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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 32—व्यवस्था और वाचा

    आदम और हवा को उनकी सृष्टि के समय, परमेश्वर की व्यवस्था का बोध था। उन पर उसके अधिकारों से वे परिचित थे, उसके सिद्धान्त उनके हृदयों पर लिखित थे। जब आज्ञा उल्लंघन के कारण मनुष्य का पतन हुआ, उस समय व्यवस्था में कुछ बदलाव नहीं आया लेकिन मनुष्य को आज्ञाकारिता में पुनः लाने के लिये एक सुधारात्मक प्रणाली की स्थापना की गई। एक उद्धारकर्ता की प्रतीज्ञा दी गई और पापबलि के रूप में मसीह की मृत्यु की ओर संकेत करने वाले बलिदान सम्बन्धी भेटों की नींव डाली गई। लेकिन यदि परमेश्वर की व्यवस्था का उल्लंघन नहीं किया जाता, तो मृत्यु नहीं होती और ना ही उद्धारकर्ता की आवश्यकता होती, इस कारण से बलिदान की आवश्यकता भी नहीं होती।PPHin 365.1

    आदम ने अपने वंशजो को परमेश्वर की व्यवस्था का ज्ञान कराया, और यह पीढ़ी दर पीढ़ी पिता द्वारा पुत्र को सौंपा गया। लेकिन मनुष्य के उद्धार के लिये अनुग्रहकारी प्रयोजन के बावजूद, बहुत कम लोगों ने उसको स्वीकार किया और उसका पालन किया। आज्ञा उल्लंघन के फलस्वरूप संसार इतना भ्रष्टतापूर्ण हो गया कि जल-प्रलय द्वारा इसे इसके भ्रष्टाचार से मुक्त कराना अनिवार्य हो गया। नूह और उसके परिवार ने व्यवस्था को संरक्षित रखा और नूह ने अपने वंशजो को दस आज्ञाओं की शिक्षा दी। जब मनुष्य एक बार फिर परमेश्वर से दूर हो गया, प्रभु ने अब्राहम को चुना, जिसके बारे में उसने घोषणा की, “अब्राहम ने मेरी मानी और जो मैंने उसे सौंपा था, उसको और मेरी आज्ञाओं, विधियों और व्यवस्था का पालन किया ।”-उत्पत्ति 26:5। उसे खतने कीरीति दी गई, जो एक प्रतीक था कि जो भी खतने की रीति को अपनाते है वे परमेश्वर की सेवा के लिये समर्पित हैं-यह एक शपथ थी कि वे मूर्तिपूजा से अलग रहेंगे और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करेंगे। अब्राहम के वंशजो की इस शपथ का निर्वाह करने में असफलता, जो अधर्मियों के साथ उनके संबंध स्थापित करने के व्यवहार में और उसके रीति-रिवाजों को अपनाने में दिखाई गईं, मिस्र में उनके दासत्व और अस्थायी निवास का कारण थी। लेकिन मूर्तिपूजकों के साथ उनके पारस्पारिक व्यवहार में और मिम्रियों के प्रति उनके बलात्‌ समर्पण में, ईश्वरीय धर्मादेश मूर्तिपूजा के भ्रष्ट और निष्ठुर अध्यापन से और अधिक दूषित हो गए। इस कारण, जब परमेश्वर उन्हें मिस्र से निकालकर लाया, वह महिमा में लिपटा हुआ और स्वर्गदूतों से घिरा हुआ, सिने पर्वत पर उतरा और महिमामय अधिकार से अपनी व्यवस्था को बताया जिसे सब लोगों ने सुना।PPHin 365.2

    तब भी उसने अपने नियमों को उन लोगों की स्मृति के भरोसे नहीं छोड़ा, जो स्वयं उसकी अपेक्षाओं को भूलने के अभ्यस्त थे, बल्कि उसने उन आज्ञाओं को पत्थर की पटियाओं पर लिखा। वह इज़राइल अपने पवित्र नियमों और मूर्तिपूजक परम्पराओं के बीच मेल-जोल या उसकी अपेक्षाओं को मानवीय अध्यायदशों या प्रथाओं द्वारा पराजित होने की प्रत्येक सम्भावना को दूर कर देना चाहता था। लेकिन वह उन्हें दस नियमों के सिद्धान्त देकर रूक नहीं गया। लोगो ने आसानी से पथशभ्रष्ट हो जाने का प्रमाण दिया था, इसलिये वह उनके लिये प्रलोभन का कोई भी द्वार असुरक्षित नहीं छोड़ना चाहता था। मूसा को आदेश दिया गया कि परमेश्वर के निर्देशानुसार वह अपेक्षा सम्बन्धी विस्तारपूर्वक निर्देश देते हुए, दण्डाज्ञाओं और नियमों को लिखे। यह निर्देश जो मनुष्य का परमेश्वर के प्रति, एक-दूसरे के प्रति व अपरिचित के प्रति कर्तव्य से सम्बन्धित है, ये दसआज्ञाओं के सिद्धान्त ही थे जिन्हें विस्तारपूर्वक और विशिष्ट तरीके से दिया गया है, ताकि कोई गलती नहीं कर सके। इन्हें पत्थर की पटियाओं पर उत्कीर्ण दस आज्ञाओं की पवित्रता की रक्षा के लिये योजनाबद्ध किया गया था।PPHin 365.3

