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    ख्रीष्ट में बढ़ते जाना

    जिस परिवतन के द्वारा ह्रदय इतना विशुद्ध और निर्मल हो जाता है की हम ईश्वर के पुत्र बन जाते हैं, उसी परिवर्तन को बायबल में जन्म कहा गया है। फिर इस अवस्था की उपमा किसान द्वारा बोये गये बीज के अंकुरित होने से दी गई है। उसी प्रकार जो लोग तुरंत ख्रीष्ट की शरण में नये नये आते हैं, वे “नये जन्मे बच्चों की नाई” हैं और उन्हें यीशु में निवास कर पुरे मनुष्य की कद का “बढ़ते जाना” पड़ता है। १ पितर २:२; एफिसो ४:१५। -- अथवा खेत में बोये गये अच्छे बीज की तरह उन्हें संकुरित, पल्लवित, कुसुमित और फिर फलित होना पड़ेगा। यशायाह ने कहा है, “ये धर्म के भक्ति वृक्ष और यहोवा के लगाये हुए कहलायें की वह शोभायमान ठहरे।” यशायाह ६१:३। इस प्रकार हम देखते हैं की हमारे वास्तविक और प्रकृत जीवन से उदाहरण एकत्र किये जाते हैं ताकि हम आत्मिक जीवन के कौतुक और रहस्यपूर्ण सत्य को पूरी तरह समझ सकें॥SC 53.1

    मनुष्य की सारी बुद्धी और कौशल संसार की छोटी से छोटी चीज में जीवन दल नहीं सकता। ईश्वर ने जीवन-शक्ति पौधों और मनुष्यों में दी है, उसी के बल पर वे जीवित रह सकते हैं। उसी प्रकार आत्मिक जीवन भी मनुष्य के ह्रदय में ईश्वर द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। जब तक मनुष्य “नये सिरे से न जन्मे” तब तब वह उस जीवन को प्राप्त नहीं कर सकता जिसे ख्रीष्ट देने आये थे॥SC 53.2

    जो बात जीवन प्राप्ति के विषय सच है, वाही वृद्धी के बारे में सत्य है। ईश्वर ही कलियों को विकसित करता है, ईश्वर ही फूलों को फलों से भरता है। उसी की शक्ति के कारन बीज विकसित होता है, “पहले अंकुर तब बाल और बालों में तैयार-दाना।” मार्क ४:२८। होशे नयी इस्त्राइल के विषय कहते हैं की “वह सोसन की नाई फुले फलेगा।” वे “अन्न की नाई बढ़ेंगे और दाख लता की नाई फुले फलेंगे।” होशे १४:५, ७। यीशु हमें आदेश देते हैं की “सोसनों पर ध्यान करो की वे कैसे बढ़ते हैं।” लूक १२:२७। पौधे, फूल और वृक्ष अपनी शक्ति, सामर्थ्य और चेष्टा के बल पर बढ़ते नहीं, किंतु ईश्वर की जीवन-शक्ति पा कर ही बुद्धि पाते हैं। बच्चा चाहे स्वयं कितना भी उद्योग चेष्टा, और फिक क्यों न करे, अपनी लम्बाई चौड़ाई में बाल भर भी वृद्धी नहीं ला सकता। आप भी अपनी चिंताओं और चेष्टाओं के द्वारा अपने में आत्मिक वृद्धि नहीं ला सकते। पौधे और बच्चे अपनी परिस्थिति से आवश्यक पदार्थो - वायु, सूर्यकिरण और भोजन -को खिंच कर अपने जीवन में मिलाते हैं तभी बढ़ते हैं। ये वस्तुएँ उनके जीवन और वृद्धी-विकास के लिए ईश्वर के उपहार हैं। प्रकृति के पशु और पौधों के लिए जो काम ये वस्तुएँ करती हैं, वही काम ख्रीष्ट भी अपने विश्वासियों के प्रति करते हैं। वे उनके लिये “सदा का उजियाला” है, तथा “सूर्य और ढाल” है। यशायाह ६०:१२, भजन संहिता ८४:११। वे “इस्त्राइल के लिये ओस के समान” होंगे। वे “घास की खूंटी पर बरसाने हारे मेंह” के समान आ पढेंगे। होशे १४:५; भजन संहिता ७२:६। वे जीवित जल हैं, “परमेश्वर की रोटी हैं हो स्वर्ग से उतर कर जगत को जीवन देती है।” यहुन्ना ६:३३॥SC 53.3

