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    शंका को क्या करें

    बहुत से लोग ईश्वर के बारे शंका करने लगते हैं और मुसीबतों में आ पड़ते है। ऐसी बात नये ईसाईयों के बीच ज्यादा देखी गयी है। बायबल में बहुत सी चीजे ऐसी हैं जिन्हें वे समझा नहीं सकते और समझ भी नहीं सकते। अब शैतान इन चीजों को ईश्वर के पवित्रशास्त्र को ईश्वरी-प्रकाशित समझेंगे ही नहीं। उस पर से हमारा विश्वास खिसकतासा जायेगा। ऐसी अवस्था में पड़े लोग पूछेंगे “हम किस प्रकार सत्य मार्ग को ढूंढ़ ले सकते है? यदि बायबल ईश्वर के वचन ही व्यक्त हुए है, उनकी वाणी ही फुट पड़ी है तो इन शंकाओं, संशयो और द्विविधाओं से मैं कैसे मुक्त हो सकता हूँ?”SC 87.1

    ईश्वर वह नहीं कहता की बगैर प्रमाण के हम किसी भी बात पर विश्वास कर लें। ईश्वर की स्थिति, उनका चरित्र, उनके वचन की सत्यता, सभी प्रमाण द्वारा सिद्ध, तर्कों द्वारा सिद्ध हो चुके हैं। हजारो-लाखों प्रमाण पड़ें है। फिर भी ईश्वर ने शंका के लिए स्थान रखा, उसे पूर्णतः बहिष्कृत नहीं किया। हमारे विश्वास प्रमाण पर टिके रहें, बाहरी दिखावा पर नहीं। फिर भी जिन्हें शंका करने की इच्छा ही है, उनके लिए बहूत ज्यादा गुंजाइश है, वे खूब शंका करें। किंतु जो सचमुच सत्य के परिज्ञान की चेष्टा कर रहे हैं, उन्हें अपने विश्वास के लिए काफी प्रमाण मिल जायेंगे॥SC 87.2

    हम लोगों का मस्तिष्क ससीम है और ईश्वर स्वयं निस्सीम है, उसका चरित्र सीमा से परे है और कार्य असीम हैं। अतएव हमारे मस्तिष्क को न तो वही बोधगम्य हैं, न उसका चरित्र और न कार्य। कुशाग्र से कुशाघ्र बुद्धि के लिए भी, और सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित मस्तिष्क के लिए भी वह रहस्यमय ही रहेगा। “क्या तू ईश्वर का गुप्त भेद पा सकता और सर्वशक्तिमान का मर्म पूरी रीती से जांच सकता। आकाश सा ऊँचा तू क्या कर सकता अधोशोक से गहिरा तू वहां समझ सकता।” अय्यूब ११:७,८॥SC 87.3

    पावल ने कहा है, “यहा परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है। उसके विचार कैसे अथाह और उसके मार्ग कैसे अगम हैं।” रोमी ११:३३। परन्तु यद्दपि “बादल और अन्धकार उसके चारों और हैं” तथापि “उसके सिंहासन का मूल धर्म और न्याय है।” भजन ६७:२। उसके हमारे प्रति व्यवहार और उद्देश में जो बात समझी जा सकती है वह यही की उसकी असीम शक्ति के साथ अगाध प्रेम और करुणा मिली हुई है। उसके प्रयोजन को हम इतना हो समझ सकते हैं की जिससे हमारा कल्याण हो सकें। इसके परे जो है उसके बारे हमें यह विश्वास करना चाहिये की उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर का वरद हस्त और प्रेममय ह्रदय हम पर सदा आशीर्वाद की षर्षा करेंगे॥SC 87.4