    यदि मनुष्य ने परमेश्वर की आज्ञा को माना होता, जैसे आदम को उसके पतन के पश्चात दी गई, नूह द्वारा संरक्षित रखी गई, अब्राहम द्वारा मानी गई, तो खतना के अध्यादेश की आवश्यकता नहीं होती। और यदि अब्राहम के वंशजो ने वाचा का निर्वाह किया होता, जिसका प्रतीक खतना था, तो वे कभी भी मूर्तिपूजा की ओर आकर्षित नहीं होते, और ना ही उन्हें मिस्र में दासत्व का कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता, वे परमेश्वर की व्यवस्था को अपने मन में रख लेते, तो उसे पत्थर की पटियाओं पर उत्कीर्ण करने या सिने पर्वत से घोषित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और यदि लोगों ने दस आज्ञाओं के सिद्धान्तों का अभ्यास किया होता, तो मूसा को दिये गए अतिरिकति निर्देशों की आवश्यकता नहीं होती।PPHin 366.1

    आदम को सौंपी गयी, बलिदान सम्बन्धी प्रणाली भी उसके वंशजो द्वारा विकृत कर दी गई। परमेश्वर द्वारा नियुक्त सरल और अर्थपूर्ण उपासना को अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा, नृशंसता, और स्वच्छता ने भ्रष्ट कर दिया। मूर्तिपूजकों के साथ चिरकालीन पारस्पारिक व्यवहार के माध्यम से इज़राइलियों ने अपनी आराधना में कई मूर्तिपूजक रीति-रिवाज मिला लिये थे, इस कारण प्रभु ने सिने पर्वत पर से बलिदान-सम्बन्धी प्रणाली सम्बन्धित स्पष्ट निर्देश दिये। पवित्र मण्डप के समापन के पश्चात वह प्रायश्चित के ढक्‍कन के ऊपर महिमा के बादल में से मूसा के साथ संपर्क किया और मिलाव वाले तम्बू में कायम रखने वाले आराधना के प्रकारों को और भेंटो की प्रणालीसे सम्बन्धित सम्पूर्ण निर्देश दिये। इस प्रकार मूसा को रीति-सम्बन्धित व्यवस्था दी गई और उसके द्वारा पुस्तक में लिखी गईं। लेकिन सिने पर्वत से उच्चारित दस आज्ञाओं की व्यवस्था स्वयं परमेश्वर द्वारा पत्थर की पटियाओं पर लिखी गई, और सन्दूक में श्रद्धापूर्वक संरक्षित किया गया। PPHin 366.2

    यह प्रमाणित करने के लिये कि आचरण सम्बन्धी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है, कई लोग रीति सम्बन्धी व्यवस्था की व्याख्या करने वाले अवतरणों का प्रयोग करते हुए, इन दोनों व्यवस्थाओं को मिलाने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन यह पवित्र शास्त्र को विकृत करना है। दोनों व्यवस्थाओं के बीच भिन्‍नता व्यापक व स्पष्ट है। रीति सम्बन्धी व्यवस्था मसीह, उसके बलिदान और उसकी याजकता की ओर संकेत करने वाले प्रतीकों से बनी थी। इस संस्कार-सम्बन्धीव्यवस्था का पालन, बलिदानों और अध्यादेशों सहित, इब्रानियों द्वारा जगत के पापों को निवारण करने वाले मेमने, मसीह की मृत्यु में नये और पुराने का मिलन होने तक किया जाना था। तत्पश्चात सभी बलिदानों सम्बन्धी भेटों को बन्द हो जाना था। यही वह विधि है जिसे मसीह ने “मिटा डाला...........और उसे कस पर कीलों से जड़कर सामने से हटा दिया ।-कुलुस्सियों 2:14। लेकिन दस आज्ञाओं की व्यवस्था के सन्दर्भ में भजन संहिता में लिखा है, “हे यहोवा, तेरा वचन, आकाश में सदा तक स्थिर रहता है।” और मसीह स्वयं कहता है, “यह न समझो कि मैं व्यवस्था को नष्ट करने आया हूँ... ........ तुमसे सत्य कहता हूँ”- और फिर अपने दावे को यथासम्भव ओजपूर्णबनाने के लिये वह कहता है-- “जब तक आकाश और पृथ्वी ढल न जाएँ, तब तक व्यवस्था से एक मात्रा थ्या एक बिन्दु भी बिना पूरा हुए नहीं टलेगा ।”-मत्ती 5:17,18। यह वह केवल यही नहीं सिखाता है कि परमेश्वर की व्यवस्था का अधिकार क्‍या रहा होगा, और उस समय क्‍या था, वरन्‌ यह भी कि यह अधिकार पृथ्वी और आकाश के अस्तित्व में होने तक रहेगा। परमेश्वर की व्यवस्था उतनी ही अपरिवर्तनीय है जितना कि उसका सिंहासन। वह युगों तक मानवजाति पर अपना अधिकार कायम रखेगी।PPHin 367.1

