Loading...
Larger font
Smaller font
Copy
Print
Contents

कुलपिता और भविष्यवक्ता

 - Contents
  • Results
  • Related
  • Featured
No results found for: "".
  • Weighted Relevancy
  • Content Sequence
  • Relevancy
  • Earliest First
  • Latest First
    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents

    अध्याय 4—उद्धार की योजना

    मनुष्य के पतन ने सम्पूर्ण स्वर्ग को व्यथित कर दिया। परमेश्वर का रचित संसार पाप के प्रकोप से अभिशापित हो गया और उस पर वे प्राणी बस गए जिनका दुर्दशा और मृत्यु से सर्वनाश निश्चित था। व्यवस्था का उल्लंघन करने वालों के लिये कोई भी बचने का रास्ता नहीं था। स्वर्गदूतों का गुणगान थम गया। समस्त स्वर्ग पाप द्वारा लाए गए विनाश के कारण शोकग्रस्त था।PPHin 53.1

    परमेश्वर का पुत्र स्वर्ग का तेजस्वी सेनापति, पतित मानव जाति के लिये दया से संवदेनशील हो गया। भटके हुए संसार की दुर्दशा देखकर उसका हृदय असीमित दयाभाव से विचलित हो गया। लेकिन पवित्र प्रेम ने मनुष्य के उद्धारहेतु एक योजना तैयार की। परमेश्वर की खंडित व्यवस्था पापी का जीवन मांगती थी। समस्त सृष्टि मे एक ही ऐसा था जो इस दावे की सन्तुष्टि कर सकता था। ईश्वरीय व्यवस्था परमेश्वर तुल्य पवित्र है, इसलिये उसके उल्लंघन का प्रायश्चित भी वहीं कर सकता था जो परमेश्वर के बराबर है। यीशु के अलावा कोई भी पतित मनुष्य को व्यवस्था के प्रकोप से उद्धार दिलाने में और स्वर्ग के साथ उसका सामनन्‍्जस्य कराने में सक्षम नहीं था। पाप का दोष और कलंक यीशु स्वयं धारण करने वाला था, वह पाप जो परमेश्वर के लिये इतना अपमानजनक था कि वह पिता और पुत्र को अलग कर देता। संताप में डूबकर भी वह विनाश प्राप्त मनुष्य जाति को बचाने वाला था।PPHin 53.2

    पिता के सम्मुख यीशु ने मनुष्य के निमित्त अनुनय किया और इस समय स्वर्ग की सेना अत्यन्त गहरी व अकथनीय रूचि के साथ परिणाम की प्रतीक्षा करती रही। वह रहस्यमयी घनिष्ठ बातचीत देर तक चलती रही- मनुष्य के पतित पुत्रों के लिए “मेल की सम्मति” (जकर्याह 6:143)। उद्धार की योजना पृथ्वी की सृष्टि से पहले तैयार की जा चुकी थी। प्रकाशितवाक्य 1:8 के अनुसार, “वह जो जगत की उत्पत्ति के समय से घात हुआ है, यीशु ही है, फिर भी दोषी मानव जाति हेतु अपने पुत्र की बलि चढ़ाना जगत के राजा के लिए संघर्षपूर्ण था। यहुन्ना 3:16 में लिखा है, “क्योकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो परन्तु अनन्त जीवन पाए। ओह, उद्धार का रहस्य! परमेश्वर का प्रेम उस जगत के लिए जो उससे प्रीति नहीं रखता था! जो “समझ से बिल्कुल परे है, “उस प्रेम की गहनता को कौन समझ सकता है? युगों तक भावस्मरणीय बुद्धिजीवी उस अबोधगम्य प्रेम के रहस्य को समझने की चेष्ठा करते हुए, विस्मय और आराधना भाव से भरे रहेंगे।PPHin 53.3

