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    कर्म और जीवन

    विश्व के जीवन, प्रकाश और आनंद ईश्वर ही है। सूरज की प्रभापूर्ण किरणों की तरह, सोते से फूटती हुई अजस्त्र धारा की तरह, ईश्वर के वरदान सभी प्राणियों के समक्ष अवाध गति से प्रवाहित होते हैं। जहाँ भी मनुष्य के ह्रदय में ईश्वर के जीवन का निवास होगा, यह प्रेम और आशीष के साथ एक ह्रदय से दुसरे ह्रदय में सदा प्रवाहित होता रहेगा॥SC 61.1

    पतित मनुष्यों के उद्धार और मुक्ति में ही हमारे त्राता को आनंद मिलता था। इस महान कार्य में उन्होंने अपने जीवन तक को तुच्छ समझा और उसकी वेदना सह ली तथा लज्जा उठाई। उसी प्रकार दूसरों की भलाई करने में स्वर्गदूतगन सदा सचेष्ट हैं। इसी में उनका आनंद है। प्रकृति और पद में निकृष्ट लोगों की सेवा करना तथा उन्हें उन्नत बनाना, ऐसा कार्य है जिसे अन्य स्वार्थी लोग तो नीच और मर्यादा के विरुद्ध समझे। किंतु इसे ही निष्पाप दूतगण आनंद से करते हैं। यीशु के निस्स्वार्थ प्रेम की भावना ऐसी अमृतमयी भावना है जो स्वर्ग को व्याप्त है और स्वर्गीय आनंद का मूलतत्व है। यही भावना यीशु के सच्चे अनुयायियों में भी रहेगी और उनके कार्य में व्यक्त होगी॥SC 61.2

    यीशु का प्रेम ह्रदय में प्रतिष्टित हो जाने पर सुगंध की तरह छीप नहीं सकता। इस का पवित्र भाव उन लोगों पर पड़ेगा जिन से हम संबंध रखेंगे। मरुभूमि की झरना ककी तरह यीशु का प्रेम है जो सर्वों की तृष्णा मिटाने, जीवन देने, तथा नविन शक्ति भर देने को बहता रहता है॥SC 61.3

    जिसे यीशु से सच्चा अनुराग होगा सदा यही इच्छा करेगा की उन्हीं की तरह कार्य करे, उन्हीं की तरह मानवमात्र के उत्थान और उद्धार के लिए चेष्टा करे। इस प्रेम से सारी सृष्टि के समस्त प्राणियों के लिये प्रेम, करुना और ममत्व हो उठेगा॥SC 61.4

    मुक्तिदाता का जीवन आराम का जीवन न था। संसार में वे अपने बारे ही चिंतित होने और आत्मप्रेम में ही रत होने नहीं आये थे। उन्होंने तो पथ भ्रष्ट मानव समाज के उद्धार के लिए अथक परिश्रम किया, अदम्य उत्साह दिखाया और अद्वितीय अध्यवसाय का उदहारण छोड़ा। चरनी से लेकर कालवरी तक, उन्होंने आत्मावज्ञा का मार्ग ग्रहण किया। जीवन पर्यंत उन्हों ने कड़ी यातनाओ, कष्टदायक यात्राओ तथा क्लान्तिदायक चिन्ता और परिश्रम से पिछा नहीं छुड़ाया, और न उन से पिछा छुडाने की कभी चेष्टा भी की। उन्होंने कहा था, “मनुष्य का पुत्र इस लिए नहीं आया की सेवा टहल की जाय पर इस लिए आया की आप सेवा टहल जरे और बहुतों की छुडौती के लिए अपना प्राण दे।” मती २०:६८। यही उनके जीवन का महान उद्देश था। इस महान लक्ष्य का आगे दूसरी वस्तुएँ महत्व ही नहीं रखती थी। ईश्वर के आदेश की पूर्ति और उनके कार्य का संपादन ही यीशु का भोजन और जल था। उनके परिश्रम के अंतर्गत आत्म-तुष्टि और स्वार्थ को कोई स्थान नहीं था।SC 61.5