    सिने पर्वत पर घोषित व्यवस्था के सन्दर्भ में नेहम्याह कहता है, “फिर तूने सिने पर्वत पर उतरकर आकाश में से उनके साथ बातें की, और उनकों सही नियम, सच्ची व्यवस्था, अच्छी विधियाँ और आज्ञाएं दी ।”-नहे म्याह 9:13और “अन्य जातियों के लिये प्रेरित', पौलूस कहता है, “व्यवस्था पवित्र है, और आज्ञा भी पवित्र, न्यायसंगत और अच्दी है।” - रोमियों 7:12। यह दस आज्ञाओं को छोड़ और कोई नहीं हो सकती क्योंकि व्यवस्था ही यह कहती है, “तू लालच मत कर ।” - रोमियों 7:7PPHin 367.2

    हालाँकि, उद्धारकर्ता की मृत्यु ने परछाईयों और प्रतिरूपों की व्यवस्था का अन्त कर दिया, लेकिन आचरण सम्बन्धी व्यवस्था में से उसने कुछ भी कम नहीं किया। इस के विपरित, यह तथ्य कि व्यवस्था के उल्लंघन के लिये प्रायश्चित करने के लिये मसीह को मृत्यु स्वीकार करना अनिवार्य था, प्रमाणित करता है कि आचरण सम्बन्धी व्यवस्था अपरिवर्तनीय है।PPHin 367.3

    जो यह दावा करते हैं कि मसीह परमेश्वर की व्यवस्था का निराकरण करने और पुराने नियम को रद्द करने आया, वे यहूदी काल को अन्धकार का युग कहते है और इब्रियों के धर्म को केवल रशीतियों और अनुष्ठानों से बना होना मानते हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है। पवित्र इतिहास में आरम्भ से अन्ततक, जहाँ परमेश्वर का मनुष्य के साथ व्यवहार का उल्लेख हैं, वहां उस महान मैं हूँ” के प्रबल संकेत हैं। परमेश्वर ने मनुष्य के पुत्रों के सम्मुख अपनी महिमा और सामर्थ्य का इससे अधिक स्पष्ट प्रदर्शन कभी नहीं किया, जेसा कि उसने तब किया जब केवल उसे इज़राइल का शासक माना गया और जब उसने अपने लोगों को व्यवस्था प्रदान की। यहां वह राज-दण्ड था जो किसी मनुष्य के हाथ में नहीं था, और इज़राइल के अदृश्य राजा का गौरव-युक्‍त नेतृत्व अकथनीय रूप से भव्य और महिमामय था।PPHin 368.1

    पवित्र उपस्थिति के इन सब प्रदर्शनों में मसीह के माध्यम से परमेश्वर की महिमा प्रकट हुईं । केवल उद्धारकर्ता के आगमन पर ही नहीं, वरन्‌ पतन और उद्धार की प्रतिज्ञा के बाद के सभी युगों में, “परमेश्वर ने मसीह में होकर अपने साथ संसार का मेल-मिलाप कर लिया ।’- 2 कुरिन्थियों 5:19। कलपतियों के और यहूदी काल दोनों में मसीह बलिदान सम्बन्धी प्रणाली का केन्द्र बिन्दु और आधार था। हमारे प्रथम अभिभावकों के पाप के समय से परमेश्वर और मनुष्य में प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं रहा है। पिता ने जगत को मसीह के हाथों में सौंप दिया है, ताकि उसकी मध्यस्थता के कार्य के माध्यम से वह मनुष्य को पाप से मुक्त करा सके और परमेश्वर की व्यवस्था की पवित्रता और अधिकार को न्यायसंगत सिद्ध कर सके। स्वर्ग और पतित जाति के बीच समस्त सहभागिता मसीह के माध्यम से हुईं है। परमेश्वर के पुत्र ने ही हमारे प्रथम अभिभावकों को उद्धार की प्रतिज्ञा दी। उसी ने स्वयं कोकुलपिताओं आदम, नहू, अब्राहम, इसहाक, याकूब के सम्मुख प्रकट किया और मूसा ने सुसमाचारकों समझा। वे मनुष्य के प्रतिनिधि और प्रतिभू के द्वारा उद्धार की बाट जोहते थे।प्राचीन काल के ये सिद्ध पुरूष उस उद्धारकर्ता से संपर्क करते थे, जो देहधारी होकर जगत में आने वाला था, और इनमें से कुछ मसीह और स्वर्गदूतों के साथ आमने-सामने होकर बात करते थे। PPHin 368.2

    जब इब्री निर्जन प्रदेश में थे मसीह केवल उनका अगुवा ही नहीं था - वह स्वर्गदूत जिसमें यहोवा का नाम था और जो बादल के स्तम्भ में आवृत सेनाओं के आगे-आगे गया- वरन्‌ उसी ने इज़राइल को व्यवस्था दी।-(परिशिष्ट नोट 7 देखिये) सिने की विस्मयकारी महिमा के बीच, मसीह ने, सबके सुनने की पहुँच में, अपने पिता की व्यवस्था के दस नियमों की घोषणा की। उसी ने मूसा को पत्थर की पटियाओं पर उत्कीर्ण व्यवस्था दी।PPHin 368.3