    “और परमेश्वर ने मसीह मे होकर अपने संसार का मेल-मिलाप कर लिया”-2 कुरिन्थियों 5:19। मनुष्य पाप के कारण इतना पदावनत हो गया था कि उसका, स्वयं की सामर्थ्य से, परमेश्वर, जिसका स्वभाव पवित्र और भला है, से सामन्जस्य असम्भव था। मनुष्य को व्यवस्था की दण्डाज्ञा से छुटकारा दिलाने के पश्चात, मसीह मानव के प्रयत्न के साथ ईश्वरीय शक्ति को जोड़ सकता था। इस तरह परमेश्वर के प्रति पश्चाताप और मसीह में विश्वास द्वारा आदम के पतित पुत्र एक बार फिर “परमेश्वर के पुत्र” बन सकते थे (1 यहुन्ना 3:2)। इस योजना में सम्पूर्ण स्वर्ग का असीम त्याग सम्मिलित था और केवल यही मनुष्य के उद्धार को सुरक्षित करने में सक्षम था। जब मसीह ने स्वर्गदूतों के समक्ष उद्धार की योजना को रखा, वे प्रसन्‍न न हो सके, क्योंकि मनुष्य के उद्धार का मूल्य था, उनके सेनापति की अकथनीय पीढ़ा। आश्चर्यवकित और दुःखी होकर उन्होंने उसकी बातों को सुना कि किस तरह वो स्वर्ग की पवित्रता और शान्ति से उसके आनंद, महिमा और अमरता से नीचे उतर कर, पृथ्वी से जुड़े कलंक, व्यवस्था और मृत्यु को सहन करने हेतु उसकी अधोगति के संपर्क में आने को था। उसे पापी और पाप की दण्डाज्ञा के बीच खड़ा होना था और फिर भी बहुत कम उसे परमेश्वर का पुत्र कहलाने की स्वीकृति देने को थे। स्वर्ग-सम्राट के ऊँचे पद को त्याग कर उसे स्वयं को दीन मनुष्य के रूप में अवतरित कर, अपने अनुभव से उन दुखों और प्रलोभनों से परिचित होना था, जिन्हें मनुष्य को सहना था। यह इसलिये आवश्यक था ताकि वह प्रलोभनमें पड़े मनुष्यों की सहायता कर सके,(इब्रानियों 2:18)। शिक्षक के रूप में लक्ष्य पाने के पश्चात, उसे दुष्ट मनुष्यों के हाथों में सौपं दिया जाना था और उसे हर उस अपमान और प्रताड़ना का पात्र बनाया जाना था, जिसकी प्रेरणा शैतान उन्हें देता। अपराध बोध में दबे पापी समान स्वर्ग और धरती के बीच लटके हुए उसेपापी के समान अत्यधिक निर्मम मृत्यु को प्राप्त होना था, जिसके सदृश्य होना स्वर्गदूतों के लिये असंभव था, और जिस दृश्य से उन्होंने अपने चेहरे ढाँक लिये, ऐसी भयावह यातना के कई पहर मसीह को व्यतीत करने थे। आज्ञा उललघंन का अपराध बोध-समस्त संसार के पापों का भार उसके ऊपर आने पर, उसे आत्मा की तीव्र व्यथा को, पिता के मुह फेर लेने को सहन करना था।PPHin 54.1

    स्वयं को मनुष्य हेतु बलिदान के रूप में अर्पण करते हुए, स्वर्गदूत अपने सेनाध्यक्ष के चरणों में झुक गए। लेकिन एक स्वर्गदूत का जीवन ऋण का भुगतान नहीं कर सकता था, मनुष्य के उद्धार की क्षमता केवल उसके सृजनहार में थी। फिर भी उद्धार की योजना में स्वर्गंदूतों को एक भूमिका का निर्वाह करना था। इब्रानियों 2:9 में लिखा है, “यीशु को स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुख उठाने के लिये”। क्‍योंकि मसीह को मानव रूप धारण करना था, उसकी सामर्थ्य स्वर्गदूतों से कम होनी थी, और उन्हें उसकी सेवा में रहना था, और उसकी पीड़ा के समय उसे शक्ति और शान्ति का आभास कराना था। इब्रानियों 1:14 के अनुसार, “क्या वे सब सेवा टहल करने वाली आत्माएं नहीं, जो उद्धार पाने वालों के लिये सेवा करने को भेजी जाती है”? दुष्ट स्वर्गदूतों की शक्ति औरशैतान द्वारा चारों ओर फैलाए अन्धकार से अनुग्रह की प्रजा की सुरक्षा करना उनका कार्य था। PPHin 55.1

