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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 18—मल्लयुद्ध (कुश्ती) की रात

    यह अध्याय उत्पत्ति 32 और 33 पर आधारित है

    यद्यपि याकूब ईश्वरीय निर्देश का पालन करते हुए पदानराम को छोड़ चुका था, फिर भी बीस वर्ष पूर्व जिस मार्ग में वह पलायक के रूप में चला या, उस पर वापस जाने में उसे सन्देह हो रहा था। अपने पिता को धोखा देने का पाप हमेशा उसके सामने आ जाता था। उसे ज्ञात था कि उसका दीर्घकालीन प्रवास उसके पाप का प्रत्यक्ष परिणाम था। इन बातों को वह रात दिन सोचता रहता था और एक अभियोगात्मक अन्तरात्मा द्वारा उसका तिरस्कार उसकी यात्रा को दुःखद बना रही थी। जैसे ही दूर से उसके जन्म-स्थान के पहाड़ दिखाई दिए, कुलपिता का हृदय विचलित हो गया। पिछली बातें स्पष्ट रूप से उसके सामने आ खड़ी हुईं। पाप के स्मरण के साथ ही उसे अपने प्रति परमेश्वर की दयालुता का विचार आया। और उसे ईश्वरीय सहायता और मार्गदर्शन का विचार भी आया। PPHin 191.1

    यात्रा के अन्तिम पड़ाव में, एसाव का विचार अपने साथ कई विपत्ततियों को पूर्वाभास लेकर आया। याकूब के भाग जाने के पश्चात, एसाव स्वयं को अपने पिता की धन-सम्पत्ति का एकमात्र उत्तराधिकारी मानता था। याकूब के लौट कर आने का समाचार उसमे यह डर उत्पन्न कर देता कि वह अपनी मीरास का दावा करने के लिये आ रहा था। एसाव, यदि चाहता तो, अपने भाई को अधिक हानि पहुँचाने में सक्षम था, और वह न केवल बदले की इच्छा से हिंसक हो सकता था, बल्कि उस सम्पत्ति पर बाधा रहित अधिकार सुरक्षित करने के कारण भी क्‍योंकि वह उसे अभी तक अपनी समझता था। PPHin 191.2

    परमेश्वर ने फिर से याकूब को ईश्वरीय सुरक्षा का प्रतीक प्रदान किया। जब उसने गिलाद पर्वत से दक्षिण की ओर यात्रा की, स्वर्गदूतों के दो समूह उसे आगे और पीछे घेरे हुए प्रतीत हुए और उसकी टोली के साथ, मानो उनकी सुरक्षा हेतु चलते रहे। याकूब ने बेथेल में देखे स्वप्नदर्शन को स्मरण किया और उसके हृदय को बोझ कम हुआ, जब उसने इस प्रमाण को देखा कि जिन पवित्र सन्देशवाहकों ने उसके कनान से भागने के समय उसे आशा और साहस प्रदान किया था वही उसके लौटने में उसके रक्षक होंगे। और उसने कहा, “यह तो परमेश्वर का दल है, इसलिये उसने उस स्थान का नाम महनैम रखा”- “दो दल या टोली”।PPHin 191.3

    लेकिन फिर भी याकूब को लगा कि उसे अपनी सुरक्षा के लिये कुछ करना चाहिये। इस कारण उसने अपने भाई के लिये मैत्रीपूर्ण अभिवादन लिये सन्देशवाहकों को भेजा। उसने उन्हें एसाव को संबोधित करने वाले उचित शब्दों का निर्देश दिया। दोनो भाईयों के जन्म से पूर्व यह भविष्यद्वाणी की गई थी कि बड़ा छोटे की सेवा करेगा और इस डर से कि इस बात के कारण कड़वाहट उत्पन्न हो सकती थी, याकूब ने अपने दासों से कहा कि वहउन्हें ‘ऐसाव, मेरे स्वामी” के पास भेज रहा है और ऐसाव के सामने वे उसे ‘तेरा दास याकब’ कहकर बुलाएँ । इस डर को दूर करने के लिये कि वह एक असहाय पलायक के रूप में अपनी पैतृक धन पर दावा करने के लिये आ रहा था, याकूब ने ध्यानपूर्वक अपने संदेश में कहलवाया, “मेरे पास गाय-बैल, गधे, भेड़-बकरियाँ और दास दासियाँ है, और मैंने अपने प्रभु के पास इसलिये संदेश भेजा है कि तेरे अनुग्रह की दृष्टि मुझ पर हो।” PPHin 192.1

