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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 9—यथाशब्द सप्ताह

    सबत के दिन की तरह, सप्ताह भी सृष्टि के समय आरम्भ हुआ और इसे सुरक्षित रख बाईंबिल के इतिहास द्वारा, हम तक लाया गया। परमेश्वर ने स्वयं समय के अंत तक उत्त्तरोत्तर सप्ताहों के लिये उदाहरण के तौर पर पहले सप्ताह को संयत किया। अन्य हर सप्ताह की तरह इसमें भी सात यथाशब्द दिन थे। सृष्टि की रचना में छः दिन लगे, सातवें दिन परमेश्वर ने विश्राम किया और फिर उसने इसे धन्य ठहराया और मनुष्य के लिये विश्राम दिन के लिये अलग किया।PPHin 103.1

    सिने से दी गई व्यवस्था में परमेश्वर ने सप्ताह और उन तथ्यों को जिन पर ये आधारित है, मान्यता दी। “तू विश्रामदिन को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखना,” यह आज्ञा देने के बाद और यह स्पष्ट करते हुए कि छः दिनों में क्‍या करना चाहिये और सातवें दिन में क्या नहीं करना चाहिए, वह अपने उद्धाहरण की ओर संकेत करते हुए सप्ताह का इस तरह मानने का कारण बताता है, “क्योंकि छ: दिन में यहोवा ने आकाश और पृथ्वी और समुद्र और जो कुछ उनमें है, सब को बनाया और सातवें दिन विश्राम किया, इस कारण यहोवा ने विश्रामदिन को आशीष दी और उसको पवित्र ठहराया ।-निर्गमन 20:5-11 जब हम सृष्टि के दिनों को यथाशब्द समझते है तो कारण उत्कृष्ट और प्रबल लगता है। सप्ताह के पहले छः दिन मनुष्य को श्रम के लिये दिए गए हैं क्‍योंकि परमेश्वर ने सृष्टि की रचना के लिये पहले सप्ताह में से इतने ही समय का उपयोग किया। सांतवे दिन मनुष्य को सृष्टिकर्ता के विश्राम के स्मरण में कार्य से निवृत्त रहना है।PPHin 103.2

    लेकिन यह मान्यता चौथी आज्ञा की नींव पर प्रत्यक्ष प्रहार करती है कि पहले सप्ताह की घटनाओं को घटित होने में कई हजार वर्ष लगे। यह सृष्टिकर्ता को ऐसे प्रस्तुत करती है जैसे वह मनुष्य को व्यापक अनिश्चित अवधि के स्मरण में सप्ताह के यथाशब्द दिनों को मानने हेतु आज्ञा दे रहा हो। यह उसके मनुष्य के साथ व्यवहार करने के तरीके के अनुकूल नहीं है। यह परमेश्वर द्वारा स्पष्ट सत्यों को अनिश्चित और सन्देशहास्पद बना देती है। यह अधर्म का अत्यन्त घातक और इस कारण सबसे भंयकर रूप है; उसकी वास्तविक विशेषता इतनी गुप्त है कि कई स्वयं को बाईबल विश्वासी कहने वाले इसको मान्यता देते हैं और इसकी शिक्षा देते है।PPHin 103.3

    भजन संहिता 33:6, 9 में लिखा है कि “आकाश मण्डल यहोवा के वचन से और उसके सारे गण उसके मुहँ की श्वास से बने” “क्योंकि जब उसने कहा तब हो गया, जब उसने आज्ञा दी, तब वास्तव में वैसा ही हो गया। बाईबल किसी दीर्घकाल को मान्यता नहीं देती, जिसमें धरती अव्यवस्था में से धीरे-धीरे विकसित हुई। सृष्टि के हर कमानुसार दिन के सन्दर्भ में पवित्र अभिलेख घोषित करता है कि बाद के दिनों की तरह उस दिन में भी सुबह और शाम हुई। हर दिन के अन्त में परमेश्वर के किया कलाप का परिणाम दिया गया है। पहले सप्ताह के अभिलेख के अन्त में यह कथन कहा गया, “आकाश और पृथ्वी की उत्पत्ति का वृत्तान्त यह है कि जब वे उत्पन्न हुए” लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सृष्टि के दिन यथाशब्द दिन नहीं थे [उत्पत्ति शब्द का प्रयोग इसलिये किया गया, क्‍योंकि हर दिन परमेश्वर ने उत्पत्ति की या अपने कार्य का कोई नया भाग उत्पन्न किया।PPHin 104.1