    जिन्हें ख्रीष्ट के अनुग्रह का प्रकाश मिल रहा है, उन्हें किसी भी बलिदान के लिये प्रस्तुत रहना चाहिये। इस से वे लोग भी स्वर्गीय वरदान के भागी बन जा सकेंगे जिन लोगों के लिये ख्रीष्ट ने प्राण दिए। वे लोग संसार के सुधारने, उन्नत करने और उज्जवल करने की चेष्टा तथाशक्ति करेंगे। यदि ह्रदय में यह भावना भर जावेगी तो समझिये की सचमुच ही आत्मा में आलोक आ गया है। जैसे ही मनुष्य ख्रीष्ट के समक्ष आता है वैसे ही उस में यह भाव उदित होता है की वह दुसरे लोगों को यीशु की मैत्री और अमूल्य प्रेम के बारे कहें और अपना भागे सराहें। यह पुनीत सत्य उसके ह्रदय में दब कर या छीप कर रह ही नहीं सकता। ख्रीष्ट की धार्मिकता का धवल वस्त्र पहन लेने पर, तथा उनके अंतरस्थल में निवास करनेवाले पवित्र आत्मा से पूर्ण हो जाने पर हम अपनी शांति और गंभीरता के साथ बैठे नहीं रह सकते। जहां हम ने यह जान लिया की प्रभु कल्याणकारी है, तहाँ हमारी वाणी प्रशंसा में फूटी। फिलिप ने मुक्तिदाता को पा कर सर्वों को उनकी उपस्थिति से लाभ प्राप्त करने को आमंत्रित किया था। उसी की तरह हम भी सर्वों को निमंत्रण देंगे, बुलाएँगे और आग्रह करेंगे की सभी उन से लाभ प्राप्त कर ले। उन लोगों को हम ख्रीष्ट के मोहक गुणों को दिखलायेंगे, और उस लोक के सुख और आनंद का वर्णन करेंगे। और यीशु के मार्ग में चखने को हम भी सर्वों के साथ आकुल हो जावेंगे। हम में यह विकल भावना भर जायेगी की हम सभी कोई उस ईश्वर के मेमने को देखें “जो जगत का पाप हर ले जाता है॥”SC 62.1

    दूसरों की भलाई के निमित्त जो कार्य हम करेंगे वही कार्य हमारी भी भलाई का कारण बनेगा। ईश्वर ने जो हमे मुक्ति की योजना में कुछ कार्य सौंपे, तो उसका यही प्रयोजन था। उन्हों ने मनुष्यों का ईश्वरीय प्रकृति के भागी होने का विशेष अधिकार दिया है और फिर मंगलमय आशीर्वाद को दूसरों पर वितरण करने का भी अधिकार दिया है। यही है सब से गौरवपूर्ण सम्मान और सब से महिमामय आनंद हो ईश्वर मनुष्यों के प्रति दे सकता है। जो भी इस प्रेम सने कार्य में ह्रदय से लग जाते हैं वे ख्रीष्ट के सब से निकट पहुँच जाते हैं।SC 62.2

    यदि चाहता तो ईश्वर अपने धार्मिक संदेश के वितरण तथा सारे प्रेम पूर्ण कार्यों के संपादन का भर स्वर्गीय दूतों पर सौंप देता। अपने प्रयोजन के लिये वह कुछ दुसरे उपाय भी काम में ला सकता था। किंतु उसने ऐसा नहीं किया। उसका प्यार इतना गहरा है की उसने हम ही लोगों को अपने साथ काम करने के लिये चुना। उसने अपने साथ, ख्रीष्ट के साथ, स्वर्गदूतों के साथ, अर्थात सभी कल्याणकारी ईश्वरीय विभूतियों के साथ कम करने के लिये हम मनुष्यों को चुन कर लगाया। इस में ईश्वर का उद्देश यही था की ईश्वरीय विभूतियों के सहकर्मी और सहयोगी हो कर हम भी निस्स्वार्थ कर्म के फल अर्थात वरदान, आनंद, आत्मिक उत्थान आदि, प्राप्त कर सकें॥SC 62.3

    ख्रीष्ट के क्लेशों और यातनाओं के सहयोगी बन कर हम ख्रीष्ट के साथ हार्दिक समवेदना और सहनुभूति में मग्न हो जाते हैं। दूसरों के उपकार करने के प्रत्येक कार्य द्वारा उपकार करनेवाले की उदारता, और ईश्वरीय गुण शक्ति ग्रहण करती है और उस मुक्तिदाता के समकक्ष वह आ जाता है, “धनी हो कर तुम्हारे लिए कंगाल बना की उसके कंगाल हो जाने से तुम धनी हो जाओ।” २ कुरिन्थियों ८:६३। और जब हम ईश्वरीय विधान के इस उद्धेश को पूर्ण करेंगे तभी जीवन आशिषमय प्रतीत होगा॥SC 63.1

    जिस तरह ख्रीष्ट ने अपने चेल्लों को चलने और काम करने का आदेश दिया, यदि हम वैसे ही चलें और परिश्रम में जुटे रहे, तथा उनके लिये लोगों को ख्रीष्ट के पास लावें, तो हमें आत्मिक वस्तुओं के विषय में विशेष ज्ञान प्राप्त करने की तथा गभीरतम अनुभूतियों में डूब जाने की उत्कट लालसा होगी। और तभी हम पवित्रता और धार्मिक शुद्धि के पीछे प्राणों की बाजी लगा कर दौड़ेंगे। हम तब ईश्वर से अनुनय-बिनय करेंगे, हमारी भक्ति दृढ़ होती जायेगी, और मुक्ति के कूप से हमारी आत्मा और भी नीचे बैठ कर आनंदमय जल का पान करेगी। ऐसी अवस्था में यदि विरोध परीक्षाएँ हुई तो हम बाहबल और प्रार्थना के सहारे विरोध को रोकेंगे और परीक्षाओं में उत्तीर्ण होंगे। हम ईश्वरीय अनुग्रह तथा विभूति में अधिक से अधिक दीप्त होंगे और यीशु के परिज्ञान में अधिक से अधिक गंभीर होंगे। हमारी अनुभूति प्रषाढ एवं अनूप होगी॥SC 63.2

    दूसरों के उत्थान और उद्धार के लिए निस्स्वार्थ कर्म चरित्र को गंभीर, सदृढ़ और ख्रीष्ट सा मधुर बनता है। इस से मनुष्य शांति और आनंद से मरे जाता है। आकांक्षायें उन्नत हो जाती हैं। इस निष्टा में आलस्य तथा स्वार्थ को स्थान नहीं। जो भी ईसाई अनुभव को प्राप्त करता है वह वृद्धि और विकास पाता है तथा ईश्वर के कर्म करने में अधिक से अधिक शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। ऐसे लोगों की अध्यात्मिक प्रज्ञा और अनुभव तीव्र होते है, और स्पष्ट होते हैं। इनकी भक्ति सदा प्रगाढ़ और विस्तृत होती है। इनकी प्रार्थना की शक्ति बलवती हो जाती है। उनकी जीवन-शक्ति के बिच ईश्वर की प्रेरक-शक्ति काम करतीं रहती है और ईश्वरीय स्पर्श आत्मा के सारे तारों को स्पंदित एवं झंकृत करती रहती है। जो कोई इस निस्स्वार्थ कर्म में प्रवृत्त हैं एवं दूसरों की भलाई के लिए दत्तचित्त हैं, वे निर्विवाद अपनी मुक्ति का पथ प्रशस्त कर रहे हैं।SC 63.3

    ईश्वर के अनुग्रह और विभूति की प्राप्ति के लिए तथा इन्हें अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए एक ही उपाय है। वह यह की हम यीशु के बतलाये हुए कार्यों मैं अनासक्ति के साथ लगे रहें। अपनी सामर्थ्य के अनुरूप, उनकी मदद और कल्याण करें जिन्हें मदद और कल्याण की आवश्यकता है। श्रम करते करते शक्ति आ जाती है। और क्रियाशीलता, अथवा कर्म तो जीवन का धर्म है। जो लोग अनुग्रह के द्वारा आशीष प्राप्त कर ईसाई जीवन यापन करने का उद्दोग करते हैं पर ख्रीष्ट के लिए कोई कार्य करने का उद्दोग नहीं करते, वे ऐसा जीवन यापन करने की चेष्टा कर रहे है जिस में खाना तो मिलता है लेकिन काम करना ही नहीं पड़ता। और ऐसे जीवन का नतीजा आत्मिक और नैतिक दोनों का विनाशकारी होता है। जो मनुष्य अपने अंगो को परिचालित नहीं करता वह उन अंगो को पंगु और बेकार बना देता है क्योंकि थोड़े ही दिनों में उन अंगों पर उसका कोई बल नहीं चलेगा। उसी प्रकार जो ईसाई अपनी ईश्वर-प्रदत्त शक्तियों को उपयोग नहीं करता वह न केवल ख्रीष्ट में तादात्म्य प्राप्त करने में ही असफल रहता है किंतु अपनी पहले की शक्तियाँ भी खो बैठता है॥SC 63.4

    ख्रीष्ट की मंडली वह केंद्र है जिसे ईश्वर ने मनुष्य की मुक्ति के लिए स्थापित किया है। उसका लक्ष्य और उद्देश सारे जगत में ईश्वरीय समाचार का प्रचार और प्रसार है। और वह काम सारे ईसाईयों के मत्थे सौंपा गया है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य और बुद्धि के अनुसार मुक्तिदाता से ख्रीष्ट का प्रेम उदित हो जाता है तो हम उन लोगों के ऋणी हो जाते हैं जो ख्रीष्ट को नहीं जानते हैं। ईश्वर ने हमें ज्योति दी है, वह ज्योति सिर्फ अपने ही लिए नहीं, वरण इन अनभिज्ञ लोगों पर चमकाने के लिए भी॥SC 65.1

    यदि ख्रीष्ट शिष्यगन अपने कर्तव्य में सजग रहे, तो एक की जगह हजारों लोग अन्य धर्मावलंबियों के देशों में संदेश का प्रकाश फैलाते चलें। फिर तो जो लोग किसी कारणवश इस कार्य में हाथ न बता सकें हैं, वे अपने धन-बल, समवेदना-सहानुभूति और प्रार्थना से ही इसे सहायता दे सकते हैं। और ईसाई देशों में तो मनुष्यों के उद्धार के लिये और भी शक्ति से काम होगा॥SC 65.2

    यदि हमारे घर के देश में ही काम करने का क्षेत्र है तो यीशु के उद्देश की पूर्ति के लिये हमें अन्य धर्मावलंबियों के देशों में जाने का कोई प्रयोजन नहीं। तब तो हम अपने घर पर, मंडली में, दोस्तों के बिच, व्यापारी लोगों के साथ यह काम पूरा कर सकते हैं॥SC 65.3

    हमारे मुक्तिदाता के जीवन का अधिक भाग तो नासरत के बढई की दूकान पर काम करते ही बिता था। जब अज्ञात और असम्मानित रूप में जीवन के प्रभु किसानों और श्रमिकों और मजदूरों के साथ साथ बातचीत करते टहलते थे तो दूतगन उनके पास उपस्थित रहते थे। जब यीशु अपनी छोटी विनीत काम में लगे हुए थे तब भी वे अपने जीवन के उद्देश्य उतनी ही लगन से पूरा कर रहे थे जितनी लगन से वे रोगियों को आराम करने के समय अथवा गलील की अंधड़-तूफ़ान से तरंगित लहरों पर चलते हुए पूरा कर रहे थे। अतएव हम अपने छोटे से छोटे काम में और नीच से नीच जीवन में भी यीशु के साथ साथ श्रम कर सकते हैं और उनके ऐसा बन सकते हैं॥SC 65.4

    प्रेरित ने कहा है, “जो कोई जिस दशा में बुलाया गया हो वह उसी में परमेश्वर के साथ रहे।” १ कुरिन्थ ७:२४। व्यापारी अपना व्यापर इस प्रकार चला सकता है की उसकी भक्ति से उसका परमेश्वर गौरवान्वित हो उठे। यदि वह ख्रीष्ट का सच्चा शिष्य होगा तो अपने प्रत्येक कर्म में धर्म का प्रवेश करायेगा और प्रत्येक आदमी से ख्रीष्ट की आत्मा की बढ़ाई करेगा। मशीन में काम करनेवाला मिस्त्री अपने स्वामी यीशु के जैसा ही उद्दोगी, परिश्रमी और स्वामिभक्त होगा तथा ख्रीष्ट के गलील के पहाड़ पर के श्रम को याद करायेगा। जिस किसी ने भी ख्रीष्ट का नाम लिया है, उसे इस तरह परिश्रम करना चाहिए की उसके काम देख दुसरे भी सृष्टि और मुक्तिदाता की प्रशंसा कर उठें और उन्हें गौरवान्वित कर दें॥SC 66.1

    कितने लोगों ने अपनी शक्ति और प्रतिभा ख्रीष्ट की सेवा में खर्च न करने का यह बहाना बनाया है की दूसरों के पास तो उन से अधिक शक्ति और प्रतिभा है। अर्थात धारणा यह बन गई है की जो कोई भी विशेष प्रकार से मेघावी हैं, वे ही अपनी प्रतिभा ईश्वर की सेवा में अर्पित कर सकते हैं। और यह भ्रांति भी आ गई है की मेघा-शक्ति अर्थात प्रतिभा कुछ ही चुने हुए लोगों को मिलती है, दूसरों को नहीं मिलती और ये दुसरे लोगों को श्रम तथा वरदान में न तो हाथ बताना पड़ता है और न भाग ही मिलता है। किंतु दृष्टांत में कोई ऐसी बात नहीं कही गई है। जब घर के स्वामी ने अपने नौकरों को बुलाया तो उसने हर एक आदमी को अपने काम बांट दिया॥SC 66.2

    जीवन के नीच से नीच काम हम पूरी श्रद्धा से करें, जैसे “प्रभु के लिए” करते हों। कुलुस्सी ३:१३। यदि ईश्वर का प्रेम ह्रदय में होगा तो वह जीवन के समस्त वातावरण में परिमल-सुवास भर देगी और हमारी प्रभविष्णुता बढ़ जावेगी तथा दूसरों का मंगल करेगी॥SC 66.3

    जब आप ईश्वर के कर्तव्य में संलग्न हो जाने को प्रस्तुत हैं तो आप को किसी बड़े अवसर के लिए ठहरना नहीं चाहिये और न उसके लिये असाधारण शक्तियों की ही आशा करनी चाहिये। ऐसा विचार न कीजिये की दुनिया आप के बारे क्या सोचेगी। यदि आप के नित्य का जीवन आप की भक्ति की पवित्रता और निश्चयता की साक्षी देता है, और दुसरे लोग यह विश्वास करते हों की आपकी एक मात्र इच्छा उन लोगों का उपकार करना है, तो आप की चेष्टायें सम्पूर्ण रूप से विफल नहीं होगीं॥SC 66.4

    यीशु के नीच से नीच और दरिद्र से दरिद्र शिष्य भी दूसरों के हित के लिए वरदान के रूप में महान बन सकते है। भलाई करते वक्त वे यह नहीं जान सकते की कोई विशेष लाभ वे कर रहे हैं, किंतु अप्रत्यक्ष प्रभाव के द्वारा वे उपकार और लाभ की झड़ी लगा दे सकते हैं। इन के उपकार अनजाने ही विस्तृत और गंभीर होते जाते हैं। अपने उपकार के महान फल वे देख भी न सकेंगे। यदि कभी वे इन्हें जान सकेंगे तो अन्तिम प्रतिफल के ही दिन। अपनी नम्रता और दीनता के कारण उन्हें यह ज्ञान अथवा अनुभव नहीं होता की वे एक महान कार्य कर रहे हैं। वे अपने कार्यों की सफलता की चिंता में भी परेशान नहीं होते। उन्हें तो चुपचाप ईश्वर के कर्म सच्चाई से करते हुए आगे बढ़ चलना ही आता है। ऐसे लोगों का जीवन निरर्थक नहीं। इन की आत्मा नित्य यीशु की समता में बढती जावेगी। इस जीवन में वे ईश्वर के सकर्मी हैं और आने वाले जीवन के लिए अपने आप को तैयार कर रहे हैं। उस आनेवाले जीवन के कार्य महत्तर हैं और आनंद महान हैं॥SC 67.1

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