    लेकिन याकूब के दूतों ने लौटकर समाचार दिया कि एसाव चार सौ आदमियों के साथ आ रहा था और मैत्रीपूर्ण सन्देश का उसने कोई उत्तर नहीं दिया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह निश्चय की प्रतिशोध लेने कोआरहा था। डेरे में डर फैल गया। “तब याकूब बहुत डर गया और संकट में पड़ा ।” वह पीछे नहीं जा सकता था, और आगेबढ़ने में डर रहा था। उसका निहत्था व निस्सहाय दल प्रतिरोधी मुठभेड़ के लिए बिल्क॒ल तैयार नहीं था और यह सोचकर उसने अपने दल को दो भागों में बाँट दिया कि यदि एसाव आकर पहले दल को मारने लगे तो दूसरा दल भाग कर बच जाए। उसने अपने पशु-धन में से एसाव के लिये बहुत से उपहार भेजे और साथ ही मैत्रीपूर्ण सन्देश भी भेजा। अपने भाई के साथ धोखा करने की क्षतिपूर्ति के लिये और चुनौतीपूर्ण खतरे को टालने के लिये जो भी उसके बस में था उसने किया, और फिर दीन होकर पश्चाताप के साथ ईश्वरीय सुरक्षा के लिये विनती की, “तूने मुझ से कहा था कि अपने देश और जन्मभूमि में लौट जा, और में तेरी भलाई करूंगा, तूने जो काम अपनी करूणा और सच्चाई से अपने दास के साथ किये है कि मैं जो अपनी छड़ी ही लेकर इस यरदन नदी के पार उतर आया, और अब मेरे दो दल हो गए है, तेरे ऐसे कामों में से में एक के भी योग्य नहीं हूँ। मेरी विनती सुनकर मुझे मेरे भाई एसाव के हाथ से बचा, मैं तो उससे डरता हूँ. कही ऐसा न हो कि वह आकर मुझे और माँ समेत लड़को को भी मार डाले।”PPHin 192.2

    अब तक वे यब्बोक नदी के पास पहुँच गए थे। रात होने पर याकूब ने अपने परिवार को नदी के पार भेज दिया और स्वयं अकेला पीछे रह गया। उसने रात प्रार्थना में बिताने का निश्चय किया और परमेश्वर के साथ अकेले रहना पसन्द किया। परमेश्वर एसाव के हृदय को विनम्र कर सकता था। कुलपिता की आशा उसी में थी। PPHin 193.1