    भूवैज्ञानिक धरती से ही साक्ष्य मिलने का दावा करते है कि धरती मूसा के समय के अभिलेख के अनुसार बताए जाने से भी प्राचीन है। वर्तमान में या हजारों वर्ष पूर्व अस्तित्व में रहे, पेड़, पशु और युद्ध के उपकरणों की तुलना में अत्यन्त विशाल मनुष्य व पशुओं की हडिडयाँ, युद्ध के हथियार, पथराए हुए पेड़ पाए गए है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि पृथ्वी सृष्टि के समय से बहुत पहले जनपूर्ण हो गई थी और प्राणियों के उस वंश द्वारा जो वर्तमान के जीवित पुरूषों से बहुत भारी-भरकम थे। ऐसे विचारों ने कई तथाकथित बाईबिल विश्वासियों को यह दृष्टिकोण अपनाने को विवश कर दिया है कि सृष्टि के दिन व्यापक अनिश्चित काल थे।PPHin 104.2

    लेकिन बाईबिल इतिहास से परे भूविज्ञान कुछ भी प्रमाणित नहीं कर सकता। जो भूविज्ञान की खोजों पर इतने विश्वास के साथ तक॑-वितक॑ करता है, उसे न ही जलप्रलय पूर्व मनुष्यों, पशुओं और वृक्षों के माप का पर्याप्त अनुमान है और न ही उस समय हुए परिवर्तनों का। धरती से मिले अवशेष इस बात का प्रमाण है कि कई विषयों में अब और तब की स्थिति में अन्तर था लेकिन इन स्थितियों के अस्तित्व में होने का समय केवल प्रेरित आलेख से ही ज्ञात हो सकता है। जल-प्रलय के इतिहास में, प्रेरणाने वह स्पष्ट किया जो भूविज्ञान अकेला कभी भी समझ नहीं पाता। नूह के दिनों में मनुष्य, जन्तु और वृक्ष, आज जो अस्तित्व में है, उनसे बहुत बड़े थे, गाड़े गए। इस तरह वे आने वाली पीढ़ियों के लिये साक्ष्य के भांति सरंक्षित किये गए कि जल प्रलय पूर्व वासियों का विनाश जलप्रलय द्वारा हुआ था। यह परमेश्वर की योजना थी कि इन बातों की खोज प्रेरणा के प्रभाव में लिखे गए इतिहास में विश्वास को स्थापित करें, लेकिन मनुष्य अपने आधारहीन तक के कारण वही गलती करते हैं जो जलप्रलय पूर्व के वासियों ने की थी; परमेश्वर द्वारा दी गईं वरदान जैसी वस्तुओं का दुरूपयोग कर वे उन्हें श्राप में बदल देते है। लोगों को अधर्म की कल्पित कथाओं को मान्यता देने को प्रोत्साहित करना शैतान की कई चालों में से एक है, क्योंकि इस तरह वह, अपने आप में स्पष्ट और साधारण व्यवस्था को जटिल बना देता है और मनुष्य को ईश्वरीय सत्ता का विरोध करने में सशक्त करता है। उसके प्रयत्न चौथी आज्ञा के विरूद्ध विशेष रूप से निर्देशित होते है, क्योंकि यह आज्ञा धरती और आकाश के सृजनहार जीवित परमेश्वर की और स्पष्टता से संकेत करती है।PPHin 104.3

    सृष्टि के कार्य को प्राकृतिक कारणों का परिणाम मानकर समझने के भरसक प्रयत्न किये जाते है, और तथाकथित मसीही लोग भी मानव प्रधान तक का अंगीकार करते है जो पवित्र शास्त्र के तथ्यों के विरूद्ध है। कई लोग ऐसे हैं जो भविष्यद्वाणियों के अन्वेषण का विरोध करते हैं; विशेषतः दानियल औरप्रकाशितवाक्य की, जिन्हें वह इतना अस्पष्ट मानते है कि उन्हें समझना असम्भव है, फिर भी यही लोग मूसा के लेख का खण्डन करते हुए भूवैज्ञानिकों के अनुमानों को उत्सुकतापूर्वक ग्रहण करते है। लेकिन यदि परमेश्वर द्वारा प्रकाशित किया हुआ समझने के लिये इतना कठिन है, तो कितना अनुचित है, ग्रहण करना उन अनुमानित बातों को जिससे सम्बन्धित परमेश्वर ने कुछ भी प्रकाशित नहीं किया है। PPHin 105.1

