समर्पण
Search Results
- Results
- Related
- Featured
- Weighted Relevancy
- Content Sequence
- Relevancy
- Earliest First
- Latest First
- Exact Match First, Root Words Second
- Exact word match
- Root word match
- EGW Collections
- All collections
- Lifetime Works (1845-1917)
- Compilations (1918-present)
- Adventist Pioneer Library
- My Bible
- Dictionary
- Reference
- Short
- Long
- Paragraph
No results.
EGW Extras
Directory
समर्पण
ईश्वर ने यह वचन दिया है,“तुम मुझे ढूँढोगे और पाओगे भी क्योंकि तुम अपने सारे मन से मेरे पास आओगे।” यिर्मयाह २६:१३॥SC 34.1
ईश्वर को सम्पूर्ण रूप से आत्म-समर्पण कर देना आवश्यक है, और नहीं तो उनके अनुरूप होने के लिए जो परिवर्तन आवश्यक है, वह हम में हो ही नहीं सकते। हम अपने स्वाभाव से ही ईश्वर-विमुख हैं। पवित्र आत्मा ने हमारी अवस्था का वर्णन इस प्रकार किया है, “अपने अपराधों और पापों के कारण मरे हुए थे;” “तुम्हारा सिर घावों से भर गया और तुम्हारा सारा ह्रदय दु:ख से भरा है;” “नख से सिर लों वहीं कुछ अयोग्यता नहीं।” हम लोग शैतान के फंदे में बुरी तरह फँस गए हैं। उसकी इच्छा के अनुसार उसके द्वारा बन्दी किये गए हैं। ईश्वर हमें चंगा करना तथा मुक्त करना चाहते हैं। किंतु इसके लिए अपात-परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें अपने समस्त स्वाभाविक वृत्तियों में पुनर्जीवन लाना पड़ेगा। अतएव हमें ईश्वर के समक्ष पूर्ण समर्पण कर देना उचित है॥SC 34.2
‘अहं’ के विरुद्ध जो संग्राम होता है वह संसार का सब से भीषण युद्ध है। आत्म-समर्पण करने में, ‘अहं’ के शमन में, संघर्ष का होना आवश्यक है। फिर भी आत्मा को ईश्वर के पांवों पर समर्पित कर देने के बाद ही उस में नई पवित्रता का प्रकाश फैल सकेगा॥SC 34.3
जैसे शैतान ने चित्रित किया है, वैसा ईश्वर का शासन नहीं जिस में सबों को बिना विचार के ही अंधों की तरह सर झुका लेना पड़ता हो। उनका शासन-विधान तो ऐसा है कि बुद्धि और अंतर्चेतना दोनों को अच्छा जचता है। सृष्टा ने सारी सृष्टि को आमंत्रित कर कहा है। “आओं हम आपस में वादविवाद करें।” यशायाह १:१८। ईश्वर अपने प्राणियों पर स्वेच्छावारियों कि तरह जबर्दस्ती नहीं करता। वैसे पूजन अर्चन उसे स्वीकार नहीं जो अपनी ख़ुशी और पूरे हृदय से न किए गए हो। जबर्दस्ती आत्म-समर्पण करा लेने से ना तो मस्तिष्क का स्वस्थ विकास होगा और न चरित्र का शुद्ध गठन ही हो पाएगा। यह तो मनुष्य को मशीन बना देगा। और ईश्वर का उद्धेश मनुष्य को मशीन बना देना नही है। उसकी इच्छा तो यह है कि सृष्टि कि श्रेष्टतम वस्तु मनुष्य उन्नति और विकास कि परम सीमा तक पहुँच जाये। वह हम लोगों को आमंत्रित कर यह अनुनय-विनय करता है कि हम अपने को उसके अनुग्रह पर समर्पित कर दें ताकि उसके सद्राव और सौजन्य प्राप्त कर सकें और उसके अनुरूप कर सकें। अब पाप की श्रृंखलाओं से मुक्त होने और ईश्वरीय सृष्टि की गौरवपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर अगत में स्वच्छन्द विहार करने के लिए श्रेयस्कर मार्ग को चुनना पूरी तरह हमारी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है॥SC 34.4