    उस निर्जन, सुनसान, अरक्षित पहाड़ी इलाके में, जो चारों और हत्यारों के छुपने का स्थान व जँगली जानवरों का घर था, याकूब व्यथित मन लेकर पृथ्वी पर दण्डवत हुआ। मध्यरात्रि का समय था। जिनके लिये उसे जीवन से प्रेम था वे उससे दूर थे और मृत्यु और संकट उन पर मंडरा रहे थे। सबसे कष्टदायक विचार यह था कि उसके पाप के कारण यह विपत्ति उन निर्दाषों पर आ पड़ी थी। आँसुओं के साथ ऊंचे स्वर में उसने परमेश्वर से प्रार्थना की। अचानक एक शक्तिशाली हाथ उस पर पड़ा। उसने सोचा कि कोई शत्रु उसके प्राण लेना चाहता था और वह हमलावर की पकड़ से स्वयं को छूड़ाने का प्रयत्न करता रहा। अन्धकार में दोनो स्वामित्व के लिये संघर्ष करते रहे। एक भी शब्द नहीं बोला गया, लेकिन याकूब ने अपना पूरा बल लगा दिया और क्षणभर के लिये भी प्रयत्न करना नहीं छोड़ा। जब वह अपने प्राणों के लिये लड़ रहा था, अपराध का आभास उसकी अन्तरात्मा पर हावी हो रहा था, उसके पाप उसके सामने आ जाते थे और उसे परमेश्वर से दूर कर देते थे। लेकिन इस भयानक परमसंकट में भी वह परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को नहीं भूला और उसने पूरे हृदय से उससे दया की भीख मांगी। पौ फटने तक मल्लयुद्ध चलता रहा, और तब उस अपरिचित ने याकूब की जांघ पर अगुंली रखी और वह उसी समय लंगड़ा हो गया। कुलपिता ने अब आकमाणकारी के चरित्र को पहचाना। वह समझ गया कि वह स्वर्गीय संदेशवाहक के साथ संघर्षरत था और इसी कारण उसका लगभग अतिमानवीय प्रयत्न विजयी नहीं हुआ। वह मसीह था, “वाचा का स्वर्ग॑दूत” जो याकूब को प्रकट हुआ था। कुलपिता अब विकलांग हो चुका था और अत्यन्त पीड़ा सहन कर रहा था लेकिन वह अपनी पकड़ को ढीला नहीं छोड़ रहा था। पश्चताप से भरा व हताश, वह स्वर्गदूत से लिपटा रहा, “वह रोया और उससे गिड़गिड़ाकर विनती की” (होशे 12:4) और आशीर्वाद के लिये अनुरोध किया। उसे आश्वासन चाहिये था कि उसके पाप क्षमा किये गए। शारीरिक पीड़ा उसको उसके हृदय से विचलित करने के लिये पर्याप्त नहीं थी। उसका निश्चय आखिर तक दृढ़ होता गया और उसका विश्वास भी और बढ़ता गया। स्वर्गदूत ने स्वयं को छुड़ाने की कोशिश की, उसने कहा, “मुझे जाने दे, क्योंकि भोर होने को है” लेकिन याकूब ने उत्तर दिया, “जब तक तू मुझे आशीर्वाद न देगा, तब तक मैं तुझे जाने न दूंगा।” यदि यह घृष्ट, घमण्डपूर्ण आत्म-विश्वास होता तोयाकूब का उसी समय विनाश हो जाता, लेकिन उसने अपनी अयोग्यता का अंगीकार करने का आश्वासन दिया था कि वह अभी भी प्रतिज्ञा पूरी करने वाले परमेश्वर की विश्वसनीयता में विश्वास रखता था। PPHin 193.2

    याकूब “दूत से लड़ा और जीत भी गया ।”-होशे 12:4दीनता, पश्चताप, और आत्म-समर्पण के द्वारा यह पापी गलतियां करने वाला, नश्वर व्यक्ति ‘स्वर्ग के गौरव’ से जीत गया।उसने अपनी कॉपती हुईं पकड़ को परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं से बांध दिया था और ‘अथाह प्रेम॑’ का हृदय पापी की विनती को अस्वीकार न कर सका । PPHin 194.1

    वह विकल्प जो, धोखे से जन्मसिद्ध अधिकार की प्राप्ति हेतु याकूब के पाप का कारण था, अब उसके सामने स्पष्ट रूप से सामने आया। उसने परमेश्वर की प्रतिज्ञा में विश्वास न करके, स्वयं के प्रयत्नों से वह करना चाहा जो परमेश्वर अपने समयानुसार व अपने तरीके से सम्पन्न करना चाहता था। उसके क्षमा हो जाने के प्रमाण के तौर पर उसका नाम याकूब से बदलकर इज़राइल रखा गया-याकूब उसके पाप का स्मरण पत्र था, व इज़राइल उसकी विजय का स्मारक। स्वर्गदूत ने कहा, “तेरा नाम अब याकूब नहीं, परन्तु इज़राइल होगा, क्योंकि तू परमेश्वर से और मनुष्यों से भी युद्ध करके प्रबल हुआ है।PPHin 194.2

    याकूब को वह आशीर्वाद मिल गया था जिसक लिये उसकी आत्मा इच्छुक थी। ‘छीनने वाले’ और ‘धोखा देने वाले’ के तौर पर जो पाप किया था, वह क्षमा हो गया था। उसके जीवन का संकट-काल समाप्त हो गया। सन्देह, उलझन और पछतावे ने उसके अस्तित्व में कड़वाहट भर दी थी, पर अब सब कुछ बदल गया था, लेकिन परमेश्वर के साथ समझौते से जो शान्ति मिली वह सुखदायी थी। अब याकूब को अपने भाई से मिलने का डर नहीं था। परमेश्वर, जिसने उसका पाप क्षमा किया था उसके पश्चाताप और उसकी दीनता को स्वीकार करने के लिये एसाव के हृदय को प्रभावित कर सकता था। PPHin 194.3

