।हालाँकि आने वाले उद्धारकर्ता की ओर संकेत करते हुए प्रतिरूप थे, लेकिन एक उपस्थित उद्धारकर्ता भी था जो लोगों के लिये मूसा को आज्ञा देता था और जिसे उनके सम्मुख आशीर्वाद के एकमात्र माध्यम के रूप में रखा गया था।PPHin 312.2

    पहाड़ से उतरने पर, “मूसा ने लोगों के पास जाकर यहोवा की सब बातें और सब नियम सुना दिए। तब सब लोग एक स्वर में बोल उठे, “जितनी बातें यहोवा ने कहीं है उन सब बातों को हम मानेंगे।” यह प्रतिज्ञा और परमेश्वर के वे कथन जिनका पालन करने को इस प्रतिज्ञा ने उनको विवश किया, मूसा द्वारा एक पुस्तक में लिखी गई। इसके बाद वाचा का सत्यापन किया गया। पहाड़ की तराई में एक वेदी स्थापित की गई, और उसके पास ही ‘इज़राइल के बारह गोत्रों के अनुसार’ बारह खम्भे भी खड़े किये गए जो वाचा का उनके द्वारा स्वीकृत होने के साक्षी थे। फिर इस विधि के लिये नियुक्त नौजवानों ने होमबलि औरमेलबलि चढ़ाई। PPHin 312.3

    बलि के लहू को वेदी पर छिड़कने के बाद, मूसा ने “वाचा की पुस्तक को लेकर लोगों को पढ़कर सुनाया ।” इस प्रकार वाचा के प्रतिबन्धों को संजीदगी से दोहराया गया, और उनसे सहमत होने की या ना होने की सबको स्वतन्त्रता थी। प्रारम्भ में उन्होंने परमेश्वर के वचन का पालन करने की प्रतीज्ञा की थी, लेकिन उसकी व्यवस्था की घोषणा उन्होंने अभी सुनी थी, और उसके सिद्धांतों का विस्तृत विवरण किया गया ताकि उन्हें ज्ञात हो सके कि उसमें बहुत कुछ अंतनिहित है। फिर से लोगों ने एक स्वर में कहा, “जो कुछ यहोवा ने कहा है उस सब को हम करेंगे और उसकी आज्ञा मानेंगे ।” “जब मूसा सब लोगों को व्यवस्था की हर एक आज्ञा सुना चुका तो उसने बछड़ो और बकरों का लहूलेकर, उस पुस्तक पर और सब लोगों पर छिड़क दिया और कहा, “यह उस वाचा का लहू है, जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने तुम्हारे लिये दी है।” इब्रानियों 9:19,20PPHin 312.4

    अब यहोवा के राजत्व में चुने हुए राज्य की सम्पूर्ण स्थापना का प्रबन्ध करना था। मूसा को आदेश मिला, “तू हारून, नादाब, अबीहू और इज़राइलियों से दण्डवत करना। केवल मूसा यहोवा के समीप आए।” लोगों ने तराई में आराधना की और इन चुने हुए पुरूषों को पहाड़ पर बुलाया गया। उन सत्तर पुरनियों को इज़राइल के शासन में मूसा का सहयोग करना था और परमेश्वर ने उन पर अपना आत्मा उँडेला और उन्हें अपनी महानता और शक्ति का दर्शन दिखाकर सम्मानित किया। “उन्होंने इज़राइल के परमेश्वर कादर्शन किया और उसके चरणों तले नीलमणि का चबूतरा सा कुछ था, जो आकाश के तुल्य ही स्वच्छ था।” उन्होंने ईश्वर को तो नहीं देखा, लेकिन उसकी उपस्थिति की महिमा देखी। इससे पहले वे इस तरह के दृश्य को सहन नहीं कर सकते थे, लेकिन परमेश्वर की शक्ति के प्रदर्शन के परिणामस्वरूप श्रद्धापूर्ण भय ने उन्हें पश्चताप के लिये विवश कर दिया। वे उसकी महिमा, पवित्रता और दया पर मनन-चिंतन करते रहे थे, जब तक कि उन्होंने उसका सामीप्य न पा लिया, जो उनके चिंतन का विषय था। मूसा और “उसके सेवक यहोशू” को परमेश्वर से भेंट करने के लिये बुलाया गया। और क्योंकि कुछ समय वे अनुपस्थित होने वाले थे,हारून और हूर और उनकी सहायता के लियेपुरनियों कोनियुक्त किया ।’ तब मूसा पहाड़ पर चढ़ गया, और बादल ने पहाड़ को ढॉक दिया और “यहोवा के तेज ने सीने पर्वत पर निवास किया।” छः दिनो तक परमेश्वर की विशेष उपस्थिति के प्रतीक के रूप में बादल पहाड़ पर छाया रहा, लेकिन उसके या उसकी इच्छा के सम्पर्क का कोई प्रकटन नहीं हुआ। इस दौरान मूसा सर्वोच्च के उपस्थिति कक्ष में बुलाए जाने की प्रतीक्षा करता रहा। उसे निर्देशित किया गया था, “पहाड़ पर मेरे पास चढ़ आ, और वहीं रह,'और यद्यपि उसके धैर्य और आज्ञाकारिता की परख हो रही थी, वह सतक॑ रहते हुए थका नहीं और न ही अपने पद को छोड़ा। प्रतीक्षा की यह अवधि उसके लिये तैयार का और गहन आत्म-निरीक्षण का समय था। परमेश्वर का यह कृपा-दृष्टि प्राप्त सेवक भी एकदम से उसकी उपस्थिति में नहीं जा सकता था और ना ही उसकी महिमा के प्रदर्शन को सहन कर सकता था। अपने सृष्टिकर्ता के साथ प्रत्यक्ष संपर्क के लिये तैयार होने से पूर्व उसे प्रार्थना, ध्यान और आत्म विशलेषण के द्वारा छः दिन तक स्वयं को परमेश्वर को समर्पित करना था।PPHin 313.1