    अपने स्वामी की व्यथा की पराकाष्ठा और अपमान के साक्ष्य स्वर्गदूत संताप और लोभ से भरकर उसे उसके हत्यारे से मुक्त कराना चाहेंगे, लेकिन उन्ही जो कुछ भी वे देखने वाले थे, उसे घटित होनेसे रोकने हेतु हस्तक्षेप नहीं करना था। यह उद्धार की योजना का एक भाग थाकि मसीह दुष्ट मनुष्यों के तिरस्कारऔर अपशब्दों को सहन करे और उसने मनुष्य का उद्धारकर्ता बनने के समय इसकी सहमति दी थी।PPHin 55.2

    मसीह ने स्वर्गदूतोंको आश्वस्त किया कि अपनी मृत्यु के माध्यम से कई मनुष्यों को बचा पाएगा और जिसके पास मृत्यु की शक्ति है, उसका विनाश करेगा। मनुष्य ने जिस राज्य को अवज्ञा के कारण गँवा दिया था, उसे वह पुनः प्राप्त करेगा। बचाए हुए लोग उस राज्य को उसके साथ विरासत के रूप में पाएंगे और सदा के लिये उसमें वास करेंगे। पाप और पापियों को जड़ से उखाड़ दिया जाएगा, ताकिवे स्वर्ग या पृथ्वी की शान्ति भंग न कर सके। उसने स्वर्गीय समूह से अपने पिता द्वारा स्वीकृत योजना से सहमत होनेको कहा और इस कारण प्रसन्‍न होने को कहा कि उसकी मृत्यु के माध्यम से पतित मनुष्य का परमेश्वर के साथ मेल-जोल पुनः स्थापित हो जाएगा ।फिर स्वर्ग अकथनीय हर्ष से भर गया। उद्धार पाए हुए संसार की महिमा और सुखद अनुभूति, जीवन के राजकुमार की मनोव्यथा और त्याग से बढ़कर सामने आयी। स्वर्ग के आंगनो से उस गीत के प्रारम्भिक राग गूंजने लगे जिन्हें बेतलेहम की पहाड़ियों के ऊपर गाया जाना था- “आकाश में परमेश्वर की महिमा और पृथ्वी पर उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न है, शान्ति हो”-लूका 2:14। नई सृष्टि के उल्लास से अधिक प्रसन्नता के साथ, “भोर के तारों ने मिलकर गाया और परमेश्वर के सभी पुत्रों ने जय-जयकार किया”-अय्यूब 38:7 ।PPHin 55.3

    उद्धार का पहला संकेत मनुष्य को तब दिया गया जब वाटिका में शैतान को दण्डाज्ञा की घोषणा की गई। परमेश्वर ने घोषणा की, “मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूँगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एडी को डसेगा”-उत्पत्ति 3:45 [प्रथम अभिभावकों की सुनवाई में यह कहा गया कथन उनके लिए एक प्रतिज्ञा थी, इस कथन द्वारा यह भी स्पष्ट था कि मनुष्य और शैतान के बीच युद्ध में महान शत्रु की पराजय निश्चित थी। आदम और हवा धर्मी न्यायकर्ता के सामने अपराधी के रूप में खड़े थे और आज्ञा उल्लंघन की दण्डाज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन अपने हिस्से में आने वाले दु:खों और परिश्रम से भरे जीवन के बारे में या उनके मिट्टी में लौट जाने की व्यवस्था के बारे में सुनने से पूर्व, उन्होंने वे शब्द सुने जिनसे उनमें आशा उत्पन्न की हुई हालांकि उन्हें अपने महान शत्रु के आधिपत्य को भुगतना था, लेकिन वे निर्णायक विजय की आशा कर सकते थे।PPHin 56.1

    जब शैतान ने सुना कि स्त्री और उसके बीच, और उसके वंश और स्त्री के वंश के बीच शत्रुता होगी, तो वह समझ गया कि मानव स्वभाव को भ्रष्ट करने का कार्य अवरूद्ध होगा, और किसी साधन से मनुष्य को इस योग्य बनाया जाएगा कि वह उसकी शक्ति का प्रतिरोध कर सके । लेकिन फिर भी जब उद्धार की योजना स्पष्ट रूप से सामने आईं, तो शैतान अपने दूतों के साथ प्रसन्‍न हुआ कि मनुष्य के पतन पश्चात, वह परमेश्वर के पुत्र को उसके ऊँचे पद से नीचे उतार पाएगा। उसने धरती पर अपने अब तक की योजनाओं की सफलता की घोषणा की। उसने यह भी दावा किया कि मसीह के मानव रूप धारण करने पर उसको भी पराजित किया जा सकता था और फिर पतित मानव जाति का उद्धार रोका जा सकता था।PPHin 56.2