    जब याकूब स्वर्गदूत के साथ मल्लयुद्ध कर रहा था, एसाव के पास दूसरा स्वर्गीय सन्देशवाहक भेजा गया। ऐसाव ने अपने भाई को देखा जो बीस वर्षों से अपने पिता के घर से प्रवास में था, उसने उसके स्वर्गवासी माँ के लिये दुःख को देखा, उसने उसे परमेश्वर के दल से घिरा हुआ देखा। एसाव ने इस स्वप्न की चर्चा अपने सिपाहियों से की, और उन्हें याकूब कोहानि न पहुँचाने का निर्देश दिया, क्योंकि उसके पिता का परमेश्वर उसके साथ था।PPHin 194.4

    दोनों पक्ष, मरूघर का प्रधान अपने योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए और याकूब अपनी पत्नियों, बच्चों, चरवाहों व दासियों और उनके पीछे भेड़-बकरियों व गाय-बैलों की लम्बी पक्तियों के साथ, अन्त में आमने-सामने आए। अपनी लाठी का सहारा लिये, कुलपिता सिपाहियों की टोली से मिलने आगे जाता है। हाल की में हुए संघर्ष से वह विकलांग व क्षीण हो गया था और हर कदम पर रूकते हुए वह धीमी गति से दर्द सहते हुए चल रहा था, लेकिन उसकी मुखाकति प्रसन्‍नता व शान्ति से कांतिमान थी । PPHin 195.1

    विकलांग पीड़ित को देखते ही, “एसाव उससे भेंट करने को दौड़ा, और उसको हृदय से लगाकर, गले से लिपटकर चूमा, फिर वे दोनो रो पड़े।” इस दृश्य को देखकर ऐसाव के अभद्र सिपाही भी द्रवित हो उठे। हालांकि ऐसाव ने उन्हें उसके स्वप्न के बारे में बताया था, फिर भी अपने सरदार में आए परिवर्तन को वे समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने कुलपिता की दुर्बलता को देखा, लेकिन वे ये नहीं भांप पाए कि उसकी निर्बलता को ही उसकी प्रबलता बना दिया गया था। PPHin 195.2

    यब्बोक नदी के किनारे यातनापूर्ण रात में, जब विनाश उसके सामने प्रतीत हो रहा था, याकूब को ज्ञात कराया गया कि मनुष्य द्वारा दी गई सहायता कितनी व्यर्थ है और मानवीय योग्यता पर विश्वास करना कितना निराधार है। उसकी एकमात्र सहायता उसी से आनी थी जिसके विरूद्ध उसने महापाप किया था। निस्सहाय और अयोग्य, उसने पश्चातापी के प्रति परमेश्वर की करूणा की प्रतिज्ञा की विनती की। वह प्रतिज्ञा ही उसके लिये आश्वासन था कि परमेश्वर उसे क्षमा करेगा और स्वीकार करेगा। आकाश और पृथ्वी भले ही न रहे, उसका वचन कभी नहीं टलेगा। और इसी के द्वारा वह उस भयानक संघर्ष में सफल रहा । PPHin 195.3

    उस रात के मल्लयुद्ध और वेदना का याकूब का अनुभव उस परीक्षा का प्रतीक है जो परमेश्वर के लोगों पर मसीह के दूसरे आगमन के पूर्व आएगी। यिर्मयाह नबी ने पवित्र स्वप्नदर्शन में इस समय को देखते हुए कहा, “थरथरा देने वाला शब्द सुनाई दे रहा है, शान्ति का नहीं, भय ही का है........सब के मुख पीले पड़ गये है। हाय! वह दिन क्या ही भारी होगा! उसके समान और कोई दिन नहीं, वह याकूब के संकट का समय होगा, परन्तु वह उस से भी छूड़ाया जाएगा ।” यिर्मयाह 30:5-7PPHin 195.4