    सातवें दिन, जो कि सबत का दिन था, मूसा को बादलों में बुलाया गया। इज़राइलियों की दृष्टि में घना बादल छितर गया और यहोवा का तेज प्रचण्ड आग के समान दिखाई दिया। “तब मूसा बादल के बीच में प्रवेश करके पर्वत पर चढ़ गया। और मूसा पर्वत पर चालीस दिन और चालीस रात रहा।” चालीस दिन के इस वास में तैयारी के छः दिन सम्मिलित नहीं थे। छः दिनों तक यहोशूमूसा के साथ थाऔर उन्होंने मिलकर मन्‍ना का सेवन किया और “उस नदी से जो पर्वत से निकलकर नीचे बहती थी” पानी पिया। लेकिन यहोशू ने मूसा के साथ बादल में प्रवेश नहीं किया। वह बादल के बाहर ही रहा और मूसा के लौटने की प्रतीक्षा के दौरान भोज-पान करता रहा, लेकिन मूसा ने पूरे चालीस दिनों तक उपवास रखा।PPHin 314.1

    पहाड़ पर रहते हुए मूसा ने ईश्वरीय उपस्थिति विशेष प्रकटन हेतु मन्दिर के निर्माण के लिये निर्देश प्राप्त किये। “और वे मेरे एक पवित्र स्थान बनाएं कि में उनके बीच निवास करूँ”-निर्गमन 25:8 ।यह परमेश्वर की आज्ञा थी। तीसरी बार विश्राम दिन के पालन की आज्ञा बताई गई, “क्योंकि मेरे और तुम लोगों के बीच यह बात जान रखो कि यहोवा हमें पवित्र करने वाला है। इस कारण तुम विश्रामदिन को मानना, क्योंकि वह तुम्हारे लिये पवित्र ठहरा है, इसलिये जो कोई विश्राम के दिन में काम-काज करेगा, वह निश्चय मार डाला जाएगा।” निर्गमन 31:17PPHin 314.2

    परमेश्वर की आराधना के लिये अस्थाई उपासनाग्रह के तत्काल निर्माण के लिये निर्देश दे दिये गए थे और अब लोग इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते थे कि जो लक्ष्य दृष्टि में था,वह परमेश्वर की महिमा थी, और आराधना के लिये स्थान की आवश्यकता के कारण उनका विश्राम दिन के दौरान निर्माण कार्य करना न्यायोचित था। उन्हें यह गलती करने से रोकने के लिये चेतावनी दी गई। परमेश्वर के इस विशेष कार्य की पवित्रता और अत्यावश्यकता के कारण से भी उसके पवित्र विश्राम दिन का उललंधन नहीं होना चाहिये।PPHin 314.3

    अब के बाद लोगों को उनके राजा की स्थायी उपस्थिति से सम्मानित किया जाना था, “और में इज़राइलियों के मध्य निवास करूंगा और उनका परमेश्वर ठहरूगा।” “और वह तम्बू मेरे तेज से पवित्र किया जाएगा”-निर्गमन 29:45,43; यह आश्वासन मूसा को दिया गया। परमेश्वर की इच्छा के अवतार और परमेश्वर के अधिकार के प्रतीक के रूप में मूसा को दस आज्ञाओं की एक प्रति दी गई जो पत्थर की दो पटियों पर परमेश्वर ने स्वयं अपने हाथों से अंकित किया था। (व्यवस्थाविवरण 9:10, निर्गमन 32:15,16)३न्‍नहें उसपवितन्रस्थान में सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठापित करना था,जिसे निर्माण होने पर राज्य द्वारा आराधना करने के लिये सदृश स्थान होना था।PPHin 315.1

    दासों के वर्ग से इज़राइलियों को अन्य सब जातियों से ऊपर उठाया गया था ताकि वे राजाओं के राजा की विशेष निधि ठहरें। परमेश्वर ने उन्हें संसार से अलग किया था ताकि वह उन्हें एक पवित्र प्रभार सौंप सके। उसने उन्हें अपनी व्यवस्था का संग्रहस्थान बनाया और उसका उद्देश्य था कि उनके द्वारा वह मनुष्यों में स्वयं के ज्ञान को सरंक्षित रखे। इस प्रकार अन्धकार से आवृत जगत पर स्वर्ग के प्रकाश को फैलना था और लोगों को मूर्तिपूुजा को पीठ दिखाकर जीवित परमेश्वर की आराधना के लिये निवेदन करती आवाज को सुना जाना था। अपने विश्वास में सच्चे होने पर इज़राइलियों की जगत में एक शक्ति बनने की सम्भावना थी। परमेश्वर उनका बचाव होता और उन्हें सब अन्य जातियों से ऊपर उठाता। उनके माध्यम से उसका प्रकाश और सत्य प्रकट होता और प्रत्येक प्रकार की मूर्तिपूजा से ऊपर उसकी आराधना की श्रेष्ठता के उदाहरण के तौर पर हम उसके बुद्धिमतापूर्ण और पवित्र शासन में आगे होते।PPHin 315.2