    स्वर्गदूतों ने हमारे प्रथण अभिभावकों को उनके उद्धार हेतु तैयार की गई योजना के बारे में और स्पष्टता से बताया। आदम और उसकी संगिनी को आश्वासन दिया गया कि उनके गम्भीर पाप के बावजूद, उन्हें शैतान के नियंत्रण में नहीं छोड़ा जाएगा। परमेश्वर का पुत्र, अपने जीवन के त्याग से मनुष्य को उसके पापों की दबण्डाज्ञा से मुक्ति दिलाने को तैयार था। उनके लिये परख-अवधि का प्रावधान रखा गया, जिसके दौरान पश्चाताप और मसीह मे विश्वास द्वारा वे फिर से परमेश्वर की संतान बन सकेंगे ।PPHin 56.3

    उनके आज्ञा-उल्लंघन ने जिस त्याग की मांग की, उससे आदम और हवा को परमेश्वर की व्यवस्था की पवित्रता ज्ञात हुई। और उन्होंने पाप का अपराध और उसके गंभीर परिणामों को उस दृष्टिकोण से देखा, जैसा पहले कभी नहीं देखा था। वेदना और ग्लानि से भरपूर, उन्होंने विनती की कि दण्डाज्ञा उसे न दी जाए जिसका प्रेम उनकी प्रसन्‍नताका स्रोत था, बल्कि उन्हें और उनके आने वाले वंशों को दी जाए।PPHin 57.1

    उन्हे कहा गया कि यहोवा की व्यवस्था, धरती और स्वर्ग में, उसकी सत्ता की नींव है और उस व्यवस्था के उल्लंघन के लिये एक स्वर्गदूत का जीवन भी त्याग के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मनुष्य को उसकी पतित अवस्था मे मिलने के लिये व्यवस्था के किसी भी सिद्धान्त को परिवर्तित या निरस्त नहीं किया जा सकता, लेकिन परमेश्वर का पुत्र, जिसने मनुष्य को बनाया, उसके लिये क्षतिपूर्ति कर सकता था। जैसे आदम के आज्ञा उल्लंघन के कारण मृत्यु और दुर्दशा का प्रवेश हुआ, वैसे ही मसीह का त्याग जीवन और अमरता प्रदान करेगा ।PPHin 57.2

    केवल मनुष्य ही नहीं लेकिन पाप के परिणामस्वरूप धरती भी दुष्टके अधीनस्थ हो गई थी और उद्धार की योजना के माध्यम से उसको पूर्वावस्था मे लाना था। सृष्टि के समय आदम को पृथ्वी पर आधिपत्य सौंपा गया था, लेकिन प्रलोभन के प्रति समर्पण के कारण वह शैतान के अधीनस्थ हो गया, “जो व्यक्ति जिससे हार गया है, वह उसकादास बन जाता है”-2 पतरस 2:49 । जब मनुष्य शैतान का दास बनगया, तो उसका आधिपत्य उसके विजेता के पास चला गया। इस तरह शैतान, “इस ससार का ईश्वर”(2 कुरिन्थियों 4:4) बन गया। मूलतः आदम को दिया हुआ पृथ्वी का आधिपत्य शैतान ने हड़प लिया। लेकिन मसीह, दण्डाज्ञा का मूल्य चुका कर न केवल मनुष्य को स्वतन्त्र कराने वाला था, बल्कि आदम द्वारा गँवाए आधिपत्य को पुन: प्राप्त करने वाला था। मीका 4:8 में कहा गया, “हे ऐदर के गुम्मट, हे सिय्योन की पहाड़ी, पहली प्रभुता अर्थात यरूशलेम का राज्य तुझे मिलेगा”। प्रेरित पौलुस भी “मोल लिए हुओं के छुटकारे की और संकेत करता है”-इफिसियों 1:14। परमेश्वर ने धरती को पवित्र और प्रसन्न प्राणियों के निवास स्थान के लिये सजा था। यशायाह 45:18 में लिखा है कि परमेश्वर ने ‘पृथ्वी को रचा और बनाया, उसी ने उसको स्थिर किया, उसने उसे सुनसान रहने के लिये नहीं परन्तु बसने के लिये रचा है।” वह प्रयोजन तभी सम्पन्न होगा जब परमेश्वर की सामर्थ्य से नवीकत, और पाप और दुःख से मुक्त, वह बचाए हुए लोगों का सनातन आवास बन जाएगी ।PPHin 57.3