    व्यवस्थाविवरण 29:29 में लिखा है “गुप्त बातें हमारे परमेश्वर यहोवा के वंश में है, परन्तु जो प्रगट की गईं है, वे सदा के लिये हमारे और हमारे वंश के वंश से रहेगी।” जैसा कि उसने मनुष्य को यह कभी प्रकाशित नहीं किया कि परमेश्वर ने सृष्टि के कार्य को कैसे सम्पन्न किया, वैसे ही मानव विज्ञान सर्वोच्च के रहस्य को कभी नहीं दूँढ सकता। उसकी सृजनात्मक प्रतिभा उसके अस्तित्व जैसी अबोध्य है।PPHin 105.2

    परमेश्वर ने संसार पर, कला और विज्ञान में अत्यधिक प्रकाश के उँडेले जाने की अनुमति दी है, लेकिन जब तथाकथित विज्ञान सम्बन्धी पुरूष इन विषयों का केवल मानवीय दृष्टिकोण से चिंतन करेंगे तो वे निश्चय ही गलत निष्कर्ष पर पहुँचेंगें। यदि हमारे सिद्धान्त पवित्र शास्त्र के तथ्यों के विरूद्ध न हो,परमेश्वर द्वारा प्रकाशित बातों के परे अनुमान लगाना अहानिकारक हो सकता है; लेकिन जो परमेश्वर के वचन को छोड़, उसके सृजन के कार्यों के व॒तान्त को वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित करने का यत्न करते है, वे एक अज्ञात समुद्र में बिना समुद्री नक्शे या दिशासूचक के बहे जा रहे हैं। महानतम बुद्धिजीवी भी, विज्ञान और ईश्वर शक्ति के सम्बन्ध को जानने के प्रयत्नों में किकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है, यदि उनका अनुसंधान परमेश्वर के वचन द्वारा मार्गदर्शित नहीं होता। सृष्टिकर्ता और उसके कार्य मनुष्य की कल्पना से इतने बाहर है कि वे उन्हेंप्राकतिक नियमों से नहीं समझा सकते, इसलिये वे बाईबिल इतिहास को अविश्वसनीय मानते है। जो भी पुराने और नये नियम के अभिलेखों की विश्वसनीयता पर सन्देह करते है, उन्हें परमेश्वर के अस्तित्व पर संदेह करने के लिये एक कदम बढ़ने दिया जाता है और फिर जब वे अपने लंगर को खो देते हैं, उन्हें अधर्म की चट्‌टानों पर टकराते रहने के लिये छोड़ दिया जाता है।PPHin 105.3

    ये लोग विश्वास की सरलता को गँवा चुके हैं। परमेश्वर के पवित्र वचन की दिव्य सामर्थ्य में विश्वास होना चाहिए। बाईबल का मनुष्य के विज्ञान-प्रधान विचारों द्वारा परीक्षण नहीं किया जाना चाहिए। मानव-ज्ञान एक अविश्वसनीय मार्गदर्शक है। नास्तिक जो बाईबल को दोष ढूंढने के लिये पढ़ते है, विज्ञान या रहस्योद्धाटन की त्रुटिपूर्ण धारणा के माध्यम से इनमें मतभेद होने का दावा कर सकते है, लेकिन यदि उचित तरीके से समझा जाए तो यह सम्पूर्ण सहमति में हैं। मूसा ने परमेश्वर के आत्मा के मार्गदर्शन में लिखा और भूविज्ञान की सही धारणा कभी भी उन खोजों का दावा नहीं करेगी जो मूसा के कथनों को इनके साथ सहमत न करा सके। हर सत्य प्रकृति में हो या प्रकाशितवाक्य में, अपनी समस्त अभिव्यक्तियों में स्वयं के साथ संगत है। PPHin 106.1

    परमेश्वर के वचन में कई प्रश्न उठाए जाते हैं जिनका उत्तर पारंगत विद्वान भी नहीं दे सकते। इन विषयों की ओर हमारा ध्यान खींचा जाता है यह दिखाने के लिये कि नित्य जीवन की साधारण बातों में भी कितना कुछ है, जो सीमाबद्ध बुद्धिजीवी अपनी प्रशंसनीय, बुद्धिमता के होते हुए भी पूरी तरह नहीं समझ सकते ।PPHin 106.2