    जैसे ईश्वर का चरित्र बोधगम्य नहीं, उसी तरह ईश्वर की वचन भी बोधगम्य नहीं। ईश्वर की वाणी, ईश्वर के वचन अपने जन्मदाता परमेश्वर की ईश्वरीय प्रकृति की ही तरह ससीम मस्तिष्क द्वारा पूरी तरह समझे नहीं जा सकते। अतएव उनके रहस्यों का उद्घाटन सर्वत्र संभव नहीं। पृथिवी में पाप के प्रवेश, ख्रीष्ट का अवतार, पुनर्जीवन प्राप्ति, पुनरुत्थान, एवं अन्य विषय भी जिनका उल्लेख बायबल में हुआ हैं, ऐसे गंभीर रहस्य से आवृत्त विषय हैं जिन्हें समझाना अथवा समझ लेना मनुष्य के मस्तिष्क से परे की बात है। किंतु ईश्वर के वचनों पर शंका करने का कोई कारण नहीं। यदि हम रहस्य सुलझाते नहीं, तो इसका अर्थ यह नहीं की उन पर हा संदेह करें। इसी वास्तविक जीवन में भी रहस्य सर्वत्र आ पड़ते है और उन्हें भी हम नहीं समझ पाते। साधारण से साधारण जीवन में भी ऐसी उलझने हैं जिन्हें बुद्धिमान से बुद्धिमान दार्शनिक भी सुलझा नहीं पाते। चारों और आश्चर्य भरे ही हुए हैं। और उन पर दृष्टि डाल हम विस्मय विमुग्ध हों जाते हैं। फिर यदि आध्यात्मिक जगत में गहरे रहस्य मिले और उन्हें हम सुलझा न सकें तो हमें क्या आश्चर्य में डूब जाना चाहिये? असल मुसीबत तो यह है की मानव मस्तिष्क बहूत दुर्बल और संकीर्ण है। धर्मशास्त्र में ईश्वर ने उन प्रन्धों की प्रमाणिकता के बारे काफी सबुतें दी है। अतएव यदि उनके रहस्य हमें समझ में न आवें तो उसके वचन पर संदेह और शंका करना उचित नहीं॥SC 88.1

    पतरस ने कहा है की धर्मशास्त्र में “कितनी बातें ऐसी हैं जिनका समझना कठिन है और अनपढ़ और चंचल लोग उनके मतलब को भी पवित्रशास्त्र की और बातों की नाई खींचतान कर अपने ही नाश का कारण बनाते हैं।” पतरस ३:१६। शास्त्र में जो कठिन अंश हैं उन्हें अविश्वासी लोग दिखा दिखा कर अपने ईश्वर के प्रति अविश्वास और बायबल के प्रति शंका के तर्क मजबूत करते हैं। किंतु सच पूछिये तो वे अपने नास्तिक तर्कों से बायबल की सच्चाई और ईश्वर की स्थिति की सत्यता ही घोषित करते हैं। यदि उसमें ईश्वर का और कोई वर्णन नहीं रहता केवल वैसा ही वृतांत रहता जिसे हम अच्छी तरह सुगमता से समझ लेते, यदि उसकी अनंत विशालता हमारे शुद्ध ससीम मस्तिष्क द्वारा समझी जा सकती तो बायबल में ईश्वरीय अधिकार का स्पष्ट प्रमाण नहीं पाते। जिन विषयों का उल्लेख बायबल में हुआ है, उनकी भव्यता और रहस्य ही ऐसी विशेषता है जो सारे बायबल को ईश्वर का वचन कह कर विश्वास दिलाती है॥SC 88.2

    बायबल में वर्णित सत्य ऐसी सरल और सीधी भाषा में, ऐसे सुगम तौर पर व्यक्त किये गए हैं और मनुष्य ह्रदय की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप उन्हें ऐसी पूर्णता के साथ ढाल दिया गया है की सुसंस्कृत मस्तिष्क भी उसकी इस विशेषता पर मुग्ध एवं आश्चर्यित हो उठा है और साथ साथ सरल मनुष्यों की तो वह मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित करता ही है। इन सरल और सुगम तरीके से व्यक्त सत्य उन गूढ़ और उच्च विषयों का प्रतिपादन करते हैं, उन दुर्गम और दूरस्थ वस्तुओं का विश्लेषण करते हैं, उन मानव मस्तिष्क द्वारा अगम्य-अगोचर रहस्यों का उद्घाटन करते हैं, जो हमें इसी कारण वश ग्राह्य हैं क्योंकि ईश्वर ने उनका वर्णन किया है। इस तरह से मुक्ति का उपाय हमारे सामने खुला पड़ा है, जिससे प्रत्येक प्राणी यह देख सके की पश्चाताप का कौनसा कदम उन्हें ईश्वर की और ले जायेगा और कौनसा कदम यीशु के प्रति विश्वास और भक्ति की और प्रवृत्त करायेगा, ताकि ईश्वरीय नियुक्त उपाय द्वारा सभी प्राणियों का उद्धार हो। फिर भी इन सरल सत्यों के निचे कुछ ऐसे रहस्य छिपे हैं, जिनके छिपे रहने पर ही ईश्वर की भव्यता और अनंतता सिद्ध होती है। ये रहस्य ऐसे गूढ़ है की सुलझाने में मस्तिष्क चक्कर खा जाते हैं, किंतु सत्य के सच्चे अन्वेषकों के ह्रदय में ये भक्ति और श्रद्धा भर देते हैं। ऐसे लोग जितना अन्वेषण करते हुए बायबल पढ़ते और उसका मनन करते हैं, उतना ही उनका वह विश्वास दृढ़ होता है की यह चेतन ईश्वर की कृति है; फिर तो मानव मस्तिष्क अपने सारे तर्कों वितरकों के साथ उस ईश्वरीय प्रकाश की भव्यता के सम्मुख नत-मस्तक होता है॥SC 88.3