    “धर्मी लोग पथ्वीके अधिकारी होंगे, और उसमे सदा बसे रहेंगे।”” और फिर श्राप न होगा और परमेश्वर और मेंमने का सिंहासन उस नगर में होगा, और उसके दास उसकी सेवा करेंगे” । भजन संहिता 37:29, प्रकाशित वाक्य 22:3 ।PPHin 58.1

    निष्कपट आदम, अपने सृष्टिकर्ता के साथ प्रत्यक्ष सम्पक॑ का आनन्द लेता था, लेकिन पाप के कारण परमेश्वर और मनुष्य में दूरी आ गईं और अब केवल मसीह द्वारा की गई क्षतिपूर्ति ही, इस अगाघ गर्त को पाटकर, आशीष के संचार और पृथ्वी के, स्वर्ग द्वारा, उद्धार को संभव करा सकती थी। अपने सृष्टिकर्ता तक प्रत्यक्ष पहुँच से मनुष्य अभी भी वंचित था, लेकिन परमेश्वर ने उसके साथ मसीह और स्वर्गदूतों के माध्यम से संपर्क बनाए रखना था।PPHin 58.2

    इस तरह अदन की वाटिका में दण्डाज्ञा की घोषणा से लेकर जल प्रलय तक और उसके आगे परमेश्वर के पुत्र के पहले आगमन तक मानवजाति के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाँए आदम को प्रकाशित की गई। उसे यह भी बताया गया कि मसीह का त्याग समस्त संसार को बचाने के लिये पर्याप्त मोल था, लेकिन कई लोग प्रायश्चित और आज्ञापालन के जीवन के बजाय पाप के जीवन का चयन करेंगे। आने वाली पीढ़ियों द्वारा अपराध बढ़ेगा और मानव जाति और जीव-जन्तुओं पर पाप का श्राप और भारी होता चला जाएगा। स्वयं के चुने पाप के मार्ग के कारण मनुष्य की आयु छोटी हो जाएगी। उसके नैतिक और विवेक सम्बन्धी योग्यता और शारीरिक ढील-ढोल और संयम में तब तक गिरावट आएगी, जब तक यह संसार हर तरह की पीड़ा से ग्रस्त न हो जाएगा। प्रवृति और मनोभाव में लिप्त मानव उद्धार की योजना के महान सत्य को महत्व देने में असमर्थ हो जाएगा। फिर भी मसीहस्वर्ग का त्याग करने में अपने उद्देश्य को थामे हुए, मनुष्य मे रूचि दिखाता रहेगा और उन्हें अपनी कमियाँ और दुर्बलताएँ उसमें छिपाने का आमन्त्रण देगा। जो भी विश्वास में उसके पास आएगा, उसकी हर आश्यकता को वह पूरी करेगा। और हमेशा कुछ ऐसे मनुष्य होंगे जो परमेश्वर के ज्ञान को संरक्षित रखेंगे और प्रचलित अधर्म के मध्य निष्कलंक रहेंगे। बलि की भेंट परमेश्वर द्वारा नियत थी, ताकि वह मनुष्य के लिये उसके पाप की अनुतापी स्वीकृति और उद्धारकर्ता के प्रति अपने विश्वास के अंगीकार का अनंत स्मरण पत्र हो। इन भेंटो का उद्देश्य पतित मानव जाति पर, इस गम्भीर सत्य की छाप को छोड़ना था कि मृत्यु के पाप का परिणाम है। आदम के लिए पहली बलि की भेंट अत्यंत दर्दनाक विधि थी। उसे प्राण लेने के लिये हाथ उठाना था और प्राण केवल परमेश्वर दे सकता था। उसने पहली बार मृत्यु को देखा, और वो समझ गया कि यदि वह आज्ञाकारी होता तो ना ही मनुष्य और ना ही कोई जन्तु मृत्यु को प्राप्त होता। निर्दोष की हत्या करते समय वह इस विचार के डर से थरथराने लगा कि उसके पाप के कारण परमेश्वर के निष्कलंक मेमने का रक्‍त बहाया जाएगा। इस दृश्य को देख उसे अपने पाप की गंभीरता का और भी गहन और विस्तृत आभास हुआ। उसके पाप की क्षतिपूर्ति केवल परमेश्वर का प्रिय पुत्र कर सकता था। और वह उस असीमित अच्छाई पर आश्चर्य करने लगा जो अपराधी को बचाने के लिए ऐसी छुड़ौती देगी। आशा की किरण ने उस अन्धकारमय और भयानक भविष्य को प्रकाशवान बना दिया और अत्यन्त उजाड़ होने से बचा लिया।PPHin 58.3