    अपने प्रिय पुत्र के अनुपम उपहार के द्वारा ईश्वर ने समस्त जगत में अनुग्रह और सुषमा का वितान तान दिया है। ईश्वर का यह अनुग्रह और सुषमा उसी प्रकार सत्य है जिस प्रकार पृथिवी-मंडल में व्याप्त वायु। जो कोई भी इस अनुग्रह और सुषमा का उपयोग करेगा वह जीवन प्राप्त करेगा तथा यीशु में निवास कर पुरे पुरुष और स्त्री की तरह विकल पायेगा॥SC 54.1

    जिस तरह फूल सूर्य की और घूम घूम कर उसकी-जीवन-दायिनी किरणों को ग्रहण करता है और अपने सौंदर्य और सुडौलता में पूर्णता लाता है, उसी प्रकार हमें भी शुद्ध और पवित्र सूर्य यीशु की तरफ घूम घूम कर स्वर्गीय किरणों का ग्रहण और यीशु के अनुरूप अपने चरित्र को विकसित करना चाहिये॥SC 54.2

    इसी बात की शिक्षा येशु ने यह कह कर दी है, “तुम मुझ में बने रहो और मैं तुम में। जैसे डाली दाखलता में यदि बनी न रहे तो अपने आप से नहीं फल सकती वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मुझ से अलग हो कर तुम कुछ नहीं कर सकते।” यहुन्ना १५:४:५। पवित्र जीवन यापन के लीए आप ख्रीष्ट पर उसी प्रकार निर्भर करते हैं, जिस पराक्र वृद्धी और फल के लीए डालियाँ अपने पौधों पर। उसके बिना आप में जीवन नहीं। आप में इतनी सामर्थ्य कहाँ की आप परीक्षाओं का सामना कर सकें और पवित्रता तथा अनुग्रह में बढ़ सकें। उन में निवास कर आप फल-फूल सकते हैं। उन से जीवन प्राप्त कर आप न तो सूखेंगे और न बिना फल के रहेंगे। आप की अवस्था वैसी रहेगी जो यथाह जल से भरी नदियों के तीर पर रोपे हुए वृक्षों की रहती है॥SC 54.3

    अनेक लोगों की यह धारणा है की कर्त्तव्य का कुछ अंश स्वयं करना आवश्यक है। उन्हों ने पापों को क्षमा प्राप्ति के लीए ख्रीष्ट पर भरोसा किया है, किंतु अब अपनी ही चेष्टाओं द्वारा वे पवित्र जीवन वापन करने के इच्छुक हैं। किंतु ऐसी सभी चेष्टाएँ विफल होंगी। यीशु ने कहा है, “मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं कर सकते।” हमारी अनुग्रह-प्राप्ति की शक्ति में वृद्धी, हमारे उपयोगिता, सभी कुछ तो ख्रीष्ट में मिले रहने पर निर्भर करता है। उनके साथ प्रतिदिन, प्रतिक्षण संबंध करने पर ही, उन में वास करने पर ही, हम अनुग्रह में बढ़ सकते हैं। वे केवल हमारे विश्वास के कर्ता ही नहीं परन्तु सिद्ध करनेवाले भी हैं। ख्रीष्ट ही आदि, अंत और सदा लों है। वे सदा, सर्वदा, सर्वत्र है, जीवन में व्याप्त हैं। हमारे जीवन के वे न केवल प्रारंभ में और अन्त में रहेंगे, किंतु पग पग में भी। दाउद ने कहा है, “मैं यहोवा को निरन्तर अपने सम्मुख जानता आया हूँ वह मेरे दहिने रहर हैं इस लीए मैं नहीं टलने का।” भजन संहिता १६:८॥SC 54.4