क्या आप को यह मालूम होता है कि खीष्ट को सब का सब अधीन करना बहुत बड़ा बलिदान है? आप अपने ही को यह प्रश्न कीजिये “खिष्टने मुझे क्या दिया है?”SC 35.1
जब हम अपने आप को ईश्वर को सौंप देते हैं तो हमें उन सभी वस्तुओं का पूर्ण परित्याग कर देना आवश्यक है, जिन के कारण हम उस से अलग किये जा सकतें हैं। मतलब मुक्तिदाता ने कहा है,“तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न करे वह मेरा चेला नहीं हो सकता।” लूक १४:३३। जो कुछ भी हृदय को ईश्वर से विमुख करें, उसे छोड़ दीजिए। अनेक लोग धन-देवता की मूर्ति की पूजा करते हैं। ऐसे लोगों की धन-लिप्सा, वैभव की लालच और ऐश्वर्य की तृष्णा वह सोने की जंजीर है जिस के द्वारा शैतान उन्हें बांध रखता है। दूसरी श्रेणी के लोगों के द्वारा यश और सांसारिक मर्यादा की पूजा होती है। तथापि तीसरे प्रकार के लोग स्वार्थ-सुख और निरंकुश जीवन के भोग-विलास की पूजा करते हैं। किंतु ये सब गुलामी की जंजीर हैं और इन्हें तोड़ना कर्तव्य है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि हम आधे ईश्वर के रहें, आधे संसार के। जब तक हम पूरी तरह ईश्वर के नहीं होते तब तक हम ईश्वर के पुत्र ही नहीं॥SC 35.2
कुछ ऐसे लोग भी है जो ईश्वर की सेवा करने को इच्छुक तो हैं किंतु उन्हें ऐसा विश्वास है कि वे उसके विधान स्वयं ही स्वीकार कर लेंगे। ऐसे लोगों कि ह्रदय में खिष्ट के प्रति प्रगाढ़ प्रीति नहीं। वे ईसाइयों के निश्छल और निर्मल जीवन इस लिए पावन करना चाहते है ताकि उन्हें ईश्वरीय आदेश के अनुसार स्वर्ग मिल जाए। ऐसे धर्म का कुछ मूल्य नहीं। किंतु जब यीशु का वास हृदय में होता है, तो अन्तरात्मा उनके प्रेम में ऐसा विभोर हो उठता है, हृदय उनके समागम में ऐसा उल्लासपूर्ण हो उठता है कि वे उन में तादात्म्य लाभ कर उठते हैं। इस तादात्म्य में ‘अहं’ का विस्मरण होता है, आत्म भाव उस परमात्म भाव में तिरोहित हो जाता है। यीशु के प्रति प्रेम क्रियाशीलता का उद्रम-स्थान है। जिन्हें ईश्वर पर प्रगाढ़ अनुराग है, वे यह नहीं पूछते कि ईश्वरीय-विधान में कम से कम कितना समर्पण करना आवश्यक है। ऐसे लोगों का मान दंड अल्प अथवा न्यूनतम श्रेष्टता की प्राप्ति नहीं। एसे लोग तो उच्च से उच्चतम और श्रेष्ट से श्रेष्टतम को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं ताकि वे सर्वोशत: मुक्तिदाता में आत्मसात हो जाएं पूरी हार्दिक इच्छा से वे सर्वस्व समर्पित करते है, उसी के महत्त्व के अनुरूप लगन और रूचि प्रदर्शित करते है। इस प्रगाढ़ प्रेम के बिना यीशु पर प्रेम दिखाने की सारें बातें ढकोसला हैं, योथे तर्क हैं और कोरी नीचता है॥SC 36.1
