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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 60—शाऊल उपधारणा

    यह अध्याय 1 शमूएल 13:14 पर आधारित है

    गिलगाल की सभा पश्चात, शाऊलने उससेना कोभंग कर दिया जिसे, अम्मोनियों को उखाड़ फेंकने के लिये, उसके बुलावे पर संगठित किया गया था। केवल तीन हजार पुरूषों को मिकमाश में उसकी आज्ञा के तहत और दोहजार पुरूष गिबा में उसके पुत्र योनातन के लिये आरक्षित किये गए। यह बहुत भारी गलती थी। हाल ही में हुई जीत के कारण उसकी सेना और और साहस से भरी हुई थी, और यदि उसने तत्काल ही इज़राइल के अन्य शत्रुओं पर चढ़ाई कर दी होती, तो वह राष्ट्र की स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रभावशाली प्रहार होता।PPHin 645.1

    इस बीच उनके रणकशल पड़ोसी पलिश्ती सक्रिय थे। एबेनेजर में पराजय के पश्चात उन्होंने अभी भी, इज़राइल के देश के कुछ कुछ पहाड़ी किलों पर अपना स्वामित्व बनाए रखा था, और अब उन्होंने स्वयं को देश के बीचों-बीच स्थापित कर लिया था। सुविधाओं, हथियार और सामग्री के सन्दर्भ में पलिश्ती अनुकूल परिस्थिति में थे। उनके दमनकारी शासन की चिरकालीन अवधि में उन्होंने इज़राइलियों के धातु कर्मकर के व्यवसाय के अभ्यास को प्रतिबंधित कर, अपनी शक्ति को प्रबल करने का प्रयास किया था, क्‍योंकि उन्हें डर था कि इज़राइली हथियार बनाने लगेंगे। शान्ति की स्थापना के बाद भी, कुछ आवश्यक कार्यों के लिये पलिश्ती सेना का सहारा लेने जाते रहे। आरामदेह जीवन की लालसा और दीर्घकालीन अत्याचार से उत्पन्न दीन-हीन भावना से प्रभावित इज़राइल ने, काफी हद तक, स्वयं को युद्ध सम्बन्धी हथियारों से लैस करने की उपेक्षा की थी। युद्ध में धनुष और गोफन का उपयोग किया जाता था, और ये इज़राइलियों को उपलब्ध हो सकते थे, लेकिन सिवाय शाऊल और योनातन के किसी के पास भाला या तलवार नहीं थी।PPHin 645.2

    शाऊल के शासन के दूसरे वर्ष तक पलिश्तियों को अधीकृत करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। प्रथम प्रहार, राजा के पुत्र, योनातन ने किया और गिबा की सेना पर चढ़ाई कर उसे पराजित किया। इस हार से तिलमिलाकर, पलिश्तियों ने शीघ्र ही इज़राइल पर आक्रमण किया। शाऊल ने सम्पूर्ण राज्य में तुरही के स्वर द्वारा रणकुशल पुरूषों को गिलगाल मे एकत्रित होने का बुलावा भेजकर युद्ध की घोषण कही। इनमें यरदन पार के गोत्र भी सम्मिलित थे। इस आज्ञा का पालन किया गया।PPHin 645.3

    पलिशितियों ने मिकमाश में एक विशाल सेना एकत्रित की- “ती हजार रथ, छः: हजार घुड़सवार और समुद्र किनारे की रेत के समान लोगों की भीड़” जब यह समाचार गिलगल में शाऊल और उसकी सेना के पास पहुँचा, तो लोग उस सशक्त सेना के विचार से ही भोंचक्‍के रह गए, जिसका सामना उन्हें करना था। वे दुश्मन का सामना करने के लिये तैयार नहीं थे, और कई तो इतना भयभीत थे कि उनमें मुठभेड़ की कसौटी पर उतरने का भी दुस्साहस नहीं किया। कुछ एक ने यरदन को पार किया, जबकि अन्य क्षेत्र की बहुत ये चटटानों के बीच, और गुफाओं और गड्ढो में छुप गए। जब मुठभेड़ का समय निकट आया, लोगों की वापसी में वृद्धि हुई और जिन्होंने जत्थे को नहीं छोड़ा, वे भय और पूर्वाभास से भर गए। PPHin 646.1