    यदि हम यह स्वीकार कर ले की बायबल के गुरु गंभीर सत्य को पूरी तरह हम नहीं समझ सकते, तो हम यह भी स्वीकार कर लेते हैं की सिमित मस्तिष्क असीम मस्तिष्क को समझ नहीं सकता और मनुष्य अपनी संकीर्ण और दुर्बल बुद्धि से सर्वशक्तिमान को समझ नहीं सकता॥SC 89.1

    ईश्वर के वचन में जो रहस्य हैं उन्हें जब सुलझा नहीं सकते तो संशयात्मा और नास्तिक ईश्वर के वचन को अस्वीकार कर देते हैं। इस स्थान पर बायबल पर विश्वास रखनेवाला लोगों में अधिकाँश पिछड़ने के खतरे पर रहते हैं। प्रेरित ने कहा है, “हे भाईयों चौकस रहो की तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो जो जीवित परमेश्वर से हट जाए।” इब्रो ३:१२। बायबल के उपदेशों का मनन गूढ़ रूप से करना चाहिये और “परमेश्वर की गूढ़ बातों” का जहाँ तक वर्णन हुआ हो उन्हें ढूंढ़ लेना चाहिये। “गुप्त बातें हमारे परमेश्वर यहोवा के वश में हैं पर जो प्रगट की गई हैं सो सदा लों हमारें वश में रहेगी।” व्यवस्था विवरण २६:२६। किंतु शैतान का काम हमारे मस्तिष्क की अन्वेषण शक्ति को बुरे मार्ग में प्रेरित कर देना है। बायबल के सत्यों को ढूंढ़ निकालने में एक प्रकार के अहंकार का अनुभव होता है अतएव जब उस धर्मशास्त्र का प्रत्येक अंश पूरी तरह समझ न लिया जाय और हर भाग की संतोषजनक व्याख्या न हो ले तो मनुष्य को ऐसा लगता है जैसे वह हार गया है। इस लिए वह घबरा उढ़ता है। उसके लिए उन शब्दों को न समझना बड़ी भारी शर्म की बात है। ऐसे लोग उस अवसर तक धीरता के साथ ठहरे रहना नापसंद करते हैं जिस अवसर पर ईश्वर उन्हें ऐसी सुबुद्धि देगा की जिससे सारे रहस्यों को वे समझ सकें। ऐसे लोग समझते हैं की उनका मानुषिक ज्ञान धर्मशास्त्र समझने की काफी ताकत रखता है, और जब धर्मशास्त्र समझ में नहीं आता तो वे धर्मशास्त्र के ईश्वरीय अधिकार को इनकार करते हैं। लेकिन यह ठीक है की बायबल की शिक्षाओं से बिलकुल अलग और उसकी अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न बहुत से सिद्धांत और मान्यतायें चल पड़ी है और लोग इन सिद्धांतों और मान्यताओं को बायबल से निकले हुए समझते हैं। किंतु ये वास्तव में वैसे नहीं। इन्हीं को देख कर अधिक लोग शंका और उलझन में पड़ जाते हैं। ये ईश्वर के वचन से नहीं है किंतु मनुष्य के किये हुए भ्रष्ट रूप हैं॥SC 89.2