क्या आप यह सोचते है कि यीशु पर सर्वस्व अर्पित कर देना महान बलिदान है। तब आप यह विचार कीजिये कि यीशु ने आप को क्या दिया है? ईश्वर पुत्र ने हम लोगों की मुक्ति के लिए सब कुछ समर्पित कर दिया: जीवन दिया प्रेम दिया और यातनाए सहीं। अब क्या हम नीच लोगों को उन के इतने प्रपाढ़ प्रेम पाकर भी अपने हृदय उन्हें समर्पित करने में हिचकिचाना चाहिये? अब तो हम लोग अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में उन के अनुग्रह के फल-स्वरुप आनंद मना रहे हैं, इसी का यह परिणाम है कि जिस अज्ञानांधकार और क्लेश के भीषण गर्त से हम उंबर आए हैं उस की कल्पना नहीं करता और उसे कुछ समझते ही नहीं। जिन के हृदय स्थल को हमारे पापों ने बांध डाला, जिन के शरीरपर हमारे अपराधों ने शतशत भालाये चुभोये उन्हीं की कृपा दृष्टि के हम इच्छुक हों, और उन्हीं की प्रीति और बलिदान का तिरस्कार करे जब हम लोगों ने यह जान लिया कि हमारे आलोकमय प्रभु ने कितना महान प्रयाच्चित किया था, कितनी आदर्श आत्मवज्ञा को थी, तब क्या अपने जीवन में संघर्ष और आत्मवज्ञा के द्वारा वन्नत होना हम नापसंद करेंगे? घमंडी लोग यह पूछते हैं कि ईश्वर के ग्रहण और स्वीकार करने के पहले ही हम लोग क्यों प्रायश्चित में दुबे और अपने आप को समर्पित कर दें? इस के उत्तर में मेरा नम्र निवेदन हैं कि आप यीशु कि ओर देखे। वे सर्वथा निष्पाप थे, नहीं, वे तो स्वर्ग के चिर-राजकुमार थे। किंतु मनुष्य के कल्याण के हेतु वे मानव-जाति के पाप की तरह घोषित हुए। “वह अपराधियों के संग गिना गया पर उसने बहुतों के पाप का भार उठा लिया और अपराधियों के लिए बिनती करता है।” यशया ५३:१२॥SC 36.2
अब जरा यह सोचिये कि जब हम सभी कुछ अर्पित कर देते हैं तो वास्तव में क्या छोड़ते हैं? और वह भी इस लिए अर्पित करते हैं कि यीशु उसे पवित्र बनावे, अपने लोहू से धोकर स्वच्छ बनावे और अप्रतिम प्रेम से उज्जवल और अमर। फिर भी लोग सर्वस्व अर्पण करना टेढ़ी खीर समझते हैं। ऐसा सुनना शर्म कि बात है, ऐसे लिखने पर धिक्कार है॥SC 37.1
ईश्वर हम से यह भी नहीं कहता कि जो वास्तुएँ अपने लाभ कि हैं उन्हें भी समर्पित कर दीजिये। ऐसा वह कह भी नहीं सकता। क्योंकि जो कुछ भी वह करता और कहता है उसका एकमात्र लक्ष्य हमारा कल्याण ही हे। जिन्हों ने यीशु को अपनी भलाई के लिए नहीं ग्रहण किया हैं, उन लोगों के बीच, ईश्वर करे, यह सुबुद्धि आ जाए कि खिष्ट उन्हें अत्यधिक-मूल्यवान और प्रचुर परिमाण में कल्याणकारी वास्तुएँ दे सकते हैं, और वैसी वास्तुएँ वे अपनी सारी सामर्थ्य और शक्ति से नहीं प्राप्त कर सकते। जब मनुष्य ईश्वर की विचार-परंपरा के विरुद्ध सोचता और कार्य करता है, तो वह अपनी आत्मा पर ही घातक चोटें पहुँचाते हैं, उस पर अन्याय और अत्याचार करता है॥SC 37.2
इस संभ्रम में पड़ना कि ईश्वर अपने पुत्रों को क्लेश में डूबें देख प्रसन्न होता है, भरी भूल है। समस्त स्वर्ग मनुष्य के आनंद के लिए उद्योगशील है। हमारे परमपिता किसी भी मनुष्य के लिए आनन्द के कपाट बन्द नहीं करते। स्वर्गीय घोषणा सदा से हमें इसी ओर सचेत कराती है कि हम उन विश्वासमय पदार्थो का त्याग करें जो क्लेश और शोक के कारन हैं और जो आनंद और स्वर्ग के द्वार हमारे लिए बंद कर देते हैं। संसार के मुक्तिदाता ने मनुष्य को उसी रूप में ग्रहण किया है, जिस रूप में वह अपनी सारी कमजोरियों, दुर्बलताओं, त्रुटियों और दोषों के साथ है। वे न केवल पापमुक्त करते और मुक्तात्मा बनाते हैं किंतु उन सबों की आन्तरिक अभिलाषाएँ भी पूरी करते हैं जो उनके समक्ष विनीत और नम्र हैं। जो उनके पास जीवन की रोटियाँ मांगने आवे उन्हें शांति और विश्राम देना तो उनका परम कर्तव्य है। वे केवल यह चाहते हैं कि हम उन्हीं कर्तव्यों में रत रहें जो हमें आनंद की छोटी पर ले चलें और जिन्हें आद्या-उल्लंघन करनेवाले कभी सपनों में भी देख न सकें। आत्मा का वास्तविक सत्य इसी में है, उनका यथार्थ आनंद पूर्ण जीवन इसी में है कि अन्तस्थल में यीशु की वह घवल ज्योतिर्मयी आशापूर्ण किरणों उद्धासित होती रहे॥SC 37.3