    जब शाऊल को पहली बार इज़राइल का राजा अभिषिक्त किया गया था, उसने शमूएल से इस समय के लिये अपनायी जाने वाली कार्य-प्रणाली से सम्बन्धित स्पष्ट निर्देश दिए गए थे। “तू मुझ से पहले गिलगाल को जाना, और में होमबलि और मेलबलि चढ़ाने के लिये तेरे पास आऊँगा। तू सात दिन तक मेरी बाट जोहते रहना, तब मैं तेरे पास पहुँचकर तुझे बताऊंगा कि तुझ को क्‍या करना है”-1 शमूएल 10:8।PPHin 646.2

    समय बीतने पर भी शाऊल ने लोगों को प्रोत्साहित करने और परमेश्वर में उनके विश्वास को प्रेरित करने का निश्चित प्रयास नहीं किया। भविष्यद्व क्ता द्वारा निर्धारित समय के समाप्त होने के पहले है वह विलम्ब के कारण अधीर हो चला और अपने चारों और की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से हतोत्साहित हो गया। शमूएल द्वारा की जाने वाली धर्म-किया के लिये लोगों को प्रयत्नशील होकर तैयार करने के बजाय, वह अविश्वास और पूर्वाभास में उलझ गया। बलि के माध्यम से परमेश्वर से विनती का कार्य सबसे अधिक विधिवत और आवश्यक कार्य था, और परमेश्वर अपेक्षा करता था कि लोग अपने हृदयों को टटोले और अपने पापों का प्रायश्चित करें, जिससे कि उनके द्वारा चढ़ाई गईं भेंट उसके सम्मुख स्वीकार ठहरे और शत्रु पर विजय पाने के उनके प्रयत्नों पर उसकी आशीष हो। लेकिन शाऊल धैर्यहीन हो गया था, और लोग सहायता के लिये परमेश्वर पर विश्वास रखने के बजाय, मागदर्शन व निर्देशन के लिये, अपने द्वारा चुने हुए राजा की ओर देख रहे थे।PPHin 646.3

    फिर भी प्रभु उनके लिये चिन्तित था और उसने उन्हें विपत्तियों के सुपुर्द नहीं किया, जो उनपरनिश्चय ही आती, यदि हाड़-माँस का मनुष्य उनका एकमात्र सहायक होता। वह उन्हें संकीर्ण अर्थात चुनौतीपूर्ण स्थानों में लाया, जिससे उन्हें मनुष्य पर निर्भर होने की मूर्खता का आभास हो और वे उसे उनकी एकमात्र सहायता मानकर उसकी ओर मुड़े । शाऊल के लिये परीक्षा की घड़ी आ चुकी थी। अब उसे यह प्रमाणित करना था कि वह परमेश्वर पर पूरी रीति से निर्भर होगा या नहीं और उसकी आज्ञानुसार धेर्यपूर्वक प्रतीक्षा करेगा या नहीं, इस प्रकार उसे प्रकट करना था कि चुनौतीपूर्ण या संकीण स्थानों में लोगो का राजा होने के लिये परमेश्वर उस पर विश्वास रख सकता था या वह उसके द्वारा दिये गए पवित्र उत्तरदायित्व के लिये अयोग्य और अनिश्चित होगा। क्‍या इज़राइल द्वारा चुना हुआ राजा राजाओं के राजा की आज्ञाओं का पालन करेगा? क्या वह डरपोक सैनिकों का ध्यान उसकी ओर करेगा जिसमें अनन्त शक्ति और छुटकारा निहित है?PPHin 647.1