    यदि प्राणी को इतनी शक्ति रहती की वे ईश्वर और उसके कार्यों को पूरी तरह समझ सकते, तो उतनी शक्ति के आ जाने पर उनके लिए कोई सत्य का अनुसंधान न रहता, विद्या का कोई विकास न होता, मस्तिष्क का कोई विकास न होता, ईश्वर तब सर्वों सर्वा नहीं रहता, मनुष्य अपनी शक्ति में विकासित हो ज्ञान प्रतिभा आदि में पूर्णता प्राप्त कर आगे बढ़ नहीं सकता। किंतु बात ऐसी नहीं और उसके लिए हम ईश्वर को धन्यवाद दें। केवल ईश्वर ही निस्सीम है, उसी में “बुद्धि और ज्ञान के सारे भंडार छिपे हैं।” कुलुस्सी २:३ और अनंतकाल तक मनुष्य अन्वेषण में लगा रहे, खोज करता चले, ज्ञानवृद्धि करता चले, किंतु ईश्वर के ज्ञान, विवेक, मंगलमयी शक्तियों और पराक्रम का अंत न पा सके॥SC 90.1

    ईश्वर की इच्छा वह है की इस जीवन में भी उसके वचन की सत्यता लोगों को अनुभव हो। इस अनुभव ज्ञान के लिए एक ही रास्ता है। ईश्वर के वचन के अनुभव-ज्ञान के लिए हमें अपने अंदर उसी पवित्रता और विभूति की ज्योति लानी होगी जिस के द्वारा वचन दिया गया था। “परमेश्वर की बातें कोई नहीं जानता केवल परमेश्वर का आत्मा।” “क्योंकि आत्मा सब बातें एवं परमेश्वर की गूढ़ बाते भी जानता है।” १ कुरिन्थ २:११,१०। और अपने अनुगामियों को मुक्तिदाता ने यह प्रतिज्ञा की थी, “पर जब वह अर्थात सत्य का आत्मा आयेगा तो तुम्हे सारे सत्य का मार्ग बताएगा। …..क्योंकि वह मेरी बातों में से ले कर तुम्हे बतायेगा।” योहन १६:१३,१४॥SC 90.2

    ईश्वर यह चाहता है की मनुष्य अपनी तर्कशक्ति का उपयोग करे। बायबल का पठन मनन ही मस्तिष्क को शक्ति संपन्न एवं उन्नत कर सकता है, अन्य प्रकार के पठन नहीं। फिर भी हमें तर्कशक्ति को ईश्वर समझने से सावधान होना चाहिये क्योंकि यह तो मानुषिक दुर्बलताओं के अधीन हैं। यदि हमें धर्मशास्त्र में सर्वत्र अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़े और छोटे से सरल सत्य के समझने में भी मुश्किल हो, तो हमें बच्चों की सरलता और विश्वास रखना चाहिये और सिखने, समझने और विश्वास कर लेने में सदा तत्पर रहना और पवित्र आत्मा की शरण लेनी चाहिये। ईश्वर की शक्ति और विवेक से तथा उसकी विशालता से अभिभूत हो कर हम में दीनता, विनम्रता और सरलता के भाव भर जाने चाहिये। जिस प्रकार विस्मय और आश्चर्य में डूबे हुए हम उनके समक्ष जायेंगे उसी प्रकार पवित्र विस्मय और आश्चर्य से अभिभूत हमें उसकी पुस्तक खोलनी चाहिये। जब भी हम बायबल को उठाये तभी हमारी तर्क-शक्ति की यह कर लेना चाहिये की इसके तर्क हमारी शक्ति के परे हैं और हमारे ह्रदय तथा बुद्धि को उस महान “मैं हूँ” के सम्मुख झुक जाना चाहिये॥SC 90.3