    लेकिन उद्धार की योजना में मनुष्य की मुक्ति से बढ़कर एक व्यापक और गम्भीर उद्देश्य निहित था। मसीह पृथ्वी पर केवल इसी के लिए नहीं आया, ऐसा भी नहीं था कि इस संसार के निवासी उसकी व्यवस्था को उस तरह मान्यता दे जैसी उसे मिलनी चाहिये, बल्कि इस योजना के माध्यम से सृष्टि के समक्ष परमेश्वर के चरित्र को न्यायसंगत सिद्ध करना था। दूसरे ग्रहों एवं मनुष्य के विवेक का प्रभावित होना मसीह के महान त्याग का परिणाम था और मसीह इसी की प्रतिक्षा कर रहा था, जब कस पर चढ़ाए जाने से पूर्व उसने कहा, “अब इस जगत का न्याय होता है, अब इस जगत का सरदार निकाल दिया जाएगा और में यदि पृथ्वी पर से ऊँचे पर चढ़ाया जाऊंगा, तो सब को अपने पास खींच लूंगा’-यहुन्ना 12:31, 32 ।PPHin 59.1

    मनुष्य के उद्धार के लिये मसीह के मरने की भूमिका ना केवल उसके लिए स्वर्ग को उसकी पहुँच की सीमा में ले आता, वरन्‌ सम्पूर्ण सृष्टि के समक्ष परमेश्वर और उसके पुत्र को शैतान के उपद्रव सम्बन्धित व्यवहार के लिये न्यायसंगत ठहराती। वह परमेश्वर की व्यवस्था की स्थिरता को स्थापित करती और पाप के परिणाम और स्वभाव को प्रकट करती ।PPHin 59.2

    प्रारम्भ से ही महान संघर्ष का विषय परमेश्वर की व्यवस्था थी। शैतान ने परमेश्वर को अन्यायी प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था। उसकी व्यवस्था को त्रुटिपूर्ण बताते हुए उसने सृष्टि की भलाई हेतु उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता जताई। व्यवस्था पर आक्रमण कर वह व्यवस्था के रचयिता के अधिकार को पराजित करना चाहता था। संघर्ष में यह दिखाना था कि ईश्वरीय प्रावधान त्रुटिपूर्ण और परिवर्तनीय थे या सिद्ध और अपरिवर्तनीय थे।PPHin 60.1

    जब शैतान को स्वर्ग से बाहर फेंक दिया गया, उसने पृथ्वी को अपना राज्य बनाने का निश्चय किया। आदम और हवा पर प्रलोभन के माध्यम से विजय पाने के बाद, उसने सोचा कि उसने संसार पर आधिपत्य पा लिया, उसने कहा, “क्योंकि उन्होंने मुझ अपना शासक चुना है” । उसने दावा किया कि पापी को क्षमा प्रदान होना असम्भव था, और इसलिये पतित मानव जाति उसकी यथोचित प्रजा थी, और संसार उसका था। परन्तु परमेश्वर ने अपने इकलौते प्रिय पुत्र को, जो उसके तुल्य था, पाप की दण्डाज्ञा भुगतने के लिये दिया और इस तरह उसने मनुष्य को अपने पक्ष में पुन: बहाल करने और अदन में लौटने का रास्ता बनाया। मसीह ने मनुष्य को पाप मुक्त करने और संसार को शैतान की पकड़ से बचाने का दायित्व लिया। स्वर्ग में प्रारम्भ हुआ महान संघर्ष का निर्णय इसी संसार में, उसी रणभूमि पर होना था, जिसे शैतान ने उसका होने का दावा किया था ।PPHin 60.2