    बढ़ती हुई अधीरता के साथ वह शमूएल के आगमन की प्रतीक्षा करता रहा और उसने भविष्यद्बक्ता की अनुपस्थिति को अपनी सेवा के कष्ट, गड़बड़ी और तितर-बितर होने का उत्तरदायी ठहराया। निर्धारित समय आ गया, लेकिन भविष्यद्वक्ता तुरन्त प्रकट नहीं हुआ। परमेश्वर ने अपनी सूझ-बूझ में अपने दास को रोक रखा था। लेकिन शाऊल की बैचेन, आवेगपूर्ण भावना अनियन्त्रित हो चली। इसविचार से कि लोगों के भय को शान्त करने के लिये कुछ तो करना चाहिये, उसने धार्मिक अनुष्ठान के लिये एक सभा का आयोजन करने, और बलि की भेंट के द्वारा ईश्वरीय सहायता के लिये निवेदन करने का निश्चय किया। परमेश्वर का निर्देश था कि उसके सम्मुख केवल वे ही बलि की भेंट चढ़ाएं जिन्हें इस कार्य भार के लिये अभिषिक्त किया गया है। लेकिन शाऊल ने आज्ञा दी “होमबलि को मेरे पास लाओ।” युद्ध के हथियारों और कवच को धारण किए वह वेदी के निकट गया और उसने परमेश्वर के सम्मुख होमबलि चढ़ाई।PPHin 647.2

    “ज्यों ही वह होमबलि को चढ़ा चुका, तो क्‍या देखता है कि शमूएल वहाँ आ पहुँचा, और शाऊल उससे मिलने और उसका अभिवादन करने बाहर निकला।” शमूएल को एकदम ज्ञात हो गया कि शाऊल ने स्पष्ट रूप से उसे दिए गए निर्देशों के विपरीत कार्य किया था। अपने भविष्यद्वक्ता के माध्यम से प्रभु ने कहा था कि इस घड़ी में इस संकट से इज़राइल को कैसे निकालना है। वह परमेश्वर प्रकट करेगा। PPHin 647.3

    यदि शाऊल ने उन शर्तों को माना होता, जिनके आधार पर ईश्वरीय सहायता की प्रतिज्ञा की गई थी, तो परमेश्वर ने इज़राइल का चमत्कारी रूप से छुटकारा करा दिया होता और वह भी उन थोड़े से लोगों के द्वारा जो राजा के प्रति वफादार थे। लेकिन शाऊल स्वयं से और अपने कार्य से इतना सन्तुष्ट था कि वह भविष्यद्वक्ता से मिलने इस प्रकार गया मानो उसको निन्दा के बजाय उसकी प्रशंसा की जानी चाहिये थी।PPHin 648.1

    शमूएल की मुखाकृति चिंतायुक्त और दुखभरी थी, लेकिन जब उसने शाऊल से पूछा, “यह तूने क्या किया?” शाऊल ने अपने हठीले कृत्य के लिये बहाने बनाए। उसने कहा, “जब मैंने देखा कि लोग मेरे पास इधर-उधर हो चले है, और तू ठहराए हुए दिनों के भीतर नहीं आया, और पलिश्ती मिकमाश में इकट्ठा हुए है, तब मैंने सोचा कि पलिश्ती गिलगाल में मुझ पर अभी हा पड़ेगे, और मेंने यहोवा से विनती भी नहीं की है, अतः मैने अपनी इच्छा न रहते भी होमबलि चढ़ाया।*PPHin 648.2

    “शमूएल ने शाऊल से कहा, “तूने मूर्खता का काम किया है, तूने अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञा को नहीं माना, नही तो यहोवा तेरा राज्य इज़राइलियों के ऊपर सदा स्थिर रखता। परन्तु अब तेरा राज्य बना न रहेगा, यहोवा ने अपने लिये एक ऐसे पुरूष को दूँढ लिया है जो उसके मन के अनुसार है, और यहोवा ने उसी को अपनी प्रजा पर प्रधान होने को ठहराया है, क्‍योंकि तूने यहोवा की आज्ञा को नहीं माना। तब शमूएल चल निकला, और गिलगाल से बिन्यामीन के गिबा को गया।” PPHin 648.3