    जब मसीह मनुष्य के पक्ष में मध्यस्थ के तौर पर अपना कार्य छोड़ देगा, तब संकट का समय प्रारम्भ होगा। शुद्ध करने के लिये पश्चतापी लहँ न होगा। जब यीशु परमेश्वर के सामने से मनुष्य के मध्यस्थ का पद छोड़ देता है, तब यह पवित्र घोषणा की जाती है, “जो अन्याय करता है, वह अन्याय ही करता रहे, और जो मलिन है, वह मलिन बना रहे, और जो धर्मी है, वह धर्मी बना रहे, और पवित्र है, वह पवित्र बना रहे”-प्रकाशित वाक्य 22:11। फिर नियमित करने वाला परमेश्वर का आत्मा पृथ्वी से हटा लिया जाता है। जैसे याकूब को अपने कोधित भाई से मृत्यु का डर था, वैसे ही परमेश्वर के लोगों को उनसे खतरा होगा जो उनका विनाश करना चाहते हैं। और जैसे एसाव के हाथों से बचने के लिये, कुलपिता ने रात भर मल्लयुद्ध किया, वैसे ही धर्मी रात-दिन उनके चारों ओर के शत्रुओं से बचाए जाने के लिये परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे । PPHin 196.1

    उसके पाप के कारण याकूब को नष्ट करने के अधिकार का दावा करते हुए, शैतान ने परमेश्वर के स्वर्गदूतों के सामने याकूब को आरोपित किया, उसने ऐसाव को याकूब पर चढ़ाई करने के लिये उत्तेजित किया, और कुलपिता के मल्लयुद्ध की लम्बी रात में शैतान ने उसमें अपराधबोध की भावना को हावी करने का प्रयत्न किया ताकि वह निराश होकर परमेश्वर से स्वयं को दूर कर लें। जब अपनी व्यथा में याकूब ने स्वर्गदूत को पकड़ कर आंसुओं के साथ विनती की, स्वगगीय संदेशवाहक ने उसके विश्वास को परखने के लिये उसे उसके पाप का स्मरण कराया और उससे छूट कर भागने की चेष्ठा की। लेकिन याकूब पीछे हटने वालों में से नहीं था। उसने सीखा था कि परमेश्वर दयालु है और उसने परमेश्वर की उसी दया का वास्ता दिया। उसने अपने पाप के लिये किए गये पश्चाताप की ओर संकेत किया और छुटकारे की विनती की। अपने जीवन का अवलोकन कर वह लगभग निराश हो गया, लेकिन उसने स्वर्गदूत को पकड़े रखा और सच्चे, वेदनापूर्ण विलाप के साथ विनती की जब तक कि वह सफल नहीं हुआ । PPHin 196.2

    बुराई की शक्तियों के साथ अन्तिम संघर्ष में परमेश्वर के लोगों का भी यही अनुभव रहेगा। परमेश्वर उनके विश्वास को, उनकी तपस्या को, उन्हें छुटकारा दिलाने की उसकी योग्यता में विश्वास को परखेगा। शैतान उन्हें इस विचार से डराने की चेष्ठा करेगा कि उनकी परिस्थिति निराशाजनक है, यह कि पाप इतने गम्भीर है कि उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। उन्हें अपनी कमियों का आभास होगा, और जब वे अपने जीवन की समीक्षा करेंगे तो उनकी आशा डूब जाएगी। लेकिन परमेश्वर की करूणा की महानता व अपने व्यक्तिगत सच्चे पश्चताप का स्मरण कर वे निस्सहाय पश्चतापी पापियों के लिये मसीह के माध्यम से की गई उसकी प्रतिज्ञाओं की विनती करेंगे। उनकी प्रार्थनाओं का तुरन्त उत्तर न मिलने के कारण उनका विश्वास विफल न होगा। वह परमेश्वर की सामर्थ्य को थामे रहेंगे, जैसे याकबस्वगंदूत को पकड़े रहा और उनकी आत्मा सदा कहेगी, ‘मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा, जब तक तुम मुझे आशीर्वाद न दो ।” PPHin 196.3

    यदि याकूब ने पहले, धोखे से जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्ति के पाप का प्रायश्चित नहीं किया होता तो परमेश्वर ने उसकी प्रार्थना नहीं सुनी होती और उसके जीवन की रक्षा न की होती। इसी प्रकार संकट के समय, यदि परमेश्वर के लोगों मेंवेदबा व भय से उत्पीड़न के दौरान उनके सामने लाए जाने वाले अस्वीकत पाप होंगे तो वे पराजित होंगे, निराशा उनके विश्वास को समाप्त कर देगी और उनमें छुटकारा पाने के लिये परमेश्वर से विनती करने का विश्वास नहीं होगा। लेकिन यदि उनमें अपनी अयोग्यता का आभास है तो उनमें प्रदर्शित करने के लिये कोई गुप्त पाप नहीं होंगे। मसीह के मेल कराने वाले लहू से उनके पाप मिटा दिये जाएंगे और वे उन्हें याद न करेंगे । PPHin 197.1