    अब आप पूछ सकते हैं की यीशु में निवास मैं किस प्रकार करूँगा? इसका उत्तर यही है की जिस प्रकार आप वे प्रारंभ में यीशु को अपनाया उसी प्रकार उन में निवास भी कीजिए। “जैसे तुम ने मसीह यीशु को प्रभु करके मान लिया है वैसे ही उसी में चलो।” “धर्मी जन विश्वास से जीता रहेगा।” कुलुस्सी २:६; इब्री १०:३८। आप ने अपने आप के ईश्वर को सौंप दिया, आप पूर्णत: ईश्वर को अर्पित हुए; ताकि आप उनकी सेवा करें, उनकी आज्ञाओं का पालन करें। आप ने ख्रीष्ट को अपना त्राता मान लिया। आप अपने पापों का प्रायश्चित भी स्वयं नहीं कर सकते हैं और अपने ह्रदय को परिवर्तित भी स्वयं नहीं कर सकते हैं। किंतु जब आप ने अपने इश्वर पर न्योछावर कर दिया तो उसने ख्रीष्ट के नाम से आप के लीए यह सब किया। विश्वास के कारण आप यीशु के हो गए और विश्वास के बल पर ही आप को यीशु में वृद्धी पाना तथा विकसित होना है। यह आदान-प्रदान हुआ। आप को अपने सर्वस्व का आदान करना होगा, ह्रदय, इच्छा, सेवा सभी समर्पित कर देनी होगी, उनकी सर आज्ञाओं के पालन करने में अपने को लुटा देना होगा। उन्हें आप को ग्रहण करना होगा - ख्रीष्ट में सब आशीषों की भरपूरी है, वे ही आप की ह्रदय में विराजेंगे, आप को शक्ति देंगे, पवित्रता देंगे, अनंत सहायता प्रदान करेंगे और ईश्वर की आज्ञाओं के पालन के लीए सामर्थ्य देंगे॥SC 55.1

    प्रात:काल अपने को ईश्वर के लीए समर्पित कीजिए; यही समर्पण आप के लीए नित्य का सर्व प्रथम काम हो। आप की प्रार्थना ऐसी हो, “हे प्रभु, मुझे पूरी तरह तू ग्रहण कर ले और पूरी तरह अपना समझ। तेरे चरणों पर मैं अपनी सारी योजनाएँ अर्पित कर दे रहा हूँ। अपनी में आज मुझे लगा ले। मेरे अन्तर में निवास कर और मेरे सारे कार्य तुझ में सम्पादित हो, ऐसी सामर्थ्य दे।” यह आप नित्य किजिये। प्रतिदिन प्रात:काल अपने को ईश्वारार्पित किजिये। अपनी सारी योजनाएँ उन पर समर्पित किजिए ताकि जैसा वे समझे, योजनाएँ सफल हो अथवा असफल॥SC 55.2

    यीशु में समर्पित जीवन विश्राम का जीवन है। इस जीवन में भावों का उद्वेग नहीं किंतु अनंत शांति पूर्ण विश्राम है। आप की आशा आप में नहीं किंतु ख्रीष्ट में है। आप की दुर्बलता उनकी शक्ति में मिल जाती है, आप का अज्ञान उनकी वृद्धी और कुशाग्रता से संबंधित होता है, आप की अशक्तता उनकी महान शक्ति में जुट जाती है। अत एव आप अपने ऊपर भरोसा न किजिये किंतु सर्वदा यीशु का स्मरण-मनन कीजिए। मस्तिष्क को उनके प्रेम, सौंदर्य, और चरित्र की पूर्णयता मनन करने दीजिए। यदि कोई भी वास्तु आत्मा की साधना के लिए चिंतन का विषय है तो वह विषय यीशु का आत्म-त्याग, यीशु की आत्मावज्ञा, यीशु की पवित्रता और विशुद्धता, और यीशु का अद्वितीय प्रेम ही है। उन्हें प्यार कर, उनका अनुकरण कर, उन पर पूर्णत: निर्भर कर आप अपने को उनके अनुरूप बना ले सकते हैं।SC 55.3

    यीशु ने कहा है, “मुझ मैं बने रहो।” इन शब्दों विश्राम, शांति और विश्वास के भाव निहित हैं। वे फिर आमंत्रित कहते हैं, “मेरे पास आओ मैं तुम्हे विश्राम दूंगा।” मती ११:२८, २६। स्तोत्रकर्ता के शब्दों में भी वही भाव छिपा है, जब वह कहता है, “यहोवा के सामने चुपचाप रह और धीरज से उसका आसरा रख।” भजन ३७:७। और यशायाह यह निश्चयता देता है, “चुपचाप रहने, भरोसा रखने से तुम्हारी वीरता ठहरेगी” यशायाह ३०:१४। इस “चुपचाप” के मूल में अक्रियाशिलाता या आलस्य नहीं है। क्योंकि मुक्तिदाता के निमंत्रण में विश्राम की प्रतिज्ञा और परिश्रम करने की आज्ञा दोनों मिली हुई हैं। “मेरा जूपा अपने ऊपर उठा लो। और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे।” मती ११:२६। जो ह्रदय यीशु में जितना अधिक विश्राम करता है वह उतने ही आग्रह और उत्साह से उनके लिए परिश्रम करता है॥SC 56.1

    जब मस्तिष्क स्वार्थ के विषय पर केन्द्रित रहता है तो वह यीशु के विमुख रहता है की मन मुक्तिदाता से विमुख रहे और आत्मा तथा परमात्मा का समागमन न हो सके। शैतान सदा चाहेगा की आप का मन संसारी भोगविलासों में, जीवन के उधेड़बुन में, चिंताओं और पहेलियों में, दुसरे के अवगुणों में अथवा अपनी दुर्बलताओं और अवगुणों में उलझा रहे। शैतान के चपेट में न आइये। अक्सर सच्चे आत्मविवेकी एवं ईश्वारानुरागी लोगों को भी शैतान चक्र में डाल कर स्वार्थ में प्रवृत्त करा देता है और उन्हें यीशु से पृथक कर अपने विजय की आशा करता है। हमें स्वार्थ को चिंतन का केंद्र न बनाना चाहिए और अपने उद्धार के विषय में संशय न करना चाहिये। इन सबों से आत्मा शक्ति के मूल-स्त्रोत से हट कर दूसरी ओर जा लगती है। अपनी आत्मा को पूरी तरह ईश्वर के हाथों सौंप दीजिये और उन पर भरोसा कीजिए। सदा यीशु के बारे संभाषण कीजिए और उनका ही ध्यान लगाइये। अपने स्वार्थ को उन्ही में तिरोहित कर दीजिये। सारे संशय, संदेह और भ्रम को दूर कर दीजिए; अपने भय को बहिष्कृत कीजिए। पावल के साथ साथ ये बातें बोलिये, “मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढाया गया हूँ और मैं जीता न रहा पर मसीह मुझ में जीता है और मैं शरीर में अब जो जीता हूँ तो उस विश्वास में जीता हूँ जो परमेश्वर के पुत्र पर है जिस ने मुझ से प्रेम किया और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।” गलतियों २:२०। ईश्वर में विश्राम कीजिए। वे इतने समर्थ हैं की आप के द्वारा अर्पित सारी वस्तुओं को सुरक्षित रख सकेंगे। यदि आप अपने हाथों सौंप देते हैं तो वे आप को विजयी से भी अधिक गौरवान्वित रूप में जीवन के पर लगा देंगे॥SC 56.2

    जब यीशु ने मनुष्यत्व धारण किया तो उन्हों ने मनुष्यत्व को अपने से प्रेम की ऐसी जटिल बन्धनों द्वारा बाँध लिया की वह किसी के तोड़े न टूटेगी। हाँ, यदि मनुष्य उसे तोड़ देना पसंद करे तो वही तोड़ सकेगा। और शैतान सदा ऐसी मोहक और आत्मिक वस्तुएँ हम लोगों को दिखलायेगा की हम इस बंधन को तोड़ देने में प्रवृत्त हो जाँय। इस के तोड़ देने पर हम यीशु से अलग हट जायेंगे। यहीं पर हमें सतर्क रहना चाहिये की हम किसी भी हालत में दुसरे स्वामी के अधिपत्य में न भूल पड़ें। हमें सदा ख्रीष्ट का ध्यान लगाना चाहिये। वही हमारी रक्षा कर सकेंगे। जब तक उनकी ओर ध्यान-रत रहेंगे, हम सुरक्षित रहेंगे। किस की सामर्थ जो उनके हाथों से हमें छीन कर ले जाय? उनके सतत ध्यान और साधना से “उस प्रभु के द्वारा जो आत्मा है तेज पर तेज प्राप्त करते हुए उसी रूप में बदलते जाते हैं।” २ कुरिन्थ ३:१८॥SC 57.1

    प्राचीन समय के शिष्यों ने अपने मुक्तिदाता के अनुरूप अपने को इसी विधि से बनाया था। जब इन लोगों ने यीशु की वाणी सुनी तो इन्होंने यीशु की आवश्यकता अनुभव किया। इन्हों ने उन्हें खोजा, उन्हें पाया और फिर उन्हीं का अनुसरण किया। ये लोग यीशु के साथ घर में, खाना खाते वक्त, बात करते वक्त, मैदान में, सब समय सब जगह रहते थे। ये शिष्यों की तरह और अपने गुरु से पवित्र शिक्षाएँ और उपदेश श्रवण करते थे। ये उन्हें अपना स्वामी समझते और दासों की तरह उन की आज्ञाएँ पालन करते थे। ये शिष्य “हमारे समान दु:ख सुख भोगी मनुष्य” थे। याकूब ५:१७। हम लोगों की तरह उन्हें भी पाप से दुघर्ष संग्राम करना पड़ा था। पवित्र जीवन व्यतीत करने के लिए उन्हें भी हमारी ही तरह ईश्वर के अनुग्रह की आवश्यकता थी॥SC 57.2

    यीशु का सब से प्रिय शिष्य और यीशु की समता करने वालों में सब से अग्रगण्य योहन ने भी स्वाभाविक रीती से मधुर प्रकृति नहीं पाई थी। वह न केवल आत्म-प्रशंसी और सम्मान-प्रेमी था किंतु अग्र और क्रोधी भी था। परंतु जब उस ईश्वरीय विभूति यीशु की मधुर प्रकृति उसकी आँखों के सामने आई तो उसने अपनी सारी दुर्बलताएँ देख लीं। तब कहीं वह विनम्र हुआ। बल और धैर्य, शक्ति और उदारता, शौम्य और सरलता के प्रकाश जो उस ने ईश्वर पुत्र में देखे, तो उस की आत्मा विस्मय और पुलक से भर गई। वह प्रेम-विभोर हो उठा। प्रत्येक दिन वह ख्रीष्ट को ओर अधिक तीव्रता से आकृष्ट होता गया। और फिर थोड़े ही दिनों के बाद उसने अपने स्वयं को स्वामी के प्रेम में डूबा दिया। यीशु की कृपा के कारण उस के स्वामी की उग्रता और दोष दब गए। ख्रीष्ट की धवल प्रतिभा ने उसे अभिनव स्पंदन से भर दिया। उसकी प्रकृति आमूल बदल गई। यह यीशु से एकतान होने का अनिवार्य फल है। जब जब यीशु ह्रदय में अधिष्ठित होते हैं, प्रकृति में आशातीत परिवर्तन हो जाता है। यीशु की विभूति, उन का प्रेम ह्रदय को कोमल बना देता है, आत्मा को विनम्र कर देता है, विचारों की पृष्ट-भूमि को स्वर्गोंमुख कर उन्नत और इच्छाओं को इश्वारोंमुख कर गौरवयुक्त कर देता है॥SC 57.3

    जब यीशु ने स्वर्गारोहण किया, तो उनकी उपस्थिति का भाव उनके शिष्यों में रह ही गया था। यह उपस्थिति का भाव वैयक्तिक भाव था और ममत्व तथा आलोक से पूर्ण सांत्वानाये दीं, वही यीशु शांति के उपदेश देते ही देते उनसे छीन कर स्वर्ग को ले जाया गया। जब दूतों ने बादलों पर उनका स्वागत किया तब उनकी वाणी गूँज उनके पास आती रही, “देखो मैं जगत् के अन्त तक सब दिन तुम्हारे साथ हूँ।” मती २८:२०। उन्हों ने मनुष्य के रूप में स्वर्गारोहण किया। शिष्यों ने यह जान लिया की वे ईश्वर के सिंहासन के पास होंगे, फिर भी उनके परममित्र और मुक्तिदाता रहेंगे। उनके अनुराग और सहानभूति अडिग, अक्षुण रहेगी। और वे सदा शोकग्रस्त मानवता के प्रतिक रहेंगे। तब वे अपने अमूल्य रक्त-कणों के गुण ईश्वर को दिखलाते होंगे, अपने कटे और लोहू से लथपथ हाथ और पांव दिखलाते होंगे, और कहते होंगे, और कहते होंगे, की मानव-कल्याण के लिये, उनकी मुक्ति के लिये इतनी कीमत चुकाई गई। ये शिष्यगन जानते थे की उन्हों ने स्वर्गारोहण केवल इसी लिये किया था की शिष्यों के लिये स्थान सुरक्षित किया जाय। वे यह भी जानते थे की यीशु फिर से आयेंगे और उन्हें अपने साथ ले जायेंगे॥SC 58.1

    स्वर्गारोहण के बाद जब उन्होंने आपस में भेंट की तो यीशु के नाम पर वे अपनी प्रार्थनाएँ ईश्वर के समक्ष करने को तैयार थे। गंभीर मुद्रा में वे प्रार्थना करने को झुक गए इस निश्चयता को दुहराते हुए की “यदि पिता से कुछ मांगोगे तो वह मेरे नाम से तुम्हें देगा। अब तक तुम ने मेरे नाम से कुछ नहीं मांगा। मांगो तो पाओगे की तुम्हारा आनंद पूरा हो जाय।” योहन १६:२३, २४। उन्हों ने अपने विश्वास को अधिक से अधिक बढाया यह कहते हुए की “मसीह जो मरा वरन जी भी उठा और परमेश्वर की दहिनी ओर है और हमारे लिए बिनती भी करता है।” रोमी ८:३४। और पिन्तेकुस्त के दिन उन्हें धीरज देनेवाला पवित्र-आत्मा मिला जिस के विषय यीशु ने कहा था की वह “तुम में होगा।” यीशु ने और यह भी कहा था, “मेरा जाना तुम्हारे लिये अच्छा है क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो वह सहायक तुम्हारे पास न आएगा पर यदि मैं जाऊँगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूंगा।” योहन १४:१७; १६:७। अब से आगे ख्रीष्ट पवित्र आत्मा के द्वारा अपने पलकों के ह्रदय में सर्वदा निवास करेगा। यीशु के साथ इन शिष्यों का संबंध पहले की अपेक्षा अब और भी प्रगाढ़ हो गया। क्योंकि अन्तरस्पल में विराजनेवाले यीशु के प्रकाश, प्रेम और शक्ति की किरणों उनके द्वारा प्रकाशित होती थी और देखनेवाले लोगों ने “अचम्मा किया फिर उनको पहिचाना की ये यीशु के साथ रहे हैं।” प्रेरितों के काम ४:१३॥SC 58.2

    अपने प्रथम शिष्यों के लिये जो कुछ भी यीशु ने किया, वही वे अपने आज के सभी पुत्रों के साथ करना चाहते हैं। अपनी अंतिम प्रार्थना में उन्होंने शिष्यों के उस छोटे झुराड से यही कहा था, “मैं केवल इन्ही के लिए बिनती नहीं करता पर उनके लिए भी जो इनके वचन के द्वारा मुझ पर विश्वास करेंगे।” योहन १७:२०॥SC 59.1

    यीशु ने हमारे लिए भी प्रार्थना की, और वही भिक्षा मांगी की हम उन में एक हों ठीक जैसे की वे पिता में एक हैं। यह कैसा अनुपम संबंध है। मुक्तिदाता ने अपने बारे यह कहा है, “पुत्र आप से कुछ नहीं कर सकता;” “पिता मुझ में रह कर अपने काम करता है।” योहन ५:१६; १४:१०। यदि ख्रीष्ट हम में वास करेंगे तो वे हम में काम करेंगे। “क्योंकि परमेश्वर ही है जो अपनी सुइच्छा निमित्त तुम्हारे मन में इच्छा और काम दोनों करने का प्रभाव डालता है।” फिलिप्पी २:१३। तब हम वैसे ही कर्म करेंगे जैसे उन्हों ने किये। हम उन का सा भाव प्रदर्शित करेंगे। और इसी प्रकार उन्हें श्रद्धा और शक्ति से अपने प्रेम अर्पित करते करते उन में निवास करते करते हम “सब बातों में उस में जो सर है अर्थात मसीह में बढ़ते जाएंगे।” हफिसियों ४:१५॥SC 59.2

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