अनेक लोग यह पूछते हैं कि किस प्रकार ईश्वर को आत्म-समर्पण किया जाय। आप अपने आप को उसे सौंप तो देना चाहते हैं किंतु आप कि नैतिक शक्ति दुर्बल है, आप संशय के पास में आबद्ध हैं और पापमय जीवन की आदतें आप को शिकंजों में अकड़े हुई हैं। आप की प्रतिज्ञाएं और निश्चय वालू की रस्सी की तरह निरर्थक हैं। आप अपने विचारों, आवेशों, मोह आदिपर काबू नहीं कर सकते। जब आप यह जन जाते हैं कि आपने अपने सारे वचन भंग किये हैं, प्रतिज्ञाएं निभाई नहीं हैं, तो आप को अपनी सच्चाई पर विश्वास नहीं होता, आप की इच्छा-शक्ति दुर्बल पड़ जाति है, आप अपनी शक्तिसमर्थ्य पर भरोसा नहीं कर पाते और आप यह सोचने लगते हैं कि ईश्वर आप को ग्रहण नहीं करेगा। किंतु इतना हतोत्साह और भग्नहृदय होना आवश्यक नहीं। जिस चीज की आप को जरुरत है वह है इच्छा-शक्ति की समझ। मनुष्य स्वभाव की निधारिणीशक्ति, निर्णयात्मकशक्ति का केन्द्र और निश्चयात्मक-शक्ति का स्त्रोत्र यही हे। सारा दारोमदार इसी इच्छाशक्ति के ऊपर है। ईश्वर ने निश्चय करने की शक्ति मनुष्य को दे दी है, अब वह मनुष्य पर है कि उसका उपयोग करे, न करे। आप अपने हृदय में परिवर्तन न ला सकेंगे, इसे मान लिया। आप उन्हें अपने हृदय के उद्धार और अनुराग अपनी सामर्थ्य पर अर्पण न कर सकेंगे, यह भी मान लिया। किंतु फिर भी उनकी सेवा करने का निश्चय आप कर सकते हैं, यह मार्ग आप अपने ही बल पर चुन सकते हैं। आप अपनी इच्छाशक्ति उन्हें अर्पित कर सकते हैं। फिर वे आप के अंन्तरस्थल में ऐसी प्रेरणा भार देंगे कि आप उनके ही अनुसार कार्यों में लीन होंगे। इस प्रकार आप का पूरा स्वभाव खिष्ट के आत्मा के अधीन प्रकाशित हो उठेगा; आप के अनुराग उन पर केन्द्रित होंगे और भाव के विचारमय आदि सब कुछ उन के अनुरूप हो जायेंगे॥SC 38.1
सच्चरित्रता और शुद्धात्मा को लालसा करना बड़ा उत्तम है। किंतु लालसा यदि केवल लालसा बन कर ही रही तो किस काम की। अनेक लोग ईसाई बनने की लालसा करते हुए भी पथ-भ्रष्ट हो विनष्ट हुए। क्योंकि ये लोग उस स्थिति तक पहुँच ही नहीं सके जहाँ अपनी इच्छाशक्ति का ईश्वर की इच्छा-शक्ति में पूर्ण विसर्जन होता हैं। अब ये ईसाई होने के मार्ग को चुन नहीं सकते॥SC 38.2
इच्छाशक्ति को उचित उपयोगिता से जीवन में अद्वितीय परिवर्तन लाया जा सकता है। अपनी इच्छा-शक्ति को यीशु के चरणों में समर्पित कर देने पर आप उस शक्तिशाली और पराक्रमी वीर से मित्रता स्थापित कर लेते हैं जो सारे संसारी पराक्रमों और शक्तियों के ऊपर हैं। तब आप को ऊपर से शक्ति मिलेगी जिस से आप दृढ़ और धीर बनेंगे। इस प्रकार सदा ईश्वर के समक्ष आत्म समर्पण द्वारा आप अभिनव जीवन, नूतन उल्लास और नवीन आशाएँ प्राप्त कर सकेंगे तथा धार्मिक-विश्वास से ओत-प्रोत भी हो उठेंगे॥SC 38.3