    वह मसीह ही था जो भविष्यवक्ताओं के माध्यम से अपने लोगों के साथ बात करता था। मसीही कलीसिया को लिखते हुए प्रेरित पतरस कहता है कि भविष्यवक्ताओं ने, “उस अनुग्रह के विषय में जो तुम पर होने को था, भविष्यद्वाणी की थी। उन्होंने इस बात की खोज की कि मसीह का आत्मा जो उनमें था और पहले सेही मसीह के दुखों की और उसके बाद होने वाली महिमा की गवाही देता था, वह कौन से और कैसे समय की ओर संकेत करता था।”-1 पतरस 1:140,111 वह मसीह का स्वर है जो पुराने नियम के द्वारा हमसे बात करता है। “यीशु की गवाही भविष्यद्वाणी की आत्मा है।” प्रकाशित वाक्य 19:10।PPHin 369.1

    जब यीशु व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच में था, अपने प्रचार में उसने मनुष्य का ध्यान पुराने नियम की ओर आकर्षित किया। उसने यहूदियों से कहा”तुम पवित्र शास्त्र में ढूंढते हो, क्योंकि समझते हो कि उसमें अनन्त जीवन तुम्हें मिलता है, और यह वही है जो मेरी गवाही देता है ।”-यहुन्ना 5:39। इस समय पुराने नियम की पुस्तकें विद्यमान बाईबिल का एकमात्र भाग थी। फिर से परमेश्वर के पुत्र ने घोषणा की, “उनके पास तो मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकें हैं, वे उसकी सुनें।” इसके अतिरिक्त उसने कहा, “जब वे मूसा और भविष्यद्वक्ताओं की नहीं सुनते, तो यदि मरे हुओं में से कोई भी जी उठे तो उसकीभी नहीं मानेंगे।” - लूका 16:29,31PPHin 369.2

    सांस्कारिक व्यवस्था मसीह द्वारा दी गई। उसका पालनकरने की आवश्यकता न होने के बाद भी, मसीह के कार्य के साथ उसका सम्बन्ध और उद्धार की योजना में उसका स्थान दिखाते हुए, पौलूस ने यहूदियों के सम्मुख इस व्यवस्था को इसके वास्तविक स्थान और महत्व सहित प्रस्तुत किया, और महान प्रेरित इस व्यवस्था को महिमामय और इसके पवित्र प्रव॑तक के योग्य घोषित करता है। मिलापवाले तम्बू की पवित्र आराधना उन महान सच्चाईयों का प्रतिनिधित्व करती है जो उत्त्तरोत्तर पीढ़ियों में प्रकट होनी थी। इज़राइल की प्रार्थनाओं के साथ ऊपर उठता हुआ धूप का धुआँ प्रतीक है उसकी धार्मिकता का, जो पापी मनुष्य की प्रार्थना को परमेश्वर द्वारा स्वीकार्य ठहहरने का अकेला माध्यम है, बलि की वेदी पर लहूलुहान बलि का पशु आने वाले उद्धारकर्ता का प्रमाण था, और पवित्रों के पवित्र से ईश्वरीय उपस्थिति का सदृश प्रतीक दिखाई दिया। इस प्रकार अन्धकार और अधर्म के एक के बाद एक युग के दौरानप्रतिश्रुत मसीह के आगमन का समय आने तक विश्वास को मनुष्यों के हृदयों में जीवित रखा गया।PPHin 369.3

    पृथ्वी पर देहधारी होकर आने से पहले यीशु अपने लोगों के लिये ज्योति था- जगत की ज्योति। प्रकाश की पहली किरण, अन्धकार को बेधकर, वह मसीह से आई। और पृथ्वी के वासियों पर पड़ने वाली स्वर्ग के प्रकाश की प्रत्यके किरण उसी में से आई है। उद्धार की योजना में अल्फा और ओमेगा आदि और अन्त मसीह है।PPHin 369.4

    जबसे उद्धारकर्ता ने पापों की क्षमा के लिये अपना लहू बहाया, और “हमारे लिये परमेश्वर के सम्मुख दिखाई देने के लिये” स्वर्ग को गया, स्वर्गीय मिलापवाले तम्बू के पवित्र स्थानों से और कलवरी के कस से प्रकाश प्रवाहित हो रहा है। लेकिन हमें, हमको प्रदान किये गए निर्मल प्रकाश के कारण उस प्रकाश को तुच्छ नहीं समझना चाहिये जो प्राचीन समय में, आने वाले उद्धारकर्ता की ओर संकेत करने वाले प्रतिरूपों के द्वारा प्राप्त किया जाता था। मसीह का सुसमाचार यहूदी अर्थव्यवस्था पर प्रकाश डालता है और सांस्कारिक व्यवस्था को महत्व देता है। जैसे-जैसे नए सत्य सामने आते है और जो सत्य आदि से ज्ञात है और स्पष्ट होते हैं, परमेश्वर के प्रयोजन और उसका स्वभाव उसके, अपने चुने हुए लोगों के साथ व्यवहार में प्रकटहोते हैं। प्रत्येकअतिरिक्त किरण जो हमें प्राप्त होती है, उद्धार की योजना से सम्बन्धित हमारी समझ को और स्पष्ट करती है, जो मनुष्य के उद्धार में परमेश्वरकी इच्छा का सम्पन्न होना है। प्रेरित वचन में हम नई मनोहरता और बल देखते हैं और हम उसके पृष्ठों को और गहराई और ध्यान मग्न होकर पढ़ते हैं।PPHin 370.1