    शैतान कई लोगों में यह विश्वास उत्पन्न करता हे कि परमेश्वर जीवन के महत्वहीन कार्यों में अनिष्ठा को अनदेक्षा कर देगा, लेकिन याकूब के प्रति अपने व्यवहार से परमेश्वर बताता है कि वह किसी भी परिस्थिति में बुराई को सहन या स्वीकार नहीं करेगा। जो भी अपने पापों को अनदेखा करने या छुपाने की चेष्ठा करते है और उन्हें स्वर्ग की पुस्तकों में अस्वीकत व बिना क्षमा हुए रहने देते है, वे शैतान द्वारा पराजित होंगे। जितना उत्तम उनका व्यवसाय, जितना अधिक सम्मानित उनका पद, उतना ही परमेश्वर की दृष्टि में क्षतिकर उनका मार्ग होता है और उतनी ही निश्चित महान शत्रु की विजय हो जाती है। PPHin 197.2

    फिर भी याकूब का इतिहास एक आश्वासन है कि परमेश्वर उनको नहीं छोड़ेगा जो धोखे से पाप में पड़ जाते हैं, लेकिन सच्चा प्रायश्चित कर उसके पास लौट आते है। वह आत्म-समर्पण और सहज रूप से विश्वासी निष्ठा ही थी जिसके द्वारा याकूब ने वह प्राप्त किया जो वह अपनी शक्ति के बल पर संघर्ष करके पाने में विफल रहा। परमेश्वर ने इस तरह अपने दास को सिखाया कि केवल ईश्वरीय सामर्थ्य और अनुग्रह ही उसे वह आशीर्वाद दे सकता था जिसकी उसे तीव्र अभिलाषा थी । ऐसा ही अन्त समय में रहने वालोंके साथ होगा। जब वे खतरों से घिर जाएं और उनकी आत्मा निराश हो जाए जो उन्हें केवल प्रायश्चित की योग्यता पर निर्भर होना चाहिये। हम अपने आप में कुछ नहीं कर सकते। हमारी सारी असहाय अयोग्यता में हमें जीवित उद्धारकर्ता की योग्यता में विश्वास रखना चाहिये। ऐसा करने से कोई भी नष्ट नहीं होगा। हमारे अवगुणों की लम्बी सूची अंनत परमेश्वर की आंखो के समाने है। सूची पूरी हो चुकी है, हमारे कोई भी अपराध छूटे नहीं हैं। लेकिन जिसने प्राचीन काल के अपने दासों की पुकार को सुना था, वह विश्वास की प्रार्थना को सुनेगा और अपराधो को क्षमा करेगा। उसने वचन दिया है, और वह अपने वचन को पूरा करेगा। PPHin 197.3

    याकूब ने जीत प्राप्त की क्‍योंकि वह आग्रही और दृढ़ संकल्पी था। उसका अनुभव आग्रहपूर्ण प्रार्थना की शक्ति की साक्षी देता है। वह समय अब है कि हम प्रबल प्रार्थना और दृढ़ विश्वास के सबक को याद करें। परमेश्वर की कलीसिया या व्यक्तिगत मसीही की सर्वोत्तम विजय या उपलब्धियाँ वह नहीं है जो गुण या विद्या से प्राप्त होती है। ये उपलब्धियाँ वे है जो परमेश्वर के साथ श्रोता कक्ष में प्राप्त की जाती है, जब सच्चा व अत्याधिक विश्वास सामर्थ्य का शक्तिशाली हाथ पकड़ लेता है। PPHin 198.1

    जो लोग अपने प्रत्येक पाप को त्यागने को और परमेश्वर की आशीष को गम्भीरतापूर्वक पाने को सहमत नहीं है, वे उसे नहीं पाएंगे। लेकिन जो याकूब की तरह परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं का दावा करेंगे और वे उसी की तरह सच्चे और आग्रहपूर्ण होंगे तो वह उसी की तरह सफल होंगे। “क्या परमेश्वर अपने चुने हुओ का न्याय न चुकाएगा, जो रात दिन उसकी दुहाई देते रहते है? क्या वह उनके विषय में देर करेगा?, मैं तुमसे कहता हूँ. वह तुरन्त उनका न्याय चुकाएगा ।” लूका 18:7,8PPHin 198.2