    फिर भी विज्ञान-प्रधान मानव सोचता है कि वह परमेश्वर की बुद्धिमता को समझ सकता है, जो उसने किया है और जो वह कर सकता है। यह विचार प्रचलित है कि परमेश्वर स्वयं की व्यवस्था से सीमित है। मनुष्य या तो उसके अस्तित्व को अनेदखा कर देते है या अस्वीकार कर देते है। वे सब कुछ समझाने का प्रयत्न करते है-मानव हृदय पर पवित्र आत्मा का प्रभाव भी, और वे ना ही उसके नाम कोआदरपूर्वक लेते है और ना ही उसकी शक्ति का भय मानते है। वे अलौकिक में विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे परमेश्वर की व्यवस्था को, उसके माध्यम से उसकी छइच्छापूर्ति करने की अनन्त शक्ति को नहीं समझते। साधारणतया “प्रकृति के नियम” पदबंध के अंतरगत भौतिक संसार का संचालन करने वाले नियमों से सम्बन्धित मनुष्य की खोज आती है, लेकिन कितना सीमित है उनका ज्ञान और कितना विशाल है वह क्षेत्र जिसमें सृष्टिकर्ता स्वयं के नियमानुसार कार्य कर सकता है, लेकिन यह सीमाबद्ध मनुष्य की समझ से पूर्णतया बाहर है।PPHin 106.3

    कई यह शिक्षा देते है कि तत्व में प्राणाधार शक्ति होती है-कि तत्व को विशेष गुण प्रदान किये गए है, और फिर उसे अपनी अंतर्निहित शक्ति के माध्यम से कार्यशील होने के लिये छोड़ दिया गया है, और यह कि प्रकृति के क्रिया-कलाप स्थायी नियमों के अनुसार संचालित होते है, जिसमें परमेश्वर भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यह कृत्रिम विज्ञान है और परमेश्वर के वचन पर आधारित नहीं है। प्रकृति सृष्टिकर्ता की सेवक है। परमेश्वर ना ही अपने नियमों को निरस्त करता है और ना ही उनके विपरीत काम करता है, लेकिन वह उन्हें निरंतर अपने साधन की तरह प्रयोग करता है। प्रकृति एक प्रतिभा, एक उपस्थिति, एक सक्रिय शक्ति की साक्षी है और वह अपने नियमों में और नियमों के माध्यम से काम करती है। प्रकृति में पिता और पुत्र का नियमित संचालन है। यहून्ना 5:17में लिखा है, “मेरा पिता अब तक काम करता है और मैं भी काम करता हूँ।” नहेम्याह द्वारा रचित भजन में लैवीयों ने गाया, “तू ही अकेला यहोवा है, स्वर्ग वरन सब से ऊँचे स्वर्ग और उसके सब गण और पृथ्वी और जो क॒छ उसमें है, सभी को तू ही ने बनाया और सभी की रक्षा तू ही करता है”-नहेम्याह 9:6। इन संसार के सन्दर्भ में परमेश्वर का सृष्टि का कार्य सम्पन्न हो गया है। इब्रानियों 4:3में लिखा है “जगत की उत्पत्ति के समय से उसके काम पूरे हो चुके थे”। लेकिन उसकी उर्जा अभी भी उसकी सृष्टि की कृतियों को कायम रखने में कार्यरत है। ऐसा इसलिये नहीं है कि एक बार गतिशील बना दिये जाने के बाद यंत्र स्वयं की अंतर्निहित ऊर्जा से क्रिया करता है और धड़कन और श्वास चलती रहती है, वरन्‌ ऐसा इसलिये है क्योंकि हर श्वास हृदय की हर धड़कन उसके सम्पूर्ण व्यापक संरक्षण की साक्षी है जिसमें प्रेरितों के काम 17:28 के अनुसार, “हम जीवित रहते, चलते फिरते रहते और स्थिर रहते है” । यह किसी अंतर्निहित शक्ति के परिणामस्वरूप नहीं कि पृथ्वी अपने उपहार हर वर्ष उत्पन्न करती है और सूर्य की परिकमा करती है। परमेश्वर का हाथ ग्रहों का संचालन करता है और आकाश में उनके यथाकम गमन में उन्हें उपयुक्त स्थान पर रखता है। यशायाह 40:26 में लिखा है, “वह इन गणों को गिन गिनकरनिकालता, उन सब को नाम लेकर बुलाता है। वह ऐसा सामर्थी और अत्यन्त बलवान है कि उनमें से कोई बिना आए नहीं रहता।” उसकी सामर्थ्य से वनस्पति पनपती है, पत्ते प्रकट होते है और पुष्प खिल उठते है। भजन संहिता 147:8 में लिखा है, “वह पहाड़ो पर घास उगाता है, और उसी के द्वारा मैदान फलते-फलते है।” “वन के सब जीव-जन्तु ईश्वर से अपना आहार मांगते है” और प्रत्येक जीवधारी, न्यूनतम कीड़े से लेकर मनुष्य तक, उसके शुभ संरक्षण पर प्रतिदिन निर्भर करता है। भजन रचयिता के सुन्दर शब्दों में “इन सब को तेरा ही आसरा है कि तू उन्हें देता है, वे चुन लेते है, तू अपनी मुटठी खोलता है और वे उत्तम पदार्था से तृप्त होते हैं’ — भजन संहिता 104:20,21,27,28। उसका वचन तत्वों पर नियंत्रण रखता है, वह आकाश को बादलों से आवृत करता है और पृथ्वी क लिये मेघ को तैयार करता है। भजन संहिता 147:16के अनुसार, “वह ऊन के समान हिम को गिराता है, और राख के सम्मान पाला विखेरता है”। यिर्मयाह 10:43 में लिखा है, “जब वह बोलता है तब आकाश में जल का बड़ा शब्द होता है और पृथ्वी के छोर से वह कोहरे को उठाता है। वह वर्षा के लिये बिजली चमकाता और अपने भण्डार में से पवन चलाता है।” PPHin 107.1