    कई लोगों की यह धारणा है कि परमेश्वर ने इब्रानियों और पराए जगत के बीच एक वियोजक दीवार रखी है, यह कि उसका प्रेम और ध्यान इज़राइल पर केन्द्रित था और काफी हद तक शेष मानवजाति के प्रति उदासीन था। लेकिन परमेश्वर की यह योजना नहीं थी कि मनुष्य अपने और दूसरों के बीच में बँटवारे की दीवार खड़ी करें। ‘अनन्त प्रेम! का हाथ पृथ्वी के सभी वासियों की और बढ़ रहा था। यद्यपि जगत ने उसका तिरस्कार किया, वह स्वयं को उन पर प्रकट करने और उन्हें अपने अनुग्रह और प्रेम का भागीदार बनाने के लिये लगातार प्रयत्नशील था। चुने हुए लोगों को उसकी आशीष दी गई ताकि वे दूसरों को धन्य करें। PPHin 370.2

    परमेश्वर ने अब्राहम को बुलाया, और उसे समृद्ध और सम्मानित किया, और इस कुलपिता की स्वाभिभक्ति उन सभी देशों में, जहाँ उसने पड़ाव डाला, लोगों के लिये प्रकाश थी। अब्राहम ने स्वयं को अपने आस-पास के लोगों से अलग नहीं कर लिया। उसने पड़ोसी देशों के राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखे और इनमें से कई राजाओं ने उसके साथ आदरपूर्ण व्यवहार किया। उसकी सत्यनिष्ठा, निःस्वार्थत, साहस और उदारता परमेश्वर के चरित्र का वर्णनकर रहे थे। मेसोपोतामिया में, कनान में, मिस्र में, और सदोम वासियों को भी, स्वर्ग के परमेश्वर ने अपने प्रतिनिधि के माध्यम से स्वयं को प्रकट किया।PPHin 370.3

    इसी प्रकार मिस्र के लोगों और उस शक्तिशाली राज्य से सम्बद्ध सभी राज्यों में परमेश्वर ने युसुफ के माध्यम सेस्वयं को प्रकट किया। परमेश्वर ने युसुफ को, मिस्रियों के बीच, इतना उच्च सम्मान देना क्‍यों चुना? याकूब की सन्तानों के प्रति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये वह कोई अन्य साधन उपलब्ध करा सकता था, लेकिन वह युसुफ को प्रकाश समान बनाना चाहता था, और उसने युसुफ को राजा के महल में स्थापित किया, ताकि स्वर्गीय प्रकाश दूर और पास फैल सके। अपनी बुद्धिमता और न्यायसंगतता से, अपने दैनिक जीवन की पवित्रता और उदारता से, लोगों की भलाई के लिये अपनी लगन से-जबकि वे लोग मूर्तिपूजक थे-युसुफ मसीह का प्रतिनिधि था। उनके हितकारी में, जिसके पास समस्त मिस्र धन्यवाद और प्रशंसा के साथ जाते थे, उन मूर्तिपूजकों को उनके सृष्टिकर्ता और उद्धारकर्ता के प्रेम को देखना था। इसी प्रकार मूसा के रूप में, परमेश्वर ने पृथ्वी के महानतम राज्य के सिंहासन के पास ज्योति को स्थापित किया ताकि वे सभी, जो चाहते थे, जीवित और सच्चे परमेश्वर के बारे में जाने। परमेश्वर द्वारा दण्डाज्ञा के लिये हाथ बढ़ाए जाने से पहले, यह प्रकाश मिस्र के लोगों को दिया गया।PPHin 371.1

    मिस्र से इज़राइल के छुटकारे में, परमेश्वर के सामर्थ्य की जानकारी दूर-दूर तक फैल गईं। यरीहो के गढ़ के रणकुशल लोग कॉपने लगे। रहाब ने कहा, “यह सुनते ही हमारा हृदय पिघल गया, और तुम्हारे कारण किसी में साहस नहीं रहा, क्योंकि तुम्हारा परमेश्वर यहोवा ऊपर के आकाश का और नीचे की पृथ्वी का परमेश्वर है।” यहोशू 2:41। निर्गमन के सदियों पश्चात्‌ पलिश्तियों के याजकों ने लोगों को मिस्र की विपत्तियों का स्मरण कराया और इज़राइल के परमेश्वर का प्रतिरोध करने के विरूद्ध चेतावनी दी।PPHin 371.2

    परमेश्वर ने इज़राइल को बुलाया, और उन्हें आशीषित औरगौरवान्तित किया, इसलिये नहीं कि उसकी व्यवस्था का पालन करने से केवल वही उसकी कृपा-दृष्टि प्राप्त करें और उसकी आशीषों का विशेष प्राप्तकर्ता बने, वरन्‌ इसलिये कि उनके द्वारा वह पृथ्वी के सभी वासियों के लिये स्वयं को प्रकट कर सके। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये उसने उन्हें अपने आप को पड़ोसी मूर्तिपूजक देशों से अलग रखने की आज्ञा दी।PPHin 371.3