    या तो इजराईल परमेश्वर की प्रजा ना रहे, या जिस सिद्धान्त पर राजशाही की नींव रखी गई, उसे कायम रखा जाना था और राष्ट्र को ईश्वरीय शक्ति द्वारा शासित होना था। यदि इज़राइल पूर्ण रूप से परमेश्वर का हो जाता, यदि मानवीय व सांसारिक इच्छा परमेश्वर की इच्छा के अधीन होती, तो वह इज़राइल का राजा बना रहता। जब तक राजा और प्रजा परमेश्वर के अधीनस्थ होने की तरह व्यवहार करते, तब तक वह उनकी प्रतिवादी वकील होता। लेकिन इज़राइल में कोई भी राजाशाही समृद्ध नहीं हो सकती थी जो हर बात में परमेश्वर के सर्वोच्च अधिकार को स्वीकार नहीं करती।PPHin 648.4

    यदि शाऊल ने इस संकट के समय में परमेश्वर उसके नियमों का मान रखा होता, तो परमेश्वर उसके माध्यम से अपनी इच्छा को पूरी कर सकता था। उसकी असफलता ने उसे परमेश्वर के लोगें के लिये उसका प्रतिनिधि होने के लिये अयोग्य प्रमाणित कर दिया था।वह इज़राइल को पशथमभ्रष्ट कर देता। परमेश्वर की इच्छा के बजाय, नियन्त्रण का अधिकर उसका होता। यदि शाऊल सत्यनिष्ठ होता तो, उसका राज्य हमेशा के लिये स्थापित हो जाता, लेकिन क्योंकि वह असफल रहा था, परमेश्वर का उद्देश्य किसी अन्य के द्वारा सम्पन्न होना था। इज़राइल का प्रशासन उसके सुपुर्द किया था, जो स्वर्ग की इच्छा के अनुसार प्रजा पर राज करे।PPHin 649.1

    हम नहीं जानते कि परमेश्वर के प्रमाणित करने में कौन से महत्वपूर्ण हित दाव पर लगे हों। परमेश्वर के वचन के प्रति सम्पूर्ण आज्ञाकारिता में ही सुरक्षा है। उसकी सभी प्रतिज्ञाएँ विश्वास और आज्ञाकारिता की शर्त पर की गई है, ओर उसकी आज्ञा से सहमत ना होने पर हम पवित्र शास्त्र के प्रावधानों से वंचित हो जाते है। हमें आवेगपूर्ण नहीं होना चाहिये, और ना ही मनुष्य के निणर्य पर निर्भर करना चाहिये, हमें परमेश्वर की प्रकट इच्छा की ओर देखना चाहिये और उसकी निश्चित आज्ञा के अनुसार चलना चाहिये, चाहे हमारे चारों ओर कोई भी परिस्थितियाँ हमें घेरे हों। परमेश्वर परिणाम को देख लेगा; उसके वचन के प्रति विश्वसनीयता दिखाकर हम संकट के समय मनुष्यों और स्वर्गदूतों के सम्मुख प्रमाणित कर सकते है कि प्रभु कठिन परिस्थितियों में अपनी इच्छा को पूरी करने के लिये, उसके नाम को आदर पहुँचाने के लिये और उसके लोगों को आशीषित करने के लिये हम पर विश्वास कर सकता है।PPHin 649.2

    शाऊल ने परमेश्वर को अप्रसन्‍न किया था, लेकिन फिर भी वह प्रायश्चित के द्वारा अपने हदय को दीन नहीं करना चाहता था। जब भी उसमें वास्तविक धार्मिकता का अभाव होता वह धर्म के रूप में अपने उत्साह के द्वारा उसकी भरपाई करने का प्रयत्न करता। होप्नी और पीनहास द्वारा परमेश्वर के पवित्र सन्दूक को छावनी में लाए जाने पर इज़राइल की पराजय से शाऊल अनभिज्ञ नहीं था। लेकिन, यह जानते हुए भी उसने पवित्र सन्दूक और उसकी सेवा टहल करे वाले याजकों को बुलवाने को निश्चय किया। इस साधन से लोगों में विश्वास उत्पन्न कर, उसे अपनी तितर-बितर हुईं सेना को पुनः संगठित कर पलिशितियों पर चढ़ाई करने की आशा थी। शमूएल की उपस्थिति और समर्थन के बिना कार्य कर, वह भविष्यद्वक्ता द्वारा की जानी वाली अवांछनीय आलोचना और निंदा से छुटकारा पाना चाहता था।PPHin 649.3