    जो इस प्रकार की विशुद्ध भावना लेकर सभी बातें हृदयंगम करने के लिये बायबल खोलेंगे उन्हें ईश्वर बायबल के कठिन और पेचीदे भाग अच्छी तरह बोध कर देगा। किंतु पवित्र आत्मा के सहाय्य बिना हम उसके अंशों की खींचातानी कर लेंगे अथवा अर्थ का अनर्थ कर देंगे। बायबल का पाठ इस प्रकार करने से लाभ तो होता नहीं हैं हानि अवश्य होती है। जब ईश्वर का वचन बिना श्रद्धा और बिना प्रार्थना के खोला जायेगा, और जब विचार तथा अनुराग ईश्वर पर केन्द्रित नहीं, उसके अनुरूप नहीं, तब मस्तिष्क में शंकाओं और संशयों के बादल छा जाते हैं तथा बायबल के पाठ से ही ईश्वर की स्थिति पर अविश्वास की भीती मजबूत होती है। ऐसी अवस्था में उसके पाठ करने से मनुष्य का चिर-शत्रु शैतान पाठक के विचारों पर काबू कर लेता है और वह गलत अर्थ लगाने को प्रेरित करता है। जब जब मनुष्य मन और वचन और कर्म से ईश्वर के अनुरूप नहीं, तब तब वे धर्मशास्त्र समझने में गलती करेंगे और चाहे कितने भी भारी पंडित क्यों न हों, अशुद्ध व्याख्या करेंगे। उन पर विश्वास करना अवंगत है। दूसरी बात वह है की जो भी धर्मशास्त्र का पाठ इस लिये करता है की उस से अशुद्धियों और दोषों के निकालें, वह आत्मिक चक्षुयों से विहित है। ऐसे लोग अपनी भ्रष्ट आखों से स्पष्ट और सरल तथ्यों को भी गलत और भ्रामक देखेंगे और अपने निर्मूल शंकाओं को दृढ़ कर ईश्वर पर अविश्वास प्रगट करेंगे॥SC 91.1

    चाहे आप कितना भी छिपायें, रूप बदलें, और वेश परिवर्तन कर लें, किंतु शंकाओं और नास्तिक-भावनाओं के मूल में पाप के और आसक्ति है। अहंकार में डूबे और पाप तथा आसक्तियों में रत हृदयों को ईश्वर के वचन में उपदेश और अनुशासन तथा नियंत्रण के जो बंधन हैं, मान्य नहीं। अब जिन्हें वे बंधन मान्य नहीं, जिन्हें आदेश और आज्ञाएँ पालन ही नहीं करनी, वे बायबल को अस्वीकार न करें तो क्या करें? सत्य प्राप्त कने के लिये तो यह आवश्यक है की सत्य के ज्ञान के लिये हम में सच्ची इच्छा हो, और उसे पालन करने के लिये ह्रदय में सच्ची लालसा हो। ऐसी भावना से जो भी बायबल पढ़ते है, उन्हें इस बात का प्रचुर प्रमाण मिल जाता है की यह ईश्वर का वचन ही है। ऐसे लोग उस में प्रतिपादित सत्य का मनन एवं अनुशीलन कर इतने उन्नत हो जायेंगे की मुक्ति के निमित्त ज्ञानवान होंगे॥SC 91.2

    यीशु ने कहा है, “यदि कोई उसकी इच्छा पर चलाना चाहे तो इस उपदेश की विषय जान जायेगा।” योहन ७:१७। जिसे आप समझ नहीं सकते उस पर टिका-टिपण्णी और शंका करने के स्थान पर यदि आप सरल सत्यों को हृदयंगम कर लें और जो प्रकाश आप पर पहले से ही ज्योति विखेर रहा है, उसे ही ग्रहण कर लें तो निश्चय ही भविष्य में और भी अधिक प्रकाश आप को प्राप्त होगा। आप ने जिन कर्तव्यों को यीशु की अनुग्रह से सरल समझ कर हृदयंगम कर लिया है, पहले उन्हें ही पूरा कीजिये। थोड़े दिनों में वे कर्तव्य भी स्पष्ट हो उठेंगे जिन के बारे आप के ह्रदय में अभी शंकाये उठ रही हैं॥SC 92.1