    मूर्तिपूजा और उसकी श्रंखला में होने वाले सभी पाप परमेश्वर के लिये घृणास्पद थे। परमेश्वर ने आदेश द्वारा लोगों को अन्य देशों के साथ मेलजोल बढ़ाने से व उनके जैसे काम करके परमेश्वर को भूल जाने से मना किया था। उसने उन्हें मूर्तिपूजकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने से भी मना किया ताकि उनके हृदय उससे दूर न हो जाएँ। यह तब भी उतना ही आवश्यक था जितना कि अब है कि परमेश्वर के लोग स्वयं को शुद्ध और ‘संसार से निष्कलंक’ रखे। मूर्तिपूजा की विचारधारा से भी उन्हें स्वयं को स्वतन्त्र रखना चाहिये क्‍योंकि वह सत्य और धार्मिकता के विरूद्ध है। लेकिन परमेश्वर का यह अभिप्राय नहीं था कि आत्म-धर्मपरायण गैर-मिलनसारिता में उसके लोग जगत से अपने आप को परे रख लें जिससे वे उस पर प्रभाव न डाल सकें।PPHin 371.4

    अपने स्वामी की तरह, मसीह के अनुयायियों को हर युग में जगत की ज्योति होना था। उद्धारकर्ता ने कहा, “जो नगर पहाड़ पर बसा हुआ है वह छुप नहीं सकता। और दीपक जलाकर पैमाने के नीचे नहीं वरन्‌ दीवट पर रखते है, तब उससे घर के सब लोगों को प्रकाश पहुँचता है” जिसका तात्पर्य जगत से है। और वह आगे कहता है, “उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में है, बड़ाई करे।””-मत्ती 5:14-16 [हनोक, नूह, अब्राहम, युसुफऔर मूसा ने ठीक ऐसा ही किया। इज़राइलियों के लिये भी परमेश्वर की यही योजना थी।PPHin 372.1

    शैतान द्वारा नियन्त्रित, वह उनका दुष्ट हृदय ही था, जिसने उन्हें पड़ोसी राष्ट्रों पर प्रकाश बिखरने के बजाय उसे छुपाने का आग्रह किया, यह वही धर्माधं भावना थी जिसके कारण या तो वे मूर्तिपूजकों की अधम्ी प्रथाओं का अनुसरण करने लगे या अंहकारी अनन्यता में स्वयं को अलग रखनेलगे , मानो परमेश्वर का प्रेम और सुरक्षा केवल उन्हीं के लिये हो।PPHin 372.2

    जैसे बाइबिल दो व्यवस्थाओं का वर्णन करती है, एक अपरिवर्तनीय और सनातन और दूसरी अल्पकालीन और सामयिक, और इसी प्रकार वाचाएं भी देते हें। अनुग्रह को वाचा सर्वप्रथम मनुष्य के साथ अदन की वाटिका में बांधी गई, जब पतन के पश्चात्‌ यह पवित्र प्रतिज्ञा दी गई कि मनुष्य का पुत्र सर्प केसिर को कुचल डालेगा। यह वाचा सभी मनुष्यों को मसीह में विश्वास के द्वारा भविष्य में आज्ञाकारिता के लिये परमेश्वर का सहायक अनुग्रह और क्षमादान प्रदान करती थी। मनुष्य के परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति सत्यनिष्ठा दिखाने पर वह उन्हें अनन्त जीवन की प्रतिज्ञा देती थी। इस प्रकार कुलपिताओं ने उद्धार की आशा को पाया।PPHin 372.3

    उत्पत्ति 22:18 में उल्लिखित प्रतिज्ञा, “पृथ्वी की सारी जातियाँ अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेगी” में अब्राहम को यह वाचा दोहराई गईं। यह प्रतिज्ञा ने मसीह की ओर संकेत किया। अब्राहम ने इसे समझ लिया (गलतियों 3:8,16 देखिये) और उसने पापों की क्षमा के लिये मसीह में विश्वास रखा। इसी विश्वास के आधार पर उसे धर्मी ठहराया गया। अब्राहम के साथ बांधी वाचा ने परमेश्वर की व्यवस्था के अधिकार को कायम रखा। यहोवा ने अब्राहम को दर्शन देकर कहा, “मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर हूँ, मेरी उपस्थिति में चल और सिद्ध होता जा।’-उत्पत्ति 17:1 अपने निष्ठावान सेवक से सम्बन्धित परमेश्वर की गवाही थी, “अब्राहम ने मेरी मानी, और जो मैं ने उसे सॉंपा था उसको और मेरी आज्ञाओं, विधियों और व्यवस्था का पालन किया।”-उत्पत्ति 26:5 और परमेश्वर ने उसके सम्मुख घोषणा की, “‘मैं तेरे साथ, और तेरे पश्चात पीढ़ी-पीढ़ी तक तेरे वंश के साथ भी इस आशय की युग-युग की वाचा बांधता हूँ कि मैं तेरा और तेरे पश्चात तेरे वंश का भी परमेश्वर रहूंगा।-उत्पत्ति 17:7PPHin 372.4

    यद्यपि यहवाचा आदम के साथ बाँधी गई और अब्राहम के साथ दोहरायी गई, मसीह की मृत्यु तक इसकी पुष्टि नहीं हो सकी। उद्धार की प्रथम सूचना के दिये जाने के समय से यह वाचा परमेश्वर की प्रतिज्ञा द्वारा अस्तित्व में थी, इसे विश्वास द्वारा ग्रहण की गई थी, लेकिन मसीह द्वारा प्रमाणित होने के बाद यह नई वाचा कहलाई । परमेश्वर की व्यवस्था इस वाचा का आधार थी जो, मनुष्य को वहाँ स्थापित कर जहां वे परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते थे, ईश्वर की इच्छा के साथ मनुष्य का सामन्जस्य पुनः स्थापित करने का केवल एक प्रबन्ध थी।PPHin 373.1