    परमेश्वर हर वस्तु का आधार है। वास्तविक विज्ञान उसके कामों के अनुकूल है, सच्ची शिक्षा उसकी सत्ता के प्रति आज्ञाकारिता सिखाती है। विज्ञान हमें नये चमत्कार दिखाता है, वह ऊंचे स्तर पर पहुँचकर नए विचार-गंभीयय॑ विषयों का अनवेषण करता है, लेकिन वह अपने अनुसंधान से ऐसा कुछ नहीं लाता जो ईश्वरीय प्रकाशितवाक्य के प्रतिकूल हो। विज्ञान की दुहाई देकरअज्ञानता गलत धारणाओं का समर्थन करने का प्रयत्न करती है, लेकिन प्रकृति का ग्रंथ और लिखित वचन एक दूसरे पर प्रकाश डालते है। इस प्रकार हमें सृष्टिकर्ता की प्रशंसा करने के लिये और उसके वचन ने बौद्धिक विश्वास के लिये मार्गदर्शित किया जाता है।PPHin 108.1

    कोई भी सीमाबद्ध बुद्धिजीवी परमेश्वर के अस्तित्व, सामर्थ्य और विवेक को संपूर्ण से नहीं समझ सकता। अय्यूब 11:7-9 में लिखा है, “क्या तू परमेश्वर का गूढ़ भेद पा सकता है? क्या तू सर्वशक्तिमान का मर्म पूरी रीति से जांच सकता है? वह आकाश से ऊंचा है-तू क्‍या कर सकता है? वह अधोलोक से गहरा है, तू क्या समझ सकता है? उसका माप पृथ्वी से भी लम्बा है और समुद्र से चौड़ा है। पृथ्वी के सर्वोत्तम बुद्धिजीवी भी परमेश्वर को नहीं समझ सकते । मनुष्य ढूँढ रहे हों, सीख रहे हों, लेकिन फिर भी उसके परे एक असीमितता है।PPHin 109.1

    लेकिन फिर भी सृष्टि की कतियाँ परमेश्वर की महानता और क्षमता की साक्षी है। भजन संहिता 19:1में लिखा है, “आकाश परमेश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है।” जो लिखित वचन को अपने परामर्शदाता के रूप में लेता है तो उसे विज्ञान में परमेश्वर को समझने का साधन मिलेगा। रोमियों 1:20 में लिखा है, “उसके अनदेखे गुण, अर्थात उसकी सनातन सामर्थ्य और परमेश्वर जगत की सृष्टि के समय से उसक कामों के द्वारा देखने में आते हैं।PPHin 109.2

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