    शाऊल को पवित्र आत्मा का दान उसकी समझ को प्रबुद्ध और हृदय को कोमल करने के लिये दिया गया था। भविष्यद्वक्ता द्वारा उसे विश्वसनीय निर्देश और फटकार मिली थी। लेकिन फिरभी कितना अधिक था उसका दुशग्रह! इज़राइल के पहले राजा का इतिहास प्रारम्भ की गलत आदतों के प्रभावका दुखद उदाहरण है। अपनी किशोरवस्था में शाऊल परमेश्वर से प्रेम नहीं करता था, और ना ही उसका भय मानता था; इस कारण वह उग्रता की भावना, जिसे प्रारम्भ से ही समर्पण के लिये प्रशिक्षित नहीं किया गया था, ईश्वरीय अधिकार के प्रति विरोध करने के लिये हमेशा तैयार रहती थी। जो किशोरवस्था में परमेश्वर की इच्छा के प्रति श्रद्धायुक्त सम्मान संजोए रखते है और जो अपने पद सम्बन्धी कार्या का विश्वसनीयता से पालन करते है, वे आने वाले जीवन में उच्चतम सेवा के लिये तैयार कियेजाएँगे। लेकिन मनुष्य बहुत वर्षो तक उन शक्तियों को विकृत नहीं कर सकता जो परमेश्वर ने उसे दी है, और फिर,जब वे परिवर्तित होना चाहते है, तो यही क्षमताएँ एक दूसरे पूर्णतया विपरीत कार्यवाही के लिये स्वतंत्र हो जाती है।PPHin 650.1

    प्रजा को जागृत करने के शाऊल के प्रयत्न व्यर्थ ठहरे। जब उसे पता चला कि उसकी सेना में मात्र छ सौ सैनिक बचे थे, वह गिलगाल को छोड़ कर गिबा के गढ में चला गया जिसे हाल ही में पलिश्तियों से छीना गया था। यह गढ़ यरूशलेम से कुछ मील उत्तर की ओर एक गहरी, ऊबड़-खाबड़ घाटी या महाखड्ड के दक्षिण में था। इसी घाटी के उत्तर में पलिश्ती सेना ने मिकमाश में डेरा डाल रखा था, और सेना के छोटे-छोटे दल अलग-अलग दिशाओं में प्रदेश को लूटने गए थे।PPHin 650.2

    परमेश्वर ने इस संकटकालीन स्थिति को शाऊल की विक॒ति को निदंनीय ठहराने और अपने लोगों को विश्वास और दीनता का पाठ पढ़ाने के लिये आने दिया। हठीलेपन में चढ़ाई गईं भेंट में शाऊल के पाप के कारण प्रभु ने पलिश्तियों की पराजय का सम्मान उसे नहीं दिया। राजा के पुत्र, योनातन को, जो परमेश्वर का भय मानता था, इज़राइल को छुटकारा दिलाने के लिये चुना गया। ईश्वर की प्ररेणा से, उसने अपने हथियार ढोनेवाले जवान के सम्मुख शत्रु की छावनी पर गुप्त आक्रमण का प्रस्ताव रखा। उसने कहा, “क्या जाने यहोवा हमारी सहायता करे, क्‍योंकि यहोवा के लिये कोई रूकावट नहीं, कि चाहे वह बहुत लोगों के द्वारा चाहे थोड़े लोगों के द्वारा छुटकारा दे।”PPHin 650.3

    हथियार ढोने वाले ने जो एक विश्वासी और भक्त पुरूष था, इस योजना को प्रोत्साहित किया, और वे चुपचाप छावनी से निकल पड़े, जिससे कि उनके उद्देश्य का विरोध न हो। अपने पूर्वजों के मार्गदर्शक से हार्दिक प्रार्थना कर, उन्होंने सहमति से एक चिन्ह ठहराया जिसके आधार पर उन्होंने आगे बढ़ने का संकल्प किया। दोनो सेनाओं को अलग करती घाटी या महाखड्ढ को पार कर, घाटी के टीले और मेड़ो में आंशिक रूप से संगुप्त और खड़ी चट्टान की छाया में, एक संकीर्ण रास्ते पर वे चुपचाप आगे बड़े।। पलिश्तियों की चौकी के निकट उन्होंने स्वयं को प्रकट होने दिया, जिस पर उनके शत्रुओं ने ताना मारा, “देखो इब्री लोग उन बिलों में से जहाँ वे छुपे हुए थे निकल आए हैं” और फिर उन्हें चुनौती दी, “हमारे पास चढ आओ, तब हम तुम को कुछ सिखाएँगे” अर्थात उन दो इज़राइलियों को उनके दुस्साहस के लिये दण्डित करेंगे। यह चुनौती वही चिन्ह था जिसको योनातन और उसका साथी, प्रमाण के तौर पर मानने के लिये, सहमत हुए थे कि परमेश्वर उनके विशेष कार्य को सफल करेगा। पलिश्तियों की दृष्टि से हटकर, एक गुप्त और दुर्गन पथ को चुनकर, ये दो योद्धा खड़ी चट्टान की चोटी की ओर बड़े जो दुर्लभ मानी गई थी औरजिसपरकड़ा पहरा नहींथा। अतः वेशत्रु की छावनी में घुसे और उन्होंने प्रहरियों को मार डाला, जो भय और अचरज के कारण प्रतिरोध नहीं कर पाए। PPHin 651.1

    स्वर्गदूतों ने योनातन और उसके सेवक की रक्षा की, वे उनके पक्ष में लड़े और पलिश्ती उनके आगे-आगे गिरते गए। पृथ्वी ऐसे काँपं रही थी, मानो घुड़सवारों और रथों सहित एक बड़ी भीड़ उमड़ रही थी। योनातन ने परमेश्वर की सहायता के चिन्हों को पहचान लिया, और पलिश्ती भी जान गए कि इज़राइल के छूटकारे के लिये परमेश्वर कार्य कर रहा था। मैदान और छावनी दोनों जगह सेना भय से भर गईं। गड़बड़ी में, अपने ही सैनिकों को शत्रु समझकर, पलिश्ती एक-दूसरे को मारने लगे।PPHin 651.2

    इज़राइल की छावनी में शीघ्र ही युद्ध का हुल्लड़ सुनाई देने लगा। राजा के प्रहरियों ने सूचना दी कि पलिश्तियों की बीच बहुत गड़बडी फैल गई थी, और उनकी संख्या घट रही थी। अभी भी यह ज्ञात नहीं हुआ था कि इब्री सेना का कोई भी भाग छावनी से निकला था। पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ योनातन और उसका हथियार ढोने वाले के अलावा और कोई अनुपस्थित नहीं था। पलिशि्तियों को इधर-उधर जाता देख, शाऊल ने भी आक्रमण में सम्मिलित होने के लिये अपनी सेना का नेतृत्व किया। इब्री जो शत्रुओं के पक्ष में हो गए थे, अपने गुप्त स्थानों से बाहर निकल आए, और जब पराजित होकर पलिश्ती भाग खड़े हुए, शाऊल की सेना ने पलायकों पर भयानक कहर बरसाया।PPHin 651.3

    अवसर का पूरा लाभ उठाने के संकल्प से, राजा ने सेना को पूरे दिन भोजन न ग्रहण करने का आदेश दिया और अपनी आज्ञा को इस श्राप के द्वारा प्रवर्तित किया, “श्रापित हो, जो साँझ से पहले कुछ खाए, इस रीति से मैं अपने शत्रुओं से प्रतिशोध ले सकेंगा।” शाऊल की जानकारी और सहयोग के बिना ही विजय प्राप्त हो चुकी थी लेकिन पराजित सेना के सम्पूर्ण विनाश के द्वारा वह स्वयं को कीर्तिमान करना चाहता था। भोजन से परहेज रखने की आज्ञा स्वार्थी महत्वकांक्षा से प्रेरित थी और जब उसका स्वयं को ऊँचा उठाने का मनोरथ लोगों की आवश्यकताओं के आड़े आया तो उसे पता चला कि शाऊल उन आवश्यकताओं के प्रति उदासीन था। इस निषेधाज्ञा को विधिवत शपथ द्वारा निश्चित कर शाऊल ने प्रकट किया कि वह अविवेकी और भ्रष्ट था। श्राप के शब्दों ने ही शाऊल के उत्साह को उसी के लिये होने का प्रमाण दिया, ना कि परमेश्वर के आदर के लिये। उसने अपने लक्ष्य को यह कहकर नहीं बताया कि “परमेश्वर अपने शत्रुओं से प्रतिशोध ले सके”, वरन्‌ उसने कहा, ‘मैं अपना प्रतिशोध ले सके।” PPHin 652.1

    निषेधाज्ञा के कारण लोगों ने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन किया। वे सारा दिन युद्ध में व्यस्त रहे थे, और भोजन के अभाव में बेहोश हुए जा रहे थे, और जैसे ही निषेध की घड़ियाँ समाप्त हुई वे लूट पर टूट पड़े और माँस को लहू के साथ ही खा गए, जिससे उन्होंने लहू खाने की निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया। PPHin 652.2

    दिनभर के युद्ध के दौरान राजा की आज्ञा से अनभिज्ञ, योनातन ने एक जंगल से निकलते हुए थोड़ा सा शहद खाकर अनजाने में अपराध किया। शाऊल को यह साँझ होने पर ज्ञात हुआ। उसने घोषणा की थी कि उसकी आज्ञा के उल्लंघन के लिये मृत्यु-दण्ड प्राप्त होगा, और हालाँकि योनातन स्वेच्छा से पाप करने का दोषी नहीं था, हालाँकि परमेश्वर ने अद्भुत रीति से उसका जीवन सुरक्षित रखा था और उसके द्वारा छुटकारा दिलाया था फिर भी राजा ने घोषणा की कि दबण्डाज्ञा को क्रियान्वित किया जाए। अपने पुत्र को प्राण दान देना शाऊल की ओर से एक तरह की स्वीकृति होती कि ऐसी अविवेकी प्रतिज्ञा करने में उसने पाप किया था। यह उसके घमण्ड को चकानचूर कर देता। उसने भंयकर दण्डादेश दिया, “परमेश्वर ऐसा ही करे, वरन्‌ इससे भी अधिक करे, हे योनातन तू अवश्य मारा जाएगा।”PPHin 652.3

    शाऊल विजय के सम्मान का दावा तो नहीं कर सकता था, लेकिन वह अपनी शपथ की पवित्रता को बनाए रखने में उसके उत्साह के लिये सम्मान पाने की आशा कर रहा था। अपने पुत्र को बलिदान करके भी राजसी अधिकार को कायम रखना आवश्यक है। कुछ समय पूर्व, परमेश्वर की आज्ञा के विपरीत, शाऊल ने याजक के तौर पर कर्तव्य पूरा किया। शमूएल के फटकारे जाने पर, उसने ढींठ होकर स्वयं को न्यायसंगत ठहराना चाहा। अब, जब उसकी आज्ञा की अवहेलना की गई-हालाँकि आज्ञा अनुचित थी और उसका उल्लंघन अज्ञानतावश हुआ था-राजा व पिता ने पुत्र को दण्डादेश दे दिया।PPHin 653.1

    लोगों ने दण्डादेश के पालन होने की स्वीकृति नहीं दी। राजा के कोध को चुनौती देकर, उन्होंने घोषणा की, “क्या योनातन मारा जाए, जिसने इज़राइलियों को इतना बड़ा छुटकारा दिलाया है? ऐसा नहीं होगा। यहोवा के जीवन की शपथ, उसके सिर का एक बाल भी भूमि पर गिरने न पाएगा, क्योंकि आज के दिन उसने परमेश्वर के साथ होकर काम किया है।” अहंकारी राजशाह इस सर्वसम्मत निर्णय को अमान्य ठहराने का दुस्साहस नहीं कर सका, और योनातन का जीवन सुरक्षित हो गया। PPHin 653.2

    शाऊल भली-भॉति जान गया कि परमेश्वर और लोगों द्वारा उसके आगे उसके पुत्र को प्राथमिकता दी जा रही थी। योनातन का छुटकारा राजा की अविवेकनीयता की कड़ी निंदा थी। उसे यह पूर्वाभास हुआ कि उसके द्वारा दिया गया श्राप उसी के सर पर आ पडेगा। वह पलिशितियों के साथ युद्ध को जारी न रख सका, और वह असन्तुष्ट और चिड़चिड़ा होकर अपने घर लौट आया।PPHin 653.3

    जो अपने पाप को न्यायसंगत ठहराने या उसको छोड़ देने को सबसे अधिक तत्पर रहते हैं, वे प्रायः दूसरों का न्याय करने और दण्ड देने में कठोर होते हैं। शाऊल की तरह, वे स्वयं को परमेश्वर की अप्रसनन्‍नता का पात्र बनाते हैं, और उसकी सम्मति को स्वीकार नहीं करते और फटकार से घृणा करते है। प्रभु का उनके साथ ना होने का विश्वास होने पर भी वे स्वयं में अपने संकट का कारण देखने से मना कर देते है। वे एक ढींगमार और अहंकारी भावना से भरे होते है और स्वयं से बेहतर लोगों के प्रति अति कर अन्याय और कड़ी निंदा करते हैं। अच्छा होता कि यह स्व-संगठित न्‍यायी मसीह के इन शब्दों पर मनन करे, “क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा, और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी नाम से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा। - मत्ती 7:2।PPHin 653.4

    प्रायः जो स्वयं को उन्‍नत करना चाहते है, उन्हें उन पदों पर आसीन किया जाता है जहाँ उनका वास्तविक चरित्र प्रकट होता है। ऐसा ही शाऊल के साथ हुआ। उसी की कार्य-प्रणाली ने लोगों पर प्रकट कर दिया कि उसे न्याय दया और उदारता से अधिक राजसी सम्मान और अधिकार प्रिय थे। इस प्रकार लोगों को परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सरकार का तिरस्कार करने में उनकी गलती का एहसास कराया गया।PPHin 654.1

    जिसकी प्रार्थनाओं के कारण आशीषें उतर कर नीचे आयी थी, उस पवित्र भविष्यवक्ता के स्थान पर उन्होंने राजा को चुना, जिसने अपने अन्धे उत्साह में उनपर श्राप की प्रार्थना की।PPHin 654.2

    यदि इज़राइलियों ने योनातन का जीवन बचाने के लिये हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो राजा की आज्ञा के अनुसार उन्हें छुटकारा दिलाने वाला नष्ट कर दिया गया होता। इसके पश्चात्‌ लोग कितने सन्देह के साथ शाऊल के मार्गदर्शन में चले होंगे। कितनी कड़ावाहट होगी उस विचार में कि उसे उन्हीं के कृत्य के कारण सिंहासन पर बैठाया गया था। परमेश्वर लोगों के स्वेच्छाचार के प्रति चिरसहिष्णु होता है, और सभी को उनके पाप देखने और त्यागने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन भले ही वह उसकी चेतावनियों का तिरस्कार और उसकी इच्छा की अवमानना करने वालों को समृद्ध या सफल करता प्रतीत होता तो, वह अपने समयानुसार निश्चय ही उनकी मूर्खता को प्रकट करेगा।PPHin 654.3