    दूसरा समझौता-पवित्र -शास्त्र में जिसे “पुरानी” वाचा कहा जाता है- सिने में इज़राइल और परमेश्वर के बीच हुआ और इसकी पुष्टि बलिदान के लहू द्वारा हुईं और उसे “दूसरी’ या “नई” वाचा कहा जाता है क्योंकि जिसे लहू के द्वारा इसे प्रमाणित किया गया वह प्रथम वाचा के लहू के बाद बहाया गया। अब्राहम के समय में नई वाचा मान्य होता इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि वह उस समय परमेश्वर की शपथ और उसकी प्रतिज्ञा दोनों के द्वारा सुनिश्चित की गई- दो अपरिवर्तनीयबातों के द्वारा, जिनके बारे में परमेश्वर कभी झूठ नहीं कह सकता ।””- (इब्रानियों 6:18)।PPHin 373.2

    लेकिन यदि अब्राहमी वाचा में उद्धार की प्रतिज्ञा निहित थी, तो सिने पर दूसरी वाचा क्‍यों तैयार की गई? दासत्व की अवस्था में लोग, काफी हद तक, परमेश्वर के ज्ञान और अब्राहमी वाचा के सिद्धान्तों को खो चुके थे। मिस्र से उन्हें छुटकारा दिलाने में, परमेश्वर उनपर अपनी करूणा और सामर्थ्य को प्रकट करना चाहता था, जिससे कि वे उससे प्रेम करने लगे और उस पर विश्वास ला सकें। वे उन्हें लाल समुद्र तक लाया, जहां मिमस्रियों द्वारा पीछा किये जाने के कारण, उनका बच कर निकल जाना असम्भव था। उसने, उनके अस्थायी दासत्व से छुटकारा दिलाने वाले के रूप में, स्वचयं को उनके साथ बांध रखा था।PPHin 373.3

    लेकिन इससे भी महान एक और सत्य था जिसे उनके मन में अंकित किया जाना था। मूर्तिपूजा और भ्रष्टाचार के बीच रहते हुए, उनके पास परमेश्वर की पवित्रता की, अपने व्यक्तिगत हृदयों की अत्याधिक पापमयता की परमेश्वर उद्धारकर्ता की आवश्यकता की सही धारणा नहीं थी। उन्हें यह सब सिखाना अनिवार्य था। परमेश्वरन उन्हें सिने पर अपनी व्यवस्था दी और साथ ही आज्ञाकारिता की शर्त पर अत्याधिक आशीषों का वचन भी दिया, “यदि तुम निश्चय मेरी मानोगे, और मेरी वाचा का पालन करोगे, तो तुम मेरी दृष्टि में याजकों का राज्य और पवित्र जाति ठहरोगे, तो तुम मेरी दृष्टि में याजकों का राज्य और पवित्र जाति ठहरोगे ।”-निर्गमन 19:5,6 । लोगों को उनके अपन हृदय की पापमयता का एहसास नहीं हुआ, और न ही इस बात का कि मसीह के अभाव में परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करना असम्भव था, और वे तत्परता सेपरमेश्वर के साथ वाचा में बन्ध गए। यह सोचकर कि वे अपनी धार्मिकता को स्वयं सिद्ध करने में समर्थ थे, उन्होंने घोषणा की, “जो कुछ यहोवा ने कहा है उस सब को हम करेंगे, और उसकी आज्ञा मानेंगे।।”-निर्गमन 24:7 [व्यवस्था की प्रभावशाली व तेजोमय घोषणा के वे साक्षी थे, और पर्वत के सम्मुख वे डर से काँप उठे थे, लेकिन फिर भी कुछ ही वर्ष बीते थे कि उन्‍होंने परमेश्वर के साथ अपनी वाचा को खंडित कर दिया एक गढ़ी हुई आकृति के आगे भक्तिभाव से दण्डवत किया। स्वयं के द्वारा तोड़ी गईं वाचा के माध्यम से वे परमेश्वर की कृपा-दृष्टि की आशा नहीं कर सकते थे, और अब उनकी पापमयता और क्षमादान की आवश्यकता को देखते हुए, उन्हें बलिदान सम्बन्धी भेटों में प्रतिबिम्बित और अब्राहमी वाचा में प्रकट की गई मनुष्य के लिये उद्धारकर्ता की आवश्यकता का एहसास कराया गया। अब विश्वास और प्रेम से वे उस परमेश्वर के साथ बन्धन में बन्ध गए थे, जिसने उन्हें पाप के बन्धन से मुक्ति दिलाई थी। अब वे नयी वाचा की आशीषों का मान करने को तैयार थे।PPHin 373.4