    मसीह का दीन होकर पतित मनुष्य को बचाना समस्त सृष्टि का चमत्कार था। यह वो रहस्य था जिसे अन्य ग्रहों के निष्पाप, बुद्धिजीवी समझने की चेष्ठा करते थे कि मसीह जो अपनी नियति से विशाल सृष्टि के प्राणी की प्रत्येक श्रेणी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए हर नक्षत्र और ग्रह का संचालन करता था, वह अपनी महिमा को त्याग कर मानव रूप को धारण करने को सहमत हो गया। जब मसीह इस संसार में मानव रूप से आया और जैसे-जैसे वह चरनी से लेकर कलवरी तक के रक्‍तरंजिज पथ पर चला, सभी उसके पीछे चलने के बहुत इच्छुक थे।। जो अपमान और तिरस्कार उसने सहा उसे स्वर्ग ने चिन्हित किया और माना कि वह शैतान का भड़कावा था। उन्होंने यह भी देखा कि विरोधी साधनों के कार्य प्रगति कर रहे थे, शैतान मानव जाति पर अन्धकार, व्यथा और आपदा उंडेल रहा था, और मसीह उसका प्रतिकार कर रहा था। उन्‍होंने अन्धकार और प्रकाश के बीच युद्ध को भीष्ण होते देखा। और जैसे ही कस पर लटके यीशु ने अपने अन्तिम यातना के पलों में पुकारा “पूरा हुआ”(यह॒न्ना 19:30); वैसे ही विजय की जयजयकार हर ग्रह और स्वर्ग में गूंज उठी। इस संसार में युगों से चला आ रहा महान संघर्ष का अब निर्णय हुआ और मसीह को विजेता माना गया। उसकी मृत्यु के इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्‍या पिता और पुत्र का मनुष्य के लिये प्रेम इतना पर्याप्त था कि वे आत्मत्याग और बलिदान की भावना का प्रयोग कर सकते थे? शैतान ने झूठे और हत्यारे समान अपना वास्तविक चरित्र दिखा दिया था।यह स्पष्ट हो गया था कि यदि उसे स्वर्ग के बुद्धिजीवियों को नियन्त्रित करने की अनुमति दे दी जाती, तो वह उसी भावना को दर्शाता जैसी उसने अपने अधीनस्थ मनुष्य के पुत्रों पर राज करने में दर्शायी थी। निष्ठावान सृष्टि ने एक आवाज के साथ एकीकृत होकर ईश्वरीय शासन-प्रबन्ध का गुणगान किया । PPHin 60.3

    यदि व्यवस्था परिवर्तनशील होती तो मनुष्य को मसीह के त्याग के बिना बचाया जा सकता था, लेकिन यह तथ्य कि पतित जाति के लिए मसीह का जीवन दान अनिवार्य था, इस बात की पुष्टि करता है कि परमेश्वर की व्यवस्था पापी को व्यवस्था के अधिकार से निवारण नहीं दिला सकती। यह प्रमाणित किया गया कि पाप का प्रतिदान मृत्यु है। जब मसीह मृत्यु को प्राप्त हुआ, तब शैतान का विनाश निश्चित हो गया। लेकिन यदि कूस पर व्यवस्था समाप्त हो जाती, जैसा कि बहुत लोग दावा करते है, तो यह प्रमाणित होता कि परमेश्वर के पुत्र ने वेदना और मृत्यु को इसलिये सहन किया ताकि शैतान को वह मिल सके जो उसने मांगा था, और बुराई के राजकुमार की विजय होती, और ईश्वरीय सत्ता के विरूद्ध उसके आरोप प्रमाणित हो जाते। यह तथ्य कि मसीह ने मनुष्य के पाप की दण्डाज्ञा सही, सभी रचित बुद्धिजीवियों के लिये प्रबल तक है कि व्यवस्था अपरिवर्तनीय है कि परमेश्वर धर्मी, दयावान और आत्मत्यागी है, और उसकी सत्ता के शासन प्रबन्ध में असीम न्याय और कृपा का मेल है।PPHin 61.1

    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents