पापी को ख्रीष्ट की आवश्यकता
Search Results
- Results
- Related
- Featured
- Weighted Relevancy
- Content Sequence
- Relevancy
- Earliest First
- Latest First
- Exact Match First, Root Words Second
- Exact word match
- Root word match
- EGW Collections
- All collections
- Lifetime Works (1845-1917)
- Compilations (1918-present)
- Adventist Pioneer Library
- My Bible
- Dictionary
- Reference
- Short
- Long
- Paragraph
No results.
EGW Extras
Directory
पापी को ख्रीष्ट की आवश्यकता
मनुष्य को आदि में आची शक्तियाँ और संतुलित मस्तिष्क प्राप्त हूए थे। तब वह आपने आप में पूर्ण और ईश्वर के साथ एकतान था। किंतु अद्न्या के तिरस्कार करने पर उसकी शक्तियाँ नाशोंमुख हुई और प्रेम के स्थान पर स्वार्थ ने जड़े जमा दी। अपराध के कारण उसका स्वाभाव इतना अशक्त हो गया की वह अपनी पूरी सामर्थ्य से भी शैतान की शक्तियों के मुकाबिला करने में समर्थ न हो वह शैतान के द्वारा बन्दी बनाया गया और सदा के लिए उसी रूप में कैद रहता किंतु ईश्वर ने मुक्त करने का बीड़ा उठाया। शैतान की चेष्टा तोह यह थी की मनुष्य - श्रुस्ती जो श्वरिय विधान निहित था उसे ही विनष्ट कर दिया जाए और सारी पृथिवी म संतोष और मृत्यु की विभिशिक छा गए। फिर तव, वह इन सारे कुत्सित पदार्थो को दिखाकर कहता की यह ईश्वर की मनुष्य - सृष्टि करने का परिणाम है॥ SC 13.1
अपनी निष्पाप अवस्ता में मनुष्य उस सर्व शक्तिमान के साथ प्रतीक्षा वार्तालाप कर्ता “जिसमे बुद्धि और द्न्यान के सारे भंडार छुपे है।” कुलुस्सौ २:३। किंतु पाप के बाद मनुष्य को पवित्रता से आनन्द प्राप्त न होने लगा। और वह ईश्वर के साक्षात्कार से अपने से दूर रखने लगा। अभी भी उन आत्माओं की जो पुनर जाग्रत नहीं हो सकी है, यही हालत है। वे ईश्वर के साथ एकतान नहीं, और उसके साक्षात्कार से पुलकित नहीं होती। पापी ईश्वर के समक्ष प्रसन्ना हो ही नहीं सकता; और वह पवित्र प्राणियों के सामने जाने अथवा उनकी संगती करने से भागेगा। यदि उसे स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति मिल जाए, तो वह खुश न होगा। निस्वार्थ प्रेम की रागिनी वहा बचाती रहती है, प्रत्येक ह्रदय से उस अनंत प्रेममय ईश्वर के ह्रदय की जो झंकार वहा निकलती रहित है, वह उसकी हतंत्री के किसी तार को स्पंदित न कर सकेगी। उसके विचार उसके अनुराग और उद्देश्य से इतने पृथक लगेंगे की वे नितांत प्रतिकूल जाचेंगे। स्वर्ग के अनंत संगीत में वह बेसुरा रहेगा। स्वर्ग उसके लिए यातनाओं का केंद्र हो उठेगा। स्वर्ग की प्रभा और उसके उल्लक के केंद्र ईश्वर से आँख चुराकर भाग जाने को वह लाल चित हो उठेगा। ईश्वर ने दुष्टात्माओ को स्वर्ग से बहिष्कृत करने का जो नियम बनाया वह ईश्वर की स्वेच्छाचरिता नहीं। वे लोग आपने अयोग्यता के कारन खुद ही स्वर्ग से भागते है। अतः ईश्वर की प्रभा तो उनके लिए अस्मसात करने वाली ज्वाला हो उठेगी। आपने को उनकी नजर से छिपा लेने के उद्योग में जो उन्ही के कल्याण हेतु मरा, वे सर्वेशतः विनष्ट होना पसंद करेंगे॥SC 13.2
हम लोगों के लिए केवल अपनी ही शक्ति-सामर्थ्य के बूते पर पाप के उस गद्दे से बच निकलना मुश्किल और असंभव है। जिस में हम लोग गिर गए है। हमारे ह्रुधय की पापी हो गए है और उन्हें बदलना असंभव है। “अशुद्ध वास्तु से शुद्ध वास्तु को कोंन निकल सकता है? कोई नहीं”। भ्रय्युब १४:४। “शारीर पर मनन लगाना तोह परमेश्वर से बैर रखना है क्यों की न तो परमेश्वर की व्यवस्था के आधीन है और न हो सकता है”। रोमियो ८:७। शिक्षा, संस्कृति, इच्छा शक्ति का विकास मानव प्रवास इन सबो का एक उचित क्षेत्र है, किंतु इस क्षेत्र में ये निरे अशक्त है। इन सबो से बाहरी व्यापार चेष्टाओ में कुछ अंतर आ सकता है, किंतु ह्रदय में परिवर्तन लाना इनके द्वारा असंभव है। ये जीवन- स्त्रोत को पवित्र नहीं बना सकते। जब तक ह्रदय के निम्न स्थल से एक शक्ति सतत उद्योग न करे और जब तक ऊपर से नविन जीवन का स्पंदन न मिले तबतक पापी से पवित्र बनना टेढ़ी खीर है। हृदय की वह शक्ति यीशु मसीह है। इनके अनुग्रह द्वारा ही आत्मा की सुषुप्त शक्तिया जाग्रत एवं जीवित और जोतिश्मती हो सकती है, ईश्वोरंमुख हो सकती है, पवित्र हो सकती है॥SC 13.3
उद्धारकर्ता प्रभु ने कहा, “यदि कोई नए सिरे से न जन्मे,” जब तक उससे नूतन ह्रदय, नविन ईछाएं, उद्धेश और अभिलाषाएं जिनका लक्ष अभिनव जीवन की प्राप्ति हो, नहीं मिलती, तब तक वह “परमेश्वर का राज्य नहीं देख सकता”। योहन ३:३। यह विचात्र-परंपरा, की मनुष्य के स्वाभाव में जो अच्छाई है उसी को विक्सित करना अवशक है, एक घातक धोखा है। “शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं कर्ता क्यों की वे उसके लिखे मुर्खता की बातें है और न वह उन्हें जान सकता क्यों की उनकी जांच आत्मिक रीती से होती है”। १ कुरिन्थियों २:१४। “अचम्भा न करे की मैंने तुझसे कहा की तुम्हे नए सिरे से जन्म लेना अवश्य है।” योहन ३:७। ख्रीष्ट के बारे में यह लिखा है, “उसमे जीवन था और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति थी” योहन। १:४। “और किसी दुसरे से उद्धार नहीं क्यों की स्वर्ग के निचे मनुष्यों में कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया जिससे हम उद्धार पा सके।” प्रेरित ४:१२॥SC 14.1
ईश्वर के ममतामय दया के प्रतीक्षानुभव ही सब कुछ नहीं, उसके चरित्र की उदारता, पित्तुल्या सहृदयता अदि देखना ही सबकुछ नहीं। उसके नीयम-चक्रों की चतुराई और न्याय शीलता की जांच ही इसलिए करना की वे प्रेम के अमर सिद्धांत पर अवलंबित है या नहीं, सब कुछ नहीं। प्रेरित पवन ने यह सब कुछ देख लिया था जब उसने कहा, “में मान लेता हु की व्यवस्ता भली है।” “व्यवस्ता पवित्र है और आद्न्य भी ठीक और अच्छी है।” रोमी ७:१६,१२। किंतु आत्मा की मृत्यु विभिशिक और निराश में वह कहता चला, “पर में शारीरिक और पाप के हाथ बिका हुआ हूँ”। रोमी ७:१४। वह पवित्र और निष्पाप जीवन के लिए तड़पता रहा क्यों की इन्हें वह आपनी शक्ति से प्राप्त न कर सकता था। वह चिल्ला उठा, “में कैसा अभागा हूँ मुझे इस मृत्यु के देह से कौन छुड़ाएगा?” रोमी ७:२४॥ सभी युगों में सभी देशो में पीड़ित हृदयों की ऐसी ही चीत्कार लोक लोक में गूंजी है। इन सबो का एक ही उत्तर है, “देखो परमेश्वर का मेमना जो जगत का पाप हर ले जाता है।” योहन १: २६॥SC 14.2
इस सत्य के प्रतिपादन के लिए और पापी यों की आत्मा को उन्मुक्त करने के हेतु उन्हें इसे साफ समझा देने के लिए ईश्वर ने कितने चित्र, आख्यायिकाये, घटनाये राखी है। एसाव को धोका देने के बाद, पाप करके जब याकूब आपने पिता के घर से भाग खड़ा हुआ तो अपनी अपराध के गुरुता वह खुद शर्म से गड गया। जाती-च्युत और अकेला हो जाने पर उन सबो से से विचुद जाने पर जिसने जीवन को सुन्दर बनाया था वह इसी उद्धेडवुन में पड़ा रहता की अपने पाप के कारण कही ईश्वर से अलग और स्वर्ग से दूर न फेक दिया जाऊ। चिंता के मारे वह उबड़ खाबड़ जमीन पर लेट कर छटपटाने लगा। उस समय उसके चारो और घोर शांत निर्जन पर्वत थे और ऊपर तागओ से सज्जित विस्तृत नील आकाश। जब वह सो गया तो स्वप्न में चकाचोंध करने वाली ज्योति उसपर फूट पड़ी। फिर उस तराई से असंख्य धुंदली सीडिया उठती हुई नजर आई जो सीधे स्वर्ग के द्वार तक चली गयी। और उनपर ईश्वर के दूत गन उतरते उठते मालूम होने लगे और उचात्तम क्षमा से आकाशवाणी सुने पड़ी जिस में सांत्वन और आशा के सन्देश छिपे थे इस तरह याकूब की आत्मा में जिसकी अनंत चाह थी, वह उद्धार कर्ता याकूब को न्यात हुआ। उसने पुलकित और रोमांचित हो कर वह मार्ग देखा जिसके द्वारा उसके जैसा पापी भी ईश्वर के साथ संलाप करने में पुन्हा समर्थ हो सकता था ईश्वर और मनुष्य के बिच यातायात के एक मात्र माध्यम यीशु ही याकूब के स्वप्न की सीडियों के रूप में उसके पास आए थे॥SC 15.1
यह वोही चीज़ है जिसका संकेत खीष्ट ने नाथ नतनएल के साथ वर्तालाब करने के समय किया और कहा था “तुम स्वर्ग को खुला और परमेश्वर के स्वर्ग दूतों को मनुष्य के पुत्र के ऊपर चढ़ते उतारते देखोगे।” योहन १:५१। अपने धर्मं को याग कर पापी होने के साथ साथ मनुष्य ने अपने आप को ईश्वर से विमुख कर लिया और पृथिवी स्वर्ग से पृथक खिसक गयी। उन दोनों के बिच जो खाई खुल गयी वह संलाप को असंभव बनाने लगी। किंतु खीष्ट के द्वारा पृथिवी फिर स्वर्ग से सबंधित हो गयी। अपने गुणों के कारण ही खीष्ट ने पृथिवी और स्वर्ग के बिह की खाई पर सेतु का निर्माण किया, पाप की बनी खाई को व्यर्थ किया। फिर स्वर्ग दूत गन मनुष्यों के साथ विचारो का आदान प्रदान करने लगे। अशक्त और हताश हो जाने की अवस्ता में पतित मनुष्यों का सबंध खीष्ट सर्वशक्तिमान परमेश्वर से जोड़ता है॥SC 15.2