    एक प्रमाण सर्वों के लिए बोधगम्य है, चाहे वे सुशिक्षित हों अथवा निरक्षर हों, और वह है अनुभूति का प्रमाण। ईश्वर तो हमें बुला बुला कर यह कहता है की आप स्वयं मेरी वाणी की सत्यता और मेरी प्रतिज्ञाओं की दृढ़ता जाँच लीजिये। वे कहते है की आप “परख कर देखो की यहोवा कैसा भला है।” भवन ३४:८। दूसरों की बात पर भरोसा करने से तो अच्छा है की हम खुद जाँच लें। उसकी घोषणा तो है, “मांगो तो दिया जायेगा।” योहान १६:२४। उसकी प्रतिज्ञाएँ निश्चय पूरी होंगी। वे कभी निरर्थक नहीं हुई हैं, वे कभी झूठी नहीं होंगी। जब हम यीशु के निकट खिंच आते हैं और उनके अपार प्रेम पा हर्षोल्लास में मस्त हो जाते हैं, तो उनकी उपस्थिति को चकाचौंध में सारी शंकाओं और संदेहों की कालिमा विलीन हो जाती है॥SC 92.2

    प्रेरित पावल ने ईश्वर के बारे कहा है, “वही हमें अंधकार के वश से छुड़ा कर अपने उस प्रिय पुत्र के राज्य में लाया।” कुलुस्सी १:१३। और जिस जिस को मृत्यु के पंजे से छुड़ा कर अमर जीवन के साम्राज्य में लाया गया है, उसको दृढ़ रूप से यह कहना चाहिये की “परमेश्वर सच्चा है।” योहन ३:३३॥ वही घोषित कर सकता है की “हम ने सहायता की आवश्यकता दिखाई, और हम ने यीशु में सहाय्य प्राप्त किया। प्रत्येक मांग पूरी हुयी, मेरी आत्मा की चुक्षा शांत हुई। और बायबल अब मेरे लिए यीशु की वाणी है। अब क्या आप पूछते है की मैं क्यों विश्वास करता हूँ? मैं उन में विश्वास करता हूँ क्योंकि वे मेरे लिए स्वर्गीय मुक्तिदाता हैं। आप जानना चाहते हैं की मेरी बायबल पर क्यों श्रद्धा है? इस का कारण यह है की हम ने आत्मा के लिये इसे ईश्वर की अमृतमयी वाणी पाया।” उसी तरह हम भी स्वयं चाहें तो बायबल की सत्यता और यीशु के ईश्वर पुत्र होने की साक्षी अपने अंतर में पा लें। क्योंकि हम जानते है की हम गढ़ी हुई कहानियों का अनुसरण नहीं करते॥ पतरस ने भाइयों को आदेश दिया था की “हमारे प्रभु और उद्धारकर्ता यीशु मसीह के अनुग्रह और पहचान में बढ़ते जाओ”। २ पतरस ३:१८। जब ईश्वर के मनुष्य अनुग्रह में पढ़ते जायेंगे तो वे निरंतर उसके वचन के शुद्ध ज्ञान को प्राप्त करते जायेंगे। फिर वे सत्य में अधिक ज्योति और पवित्रता अनुभव करेंगे। यह बात युग युग से मगडली के इतिहास में सच होती आ रही है और अंत काल तक सच होती जाएगी। “पर धर्मियों की चाह उस चमकती हुई ज्योति के समान है जिस का प्रकाश दोपहर को अधिक अधिक बढ़ता रहता है।” नीतिवचन ४:१८॥SC 92.3

    विश्वास के द्वारा हम भविष्य की आशा रखें और बुद्धि के विकास के लिये ईश्वर की प्रतिज्ञाओं को थामे रहें। हमारा मानव मस्तिष्क ईश्वरीय मस्तिष्क से संयोजित हो और आत्मा की सारी शक्तियाँ उस आलोकमय ज्योति से जगमगा उठे। तभी हम इस लिये आनंदित होंगे की ईश्वरीय प्रबंध में जो उलझने थीं सो सुलझ जायेंगी, कठिन और दुर्बोध वस्तुएँ सरल और बोधगम्य हो जायेंगी, और जहाँ पहले छोटे मस्तिष्क से हम केवल असंगतियाँ देखते थे, वही संपूर्ण सुसंगत और सुन्दर भाव देखेंगे। “अब हमें दर्पण में धुंदला सा दिखाई देता है पर उस समय आमने सामने देखेंगे अब मेरा ज्ञान अधूरा है पर उस समय ऐसी पूरी रीती से पहचानूंगा जैसा पहचाना गया हूँ।” १ कुरिन्थियों १३:१२।SC 93.1

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