    “पुरानी वाचा” के नियम थे, आज्ञापालन करो और जीवित रहो, “जो मनुष्य उनकी माने, वह उनके कारण जीवित रहेगा ।”-यहेजकेल 20:11, लैवव्यवस्था 18:5; लेकिन”शापित हो वह जो इस व्यवस्था के वचनों को मानकर पूरा न करे।” व्यवस्थाविवरण 27:26। “नई वाचा” का संस्थापन “बेहतर प्रतिज्ञाओं” पर हुआ था- पापों की क्षमा और हृदय परिवर्तन करके उसे परमेश्वर की व्यवस्था के सिद्धान्तों के साथ सुसंगत कराने के लिये परमेश्वर अनुग्रह की प्रतिज्ञा ।जो वाचा मैं उन दिनों के बाद इज़राइल के घराने से बाँधूगा, वह यह है, मैं अपनी व्यवस्थाको उनके मस्तिष्क में रखूँगा तथा उनके ह्दयों पर लिखूँगा.........में उनका अधर्म क्षमा करूँगा, और उनका पाप फिर स्मरण न करूंगा ।”-यिर्मयाह 31:33,34।PPHin 374.1

    जो व्यवस्था पत्थर की पटियाओं पर उत्कीर्ण की गई थी, वही व्यवस्था पवित्र आत्मा द्वारा हृदय की पटिया पर लिखी गई। स्वयं की निजी धार्मिकता सिद्ध करने के बजाय हम मसीह की धार्मिकता को अपनाते है। उसका लहू हमारे पापों के लिये प्रायश्चित करता है। उसकी आज्ञापरता हमारे लिये स्वीकार की जाती है। फिर पवित्र आत्मा द्वारा परिवर्तित हृदय आत्मा के फल’ लाता है। मसीह के अनुग्रह से हम हमारे हृदयों पर लिखी गई परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करेंगे। मसीह का आत्मा हमारे पास होने से, हम उसकी जैसी चाल चल सकेंगे। नबी के द्वारा उसने स्वयं के लिये घोषणा की, “हे मेरे परमेश्वर मैंतेरी इच्छा पूरी करने में प्रसन्‍न हूँऔर तेरी व्यवस्था मेरी अन्तकरण में बसी है।”भजन संहिता 40:8; और जब वह मनुष्यों के बीच था उसने कहा, “मेरे पिता ने मुझे अकेला नहीं छोड़ा है, क्‍योंकि मैं सर्वदा वही काम करता हूँ जिससे वह प्रसन्‍न होता है ।-यहुन्ना 8:29 ।PPHin 374.2

    प्रेरित पौलूस नई वाचा के अंतर्गत विश्वास और व्यवस्था के बीच के सम्बन्ध को स्पष्टता से प्रस्तुत करता है। वह कहता है, “जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल हो गया। तो क्‍या हम व्यवस्था को विश्वास के द्वारा व्यर्थ ठहराते हैं? परमेश्वर ना करे, वरन्‌ हम व्यवस्था को स्थिर करते है।” “क्योंकि जो काम व्यवस्था न कर सकी, क्योंकिशरीर के कारण वह दुर्बल थी” वह मनुष्य को निर्दोष नहीं ठहरा सकी। क्‍योंकि अपनी पापमय प्रवृति में वह व्यवस्था को नहीं रख सका- “परमेश्वर ने अपने ही पुत्र को पापमय शरीर की समानता में, शरीर में पाप पर दण्ड की आज्ञा दी, इसलिये कि हमारे द्वारा, जो देह की भौतिक विधि से नहीं, बल्कि आत्मा की विधि से जीते हैं, व्यवस्था की आवश्यकताएँ हममें पूरी हो सके ।”-रोमियों 5:14, 3:31, 8:3,4।PPHin 375.1

    परमेश्वर का कार्य सर्वदा समान ही होता है, हालाँकि विकास के चरणों और उसकी शक्ति के प्रदर्शनों में अलग-अलग युगों में मनुष्य की आवश्यकतापूर्ति के अनुसार भिन्‍नता होती थी। प्रथम सच्ची प्रतिज्ञा से लेकर, कुलपिताओं और यहूदियों के युगों से होते हुए वर्तमान समय तक उद्धार की योजना ने परमेश्वर के उद्देश्यों का नियमित प्रकटन हुआ है। यहूदी व्यवस्था की विधियों और अनुष्ठानों मं जो उद्धारकर्ता प्रतीक के रूप में होता था वही उद्धारकर्ता सुसमाचार में प्रकट होता है। उसके ईश्वरीय रूप को ढॉकने वाला बादल हट गया है, कोहरा और परछाईयाँ लुप्त हो गई हैं, और जगत का उद्धारकर्ता, यीशु प्रकट हुआ। वह जिसने सिने से व्यवस्था की घोषणा की और मूसा को सांस्कारिक व्यवस्था दी, वही है जिसने पहाड़ी संदेश दिया। परमेश्वर के प्रेम के प्रति महान सिद्धान्त जो उसनेभविष्यद्वक्ताओं औरव्यवस्था के आधार के रूप में निर्धारित किये वे इब्रानियों को मूसा द्वारा परमेश्वर के कहे शब्दों को दोहराना है, “हे इज़राइल, सुन, यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है, तू अपने परमेश्वर यहोवा से अपने पूरे मन, और पूरी आत्मा और पूरी शक्ति के साथ प्रेम रखना।”-व्यवस्थाविवरण 6:4,5 ।तू अपने पड़ौसी से अपने समान ही प्रेम रखना। - लैवव्यवस्था 19:18। दोनों विधानों में शिक्षकएक ही है। परमेश्वर का अधिकार वही है। उसके शासन के सिद्धान्त वही है। क्योंकि सभी उसके पास से आते है, “जिसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल-बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है।”-याकूब 1:17PPHin 375.2

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