किंतु मनुष्य के सारे स्वप्न हवाई किला होंगे, मानव-मात्र को उन्नत करने के सारे प्रयास व्यर्थ होंगे, यदि हम इन सपनो और प्रयो के बिच अध्:पतित मानव- जाती के एक मात्र रक्षक और सहायक को भूल जाँव। “हर एक अच्छा दान और हर एक उत्तम घर” ईश्वर से ही प्राप्त होता है। याकूब १:१७। ईश्वर से पृथक कोई भी वास्तविक आदर्श चरित्र नहीं। और ईश्वर प्राप्ति का एक मात्र मार्ग यीशु है। वह कहता है, “मार्ग और सच्चाई और जीवन में ही हु बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँचता।” योहन १४:६॥SC 15.3
ईश्वर के ह्रदय में अपने पार्थिव बच्चो के प्रति विकल चाह रहती है और यह चाह मृत्यु से तीव्र है। अपने प्रिय पुत्र को हमे देने के साथ साथ उसने एक ही उपहार में समस्त स्वर्ग को उड़ेग दिया। उद्धार करता खिश्त का जन्म-जीवन, और मृत्यु, उनका मध्यस्त होना, दूतों का मंगल प्रयास आत्मा की प्रेरणा, परम पिता का स्वर्ग से सारे कामो का नियंत्रण और सबो में व्याप्त रहना, सारे स्वर्ग के प्राणीयों की हमारी मंगल-कामना--ये सब सारे का मनुष्य की मुक्ति के लिए हुए॥SC 16.1
आह, कितना आश्चर्य जनक बलिदान हम लोगों के लिए हुआ। जरा गंभीर चिंतन करे! पथ से भूले हुए विमुख मनुष्यों को परम पिता के गृह की ओर वापिस लोटा लेने के लिए ईश्वर ओ कितना अधिक परिश्रम और चिंतन करना पड़ रहा है। जरा इसकी मुक्त कंठ से गु गाये! ऐसे महान उद्देश और ऐसे गूढ़ शक्तिशाली उपाय कभी भी काम में न आये। सयता और धर्मं के अनुसरण के लिए विपुल पुरस्कार--स्वर्ग-सुख,स्वर्गदूतों के संघ विहार, ईश्वर और उसके पुत्र के संग संलाप और प्रेम, युग युग तक हमारी सारी शक्तिओं की उन्नति और उर्ज्वस्विन विकास--क्या हमे यह प्रेरणा नहीं देते, यह उत्साह नहीं भरते की हम अपने ह्रदय की पूरी लगन से स्त्रष्टा और मुक्ति डाटा की सेवा करे?SC 16.2
और दूसरी ओर ईश्वर ने पाप का जो दंड न्याय द्वारा घोषित किया है, की अनिवार्य प्रतिफल मिलेगा, चरित्र अध्:पतित होगा, और अंत में विनाश आ घेरेगा, वह हमे शैतान के सेवा करने से रोकता और सचत करता है॥SC 16.3
तब क्या हम ईश्वर की करुना के गुण न गए? इस से अधिक हमारे लिए वह कर ही क्या सकता था? हमे चाहिए की उनसे सुन्दर संबंद स्तापित कर ले क्योंकी उन्होंने ने हम सबो पर आश्चर्य जनक प्रेम दिखाया है। हमारे पास जितनी सामर्थ्य और संबल है, उसका उपयोग कर उनके अनुरूप बनाने की चेष्टा करना ही हमारे लिए उत्तम है। तभी हम स्वर्ग दूतों की संगती का आनंद उठाएंगे और परम पिता तथा प्रिय पुत्र के साथ एकतान हो कर रहेंगे॥SC 16.4