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मेरे जीवन, मेरे सर्वस्व SC 106

“सूली को जब जब लूँ निहार,
जिस पर विभूति के चिर कुमारने तजे प्राण,
तब तब हानि भी समझू मैं निज विपुल लाभ वर्षत समान;
फिर धिक्कारूँ निज अहँकार।”
“दु:ख प्रेम पूर्ण यह बड़ी धार,
जो फूटी हस्त-पाद-मस्तक को कर और पार,
दु:ख से आविल और प्रेम-सिक्त यह रक्तधार,
कंटक भी ताज का है श्रुंगार।”
“मुझसा पतित और भ्रष्टाचार,
गा गा कर उन के यश मैं क्षम्य हुआ हूँ आज,
तब करूँ गर्व प्रभु यीशु की सूली का आज,
कर दो मुझ को अब निर्विकार।”
“विस्तृत प्रकृति का सब उभार,
अर्पण करने को उनपर क्षुद्र उपहार,
उनके अनंत प्यार पर व रूँ निज जीवन अपार,
अपने सर्वस्व का तार तार।”
जैसा तथा वह प्रगाढ़ प्रेम,
है मरणशील क्या कभी पिया?
मोहित कर मेरे प्राणों को,
पाषाण-ह्रदय मम द्रवित किया।
जीवन गठरी पद तल रखा,
स्वर्ग सुख को बस पहचान लिये,
कानों में मेरे चुपके जब,
कहा उन्हों ने, “क्षमा किया।” SC 106.1