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कुलपिता और भविष्यवक्ता

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    अध्याय 58—भविष्यवक्ताओं के सम्प्रदाय

    परमेश्वर स्वयं इज़राइल की शिक्षा को निर्देशित करता था। उसका दायित्व उनके धार्मिक सरोकारों तक सीमित नहीं था, जो भी उनके मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता था, वह ईश्वरीय देख-रेखका विषय था, और पवित्र व्यवस्था के दायरे में था।PPHin 619.1

    परमेश्वर ने इब्रियों को आज्ञा दी थी कि वे अपने बच्चों को उसके नियम सिखाए और उनके पूर्वजों के साथ परमेश्वर के व्यवहार से परिचित कराएँ। यह प्रतयंक अभिभावक का एक विशेष कर्तव्य था, विशेष इसलिये क्‍योंकि इसे किसी भी अन्य कर्तव्य से बदला नहीं जा सकता था। अपरिचितों के होठों से निर्देशदिये जाने के बजाय, माता और पिता के स्नेहयुक्त हृदयों की घटनाओं के साथ परमेश्वर से सम्बन्धित विचारों को सम्बद्ध करना था। अपने लोगों के छुटकारे में परमेश्वर के महान कार्यों आने वाले उद्धारकर्ता की प्रतिज्ञाओं को इज़राइल के परिवारों में प्रायः दोहराया जाना था। चित्रों और प्रतीकों के प्रयोग ने दी हुईं सीख या शिक्षा को स्मृति पट पर स्थिरता से अंकित कर दिया। यहोवा की उदारता के और आने वाले जीवन के महान सत्य ने युवा मन को प्रभावित किया। वह रहस्योद्धाटन के शब्दों और प्रकृति के दृश्यों में परमेश्वर को समान रूप से देखने के लिये प्रशिक्षित किया गया। आकाश के नक्षत्र, मैदानों के वृक्ष और पुष्प, ऊंचे-ऊंचे पर्वत और कलकल करती नदी की धाराएँ-- सभी सृष्टिकर्ता की बात करते थे। मिलाप वाले तम्बू पर आराधना और बलि की पवित्र विधि और भविष्यद्वक्ताओं के कथन परमेश्वर के प्रकाशित वाक्य थे।PPHin 619.2

    मूसा की गोशेन के साधारण झोपड़ीनुमा घर में, शमूएल की हन्ना द्वारा, दाऊद की बेतलहेम के पहाड़ी निवास में, और दासत्व के कारण अपने पूर्वजों के घर से अलग हो गए दानिय्येल का प्रशिक्षण भी ऐसा ही था, ऐसे ही प्रशिक्षण द्वारा बालक तीमुथियुस ने अपनी नानी लोइस और माँ युनिके के होठों से पवित्र लेख के सत्य को जाना। PPHin 619.3

    युवाओं के निर्देशन के लिये भविष्यद्वक्ताओं के सम्प्रदायों के संस्थान द्वारा आगे का प्रयोजन किया गया। यदि कोई युवा परमेश्वर के वचन की सच्चाई का गहन अध्ययन करने का इच्छुक था और स्वर्ग से बुद्धिमता पाना चाहता था, जिससे कि वह इज़राइल में शिक्षक बन सके, उसके लिये यह सम्प्रदाय खुले थे। भविष्यद्वक्ताओं के सम्प्रदाय शमूएल द्वारा व्यापक भ्रष्टाचार के विरूद्ध अवरोधके रूप में युवाओं के नैतिक व आध्यात्मिक समृद्धि के प्रयोजन के लिये और राष्ट्र के लिये अगुवों और सलाहकारों के तौर पर परमेश्वर के भय में कार्य करने वाले सुयोग्य पुरूषों को जुटाकर भविष्य की समृद्धि के लिये स्थापित किये गए। इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिये शमूएल ने नवयुवकों की टोलियों को एकत्रित किया जो धार्मिक प्रवृति के बुद्धिमान और अध्ययनपरायण थे। इन्हें भविष्यद्वक्ताओं के पुत्र कहा जाता था। जैसे-जैसे उन्होनें परमेश्वर से सम्पक साधा, और उसके कार्यों और उसके वचन का अध्ययन किया, उनके स्वाभाविक प्रतिभाओं के साथ स्वर्ग से प्राप्त बुद्धिमत्ता जुड़ गईं। ये गुरू या निर्देशक ईश्वरीय सत्य में केवल सुप्रवीण मनुष्य मात्र नहीं थे, वरन्‌ ये वह लोग थे जिन्हें परमेश्वर के साथ सम्पक करने का सौभाग्य प्राप्त था और जिन्हें पवित्र आत्मा का विशेष दान प्राप्त हुआ था। अपने ज्ञान और धार्मिकता के कारण उन्हें लोगों का आदर और विश्वास प्राप्त था। PPHin 619.4

    शमूएल के समय में ऐसे दो सम्प्रदाय थे- एक रामा में, जो भविष्यद्वक्ताओं का घर था, और दूसरा किर्यत्यारम में, जहाँ उस समय सन्दूक था। अन्य सम्प्रदाय बाद में स्थापित किये गए।PPHin 620.1

    इन सम्प्रदायों के शिष्य किसी तकनीकी व्यवसाय या खेतों में हल चलाकर अपने निजी परिश्रम द्वारा अपना भरण-पोषण करते थे ।इज़राइल में यह तुच्छ या अदभुत नहीं माना जाता था। यथार्थ में, बच्चों को उपयोगी श्रम की अज्ञानता में बढ़े होने देने की अनुमति को अपराध माना जाता था। परमेश्वर के आदेशानुसार, भले ही बच्चे को पवित्र कार्यों के लिये शिक्षित किया जाना हो, प्रत्येक को किसी न किसी व्यवसाय के लिये प्रशिक्षित किया जाता था। कई धर्म के शिक्षक मजदूरी करके अपनी उपजीविका कमाते थे। प्रेरितों के समय में भी पौलुस और अकीला तम्बू बनाकर आजीवका कमाते थे लेकिन इसके कारण वे कम सम्मानीय नहीं थे।PPHin 620.2

    इन सम्प्रदायों में परमेश्वर की व्यवस्था और उसके साथ मूसा के निर्देश, पवित्र इतिहास, पवित्र संगीत और काव्य मुख्य विषय थे। निर्देशन का तरीका वर्तमान की आध्यात्मविद्या सम्बंधी संस्थाओं की शिक्षा से बहुत भिन्‍न था, वर्तमान की संस्थाओं से शिष्य प्रवेश के समय से भी बहुत कम धर्म सम्बन्धी सत्य और परमेश्वर के बहुत कम वास्तविक ज्ञान प्राप्त करके स्नातक हो जाते है। प्राचीन काल के सम्प्रदायों में परमेश्वर की इच्छा और उसके प्रति मनुष्य के कर्तव्य को सीखना सम्पूर्ण अध्यय का महान लक्ष्य होता था। पवित्र इतिहास के अभिलेखों में यहोवा के पदचापों के संकेत ढूंढे जाते थे। प्रतिरूपों द्वारा सामने लाए गए महान सत्य दृश्यमान किये जाते थे, और विश्वास उस सम्पूर्ण व्यवस्था के मुख्य उद्देश्य पर पकड़ पा लेता था- परमेश्वर का मेमना जो जगत के पापों को लिवा ले जाने को था।PPHin 620.3

    भक्ति की भावना को संजोया जाता था। ना केवल शिष्यों को प्रार्थना का कर्तव्य सिखाया जाता था, वरन्‌ उन्हें यह भी सिखाया जाता था कि प्रार्थना किस तरह की जाए, परमेश्वर के आत्मा के उपदेश का कैसे पालन किया जाए और समझा जाए, परमेश्वर में विश्वास का अभ्यास कैसे किया जाए और सृष्टिकर्ता को कैसे सम्बोधित किया जाए। पवित्र बुद्धिजीवी परमेश्वर के निधिग्रह से नई व पुरानी चीजें प्रकट करते थे और परमेश्वर का आत्मा भविष्यद्वाणी और भजनों में प्रदर्शित होता था। PPHin 621.1

    संगीत एक पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिये बजाया जाता था। मन को उसमें लीन करना जो पवित्र, शिष्ट और उत्कृष्ट है, और हृदय में परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता और भक्ति को जागृत करना। कितना अन्तर है संगीत की प्राचीन परम्परा और प्रयोग और उसमें जिसको संगीत वर्तमान में समर्पित है। कितने लोग इस प्रतिभा का प्रयोग स्वयं को प्रतिष्ठित करने के लिये करते है, बजाय इसके कि परमेश्वर को महिमा पहुचाएँ। संगीत प्रेमी असावधान होकर संसार प्रेमियों के साथ मनोरंजन के उन समारोहों में सम्मिलित होता है, जहाँ जाने के लिये पमरेश्वर ने अपने बच्चों को मना किया है। इस प्रकार वह, जिसका सहीं प्रयोग उसे आशीष ठहराता, सबसे सफल साधन बन जाता है जिसके द्वारा शैतान मन को कर्तव्य से और सनातन विषयों से भटका देता है। PPHin 621.2

    संगीत स्वर्ग के प्रांगनों में परमेश्वर की आराधना का एक भाग होता है, और हमें हमारे स्तूतिगान में, जहाँ तक सम्भव है, स्वर्गीय गायक, मण्डली की स्वर संगति अथवा समरसता के आस-पास तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिये। शिक्षा में कंठ या वाणी का उचित प्रशिक्षण एक महत्वपूर्ण विशेषता है जिसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये। धार्मिक विधि के भाग के रूप में गायन आराधना में प्रार्थना के समान ही एक धर्म किया है। सही अभिव्यक्ति के लिये, हृदय में गीत की भावना का आभास होना चाहिये।PPHin 621.3

    कितना व्यापक अन्तर है परमेश्वर के भविष्यद्वक्ताओं द्वारा शिक्षित सम्प्रदायों और शिक्षा की वर्तमान संस्थाओं में! कितनी कम हे वे शिक्षण संस्थाएं जो जगत के रीति-रिवाजों और सिद्धान्तों पर आधारित नहीं है। विवेकपूर्ण अनुशासन और उचित नियन्त्रण का निदंनीय अभाव है। तथाकथित मसीहींलोगों में परमेश्वर के वचन की विद्यमान अज्ञानता चौंकाने वाली है। धर्म और शिष्टाचार में शिक्षण का स्थान, व्यर्थ की बात-चीत और निरी भावुकता ने ले लिया है। परमेश्वर की करूणा और उसके न्याय का, पवित्रता, शोभा, और अच्छे कर्मा कें निर्धारित प्रतिफल का, पाप के घृणास्पद स्वभाव और उसके भयानक परिणामों की नियतता का युवाओं के मन पर प्रभाव नहीं डाला जाता। बुरी संगत में पड़कर वे अपराध, अनैतिकता और व्यभिचार के मार्ग पर चलने लगते है।PPHin 622.1

    इब्रियों के प्राचीन शिक्षालयों से सीखने के लिये कोई ऐसे सबक नहीं जो हमारे समय के शिक्षक सीख सकें और लाभ उठा सकें? जिसने मनुष्य की सृष्टि की, उसी ने उसके शरीर, बुद्धि और आत्मा के विकास के लिये प्रबन्ध किया है। इसलिये, शिक्षा की वास्तविक सफलता उस स्वामिभक्ति पर निर्भर करती है जिसे मनुष्य सृष्टिकर्ता की योजना को क्रियान्वित करते हैं। PPHin 622.2

    शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य परमेश्वर की छवि को आत्मा में पुनःस्थापित करना है। आदि में परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में बनाया। उसने मनुष्य को उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न किया। उसका दिमाग सुसंतुलित था और उसके अस्तित्व कीसभी शक्तियाँ सामंजस्यपूर्ण थी। लेकिन पतन और उसके दुष्प्रभाव ने इन वरदानों को विकृत कर दिया है। पाप ने मनुष्य में परमेश्वर की छवि को दूषित और विरूपित कर दिया है। उसी छवि को पुनः स्थापित करने के लिये उद्धार की योजना तैयार की गई, और मनुष्य को परख अवधि का जीवन प्रदान किया गया। मनुष्य को उसी सिद्धता में लाना जिसमें उसका सृजन किया गया था जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है- उद्देश्य जो अन्य सभी उद्देश्यों का आधार है। माता पिता और शिक्षकों का यहकर्तव्य है कि युवाओं की शिक्षा में वे ईश्वरीय प्रयोजन के साथ सहयोग करें, और ऐसा करने में वे “परमेश्वर के सहकर्मी” है। (1 कुरिन्थियों 3:9)। PPHin 622.3

    आत्मा, विवेक और देह की सभी विभिन्‍न योग्यताएं जो मनुष्य में होती है, वे परमेश्वर की देन है, जिनका प्रयोग इस प्रकार होना है कि वे उत्कृष्टता की उच्चतम अवस्था में पहुँचे। लेकिन यह एक स्वार्थी और अनन्य उन्नति नहीं हो सकते, क्योंकि परमेश्वर का चरित्र, जिसकी समानता हमें प्राप्त होनी है, उदारता और प्रेम है। प्रत्येक योग्यता, प्रत्येक विशेषता जिससे परमेश्वर ने हमें सम्पन्न किया है, परमेश्वर की महिमा और हमारे सहवासियों के उत्थान के लिये प्रयोग किया जाना है। और इस कार्य में सिद्धान्त का सबसे पवित्र, सबसे शिष्ट और सुखदायी अभ्यास होता है।PPHin 622.4

    यदि इस सिद्धान्त पर इसकी महत्ता के अनुसार ध्यान दिया जाता, तो शिक्षा की किसी-किसी वर्तमान प्रणाली में सुधारवादी परिवर्तन आता। घमण्ड और स्वार्थपूर्ण महत्वकांक्षा को बढ़ावा देकर, प्रतिस्पर्धा की भावना को जागृत करने के बजाय, अध्यापक अच्छाई और सत्य और सुन्दरता के प्रति प्रेम और श्रेष्ठा की इच्छा को जागृत करने का प्रयत्न करते। शिष्य स्वयं में परमेश्वर के दिये सदगुणों के विकास का प्रयास करते, अग्रगण्य होने के लिये नहीं, वरन्‌ सृष्टिकर्ता के उद्देश्य को पूरा करने और उसके स्वरूप अर्थात समानता को प्राप्त करने के लिये। निरे सांसारिक स्तर की ओर निदेशित किये जाने, या स्वयं के उत्कर्ष की अभिलाषा से प्रेरित होनेके बजाय, मन सृष्टिकर्ता को जानने के लिये और उसकी तरह बनने के लिये, उसकी ओर निर्देशित होगा। PPHin 623.1

    नीतिवचन 9:10 में लिखा है, “यहोवा का भय मानना बुद्धिका आरम्भ है, और परमपवित्र ईश्वर को जानना ही समझ है।” चरित्र निर्माण जीवन का महान कार्य है, और परमेश्वर का ज्ञान सम्पूर्ण वास्तविक शिक्षा का आधार है। इस ज्ञान को प्रदान करना चरित्र को इसके अनुकूल ढालना अध्यापक के कार्य का लक्ष्य होना चाहिये। परमेश्वर की व्यवस्था उसके चरित्र का प्रतिबिम्ब है। इसलिये भजन संहिता 119:172,104 में कहा गया है, “तेरी सब आज्ञाएं धर्ममय है” और “तेरे उपदेशों के द्वारा मुझे समझ मिलती है।” परमेश्वर ने स्वयं को अपने वचन और सृष्टि की रचनाओं में प्रकट किया है। हमें प्रेरणा के ग्रंथ और प्रकृति की पुस्तक के माध्यम से परमेश्वर का परिचय या पहचान को प्राप्त करना है।PPHin 623.2

    बुद्धि का यह एक नियम है कि वह धीरे-धीरे स्वयं को उन विषयों के अनुकूल कर लेता है जिन पर मनन करने को वह प्रशिक्षित किया जाता है। यदि दिमाग में केवल अति साधारण विषय हैं तो वह बौना और क्षीण हो जाता है। यदि उसे कठिन समस्यों से जूझने न दिया जाए, तो कुछ समय पश्चात उसने बढ़ने की क्षमता समाप्त हो जाती है। शिक्षा देने वाली शक्ति के तौर पर बाईबल का कोई प्रतिद्वन्दी नहीं। परमेश्वर के वचन में मन को उच्चतम अभिलाषा विचार करने के लिये विषय मिलते है। बाईबल, मनुष्यके पास सबसे अधिक शिक्षाप्रद इतिहास है। यह सीधा सनातन सत्य के सोतेसे आया, और एक पवित्र हाथ ने युगानुयुग इसकी पवित्रता को संरक्षित रखा है। यह उस अतीत को दीप्तिमान करता है, जहाँ मानुषिक अनुसंधान व्यर्थ में प्रवेश करने का प्रयास करता है। परमेश्वर के वचन में हम उस सामर्थ्य को देखते है जिसने पृथ्वी की नींव डाली और आकाश को फैलाया। केवल यहीं पर हम अपने वंश का इतिहास पा सकते है, जो मनुष्यके पूर्वाग्रह या मनुष्य के घमण्डसे कलंकित नहीं हुआ। इसी में इस जगत के उन महापुरूषों की विजय, पराजय और संघर्षों का उल्लेख है। यहीं कर्तव्य और नियति की गम्भीर समस्याओं पर प्रकाश डाला जाता है। सदृश्य और अदृश्य के बीच का परदा उठता है और हम पाप के प्रथम प्रवेश से लेकर सत्य और धर्म की निर्णायक विजय तक, अच्छाई और बुराई के विरोधी पक्षों के संघर्ष को देखते है, और यह सब परमेश्वर के चरित्र का प्रकाशन ही तो है। परमेश्वर के वचन में प्रस्तुत किये गए सत्य के श्रद्धायुक्त मनन में शिष्य के मन का सम्पर्क परमेश्वर के मन से होता है। ऐसा अध्ययन न केवल चरित्र को सिद्ध और उदात्त बनाएगा, वरन्‌ मानसिक शक्तियों को सबल और विकसित करेगा।PPHin 623.3

    बाईबल की शिक्षा का, मनुष्य के इस जीवन से सम्बन्धित हर चीज की समृद्धि पर प्रभाव पड़ता है। यह उन सिद्धान्तों को उजागर करती है जो राष्ट्र की समृद्धि के लिये आधारशिला है। वे सिद्धान्त जिनमें समाज का सुख निहित है, और जो परमेश्वर की सुरक्षा है- वे सिद्धान्त जिनके अभाव में कोई भी मनुष्य इस जीवन में उपयोगिता, प्रसन्‍नता और सम्मान नहीं पा सकता, और ना ही भावी अनश्वर जीवन को पानेकी आशा कर सकता है। जीवन में ऐसा कोई पद नहीं, मानवीय अनुभव का कोई चरण नहीं, जिसके लिये बाईबल की शिक्षा द्वारा तैयारी की आवश्यकता नहीं हो। अध्ययन और पालन किये जाने पर परमेश्वर का वचन मानवीय धारणा की तुलना में संसार को अधिक दृढ़ और सक्रिय बुद्धि के धनी व्यक्ति प्रदान करेगा। वह ऐसे मनुष्य को उपलब्ध कराएगा जिनके चरित्र सुदृढ़ और सामर्थ्यवान है, जो सही निर्णय करता हो और जिसकी सोच पैनी हो, जो परमेश्वर के लिये गौरवऔर जगत के लिये आशीष का कारण है।PPHin 624.1

    विज्ञान के अध्ययन में भी हमें सृष्टिकर्ता के बारे में ज्ञान प्राप्त करना है। शुद्ध विज्ञान इस अनात्मीय संसार में परमेश्वर की हस्तलिपि की व्याख्या है। विज्ञान अनुसंधान के द्वारा परमेश्वर के सामर्थ्य और उसकी बुद्धिमता के मात्र नए प्रमाण लाता है। सही समझे जाने पर प्रकृति की पुस्तक और लिखित वचन दोनो ही हमें परमेश्वर से परिचित कराते है क्‍योंकि यह हमें उन विवेकपूर्ण और उदार नियमों के बारे में सिखाते है, जिनके द्वारा परमेश्वर कार्य करता है।PPHin 624.2

    शिष्य को ऐसी शिक्षा मिलनी चाहिये कि वह सृष्टि की सभी रचनाओं में परमेश्वर को देखे। अध्यापकों को उस महान शिक्षक का उदाहरण अपनाना चाहिये। जिसने प्रकृति के सामान्य दृश्यों के उदाहरण से अपने उपदेशों को सरल बनाया और अपने श्रोताओं के मनों को प्रभावित किया। पत्तेधारी शाखाओं पर चहचहाती चिड़ियाँ, तराई के फूल, ऊंचे वक्ष, फलवन्त खेत, झूमता अन्न, बंजर भूमि, अपनी स्वर्णिम किरणों से आकाश को चमकाता हुआ, डूबता सूरज- यह सब शिक्षा के साधन थे। मसीह सृष्टिकर्ता की सदृश्य रचनाओं को स्वयं के द्वारा बोले गए जीवन के शब्दों से सम्बद्ध करता था, जिससे कि जब भी यह चीजें उसके सुनने वालों की आंखो के सामने आएँ, तो उनके विचार सत्य के उन पाठों पर जाएँ जिन्हें उसने इनसे सम्बद्ध किया था।PPHin 625.1

    ईश्वर की छाप जो प्रकाशितवाक्य के पृष्ठों में प्रकट है, वह ऊंचे-ऊंचे पहाड़, फलवन्त तराईयों और गहरे समुद्र पर दिखाई देती है। प्रकृति की रचनाएं मनुष्य से सृष्टिकर्ता के प्रेम के बारे में बात करती हैं। उसने हमें पृथ्वी और आकाश में असंख्य प्रतीकों द्वारा स्वयं उस के साथ जोड़ा है। जगत में केवल दुख और मुसीबत नहीं है। “परमेश्वर प्रेम है”- यह प्रत्येक खिलती हुई कली पर प्रत्येक फल की पंखुड़ी पर, घास की प्रत्येक पत्ती पर लिखा हुआ है। हालाँकि पाप के श्राप के कारण धरती कॉाँटेदार झाड़ियाँ उत्पन्न करने लगी, लेकिन उन्हीं कॉँटेदार झाड़िया पर गुलाब खिलते हैं और काँटो को गुलाब छुपा देते है। प्रकृति की सब रचनाएँ हमारे परमेश्वर की पिता समान देखभाल और उसके बच्चों को आनन्दित करने की उसकी इच्छा की साक्षी है। उसकी निषेधाज्ञाएं और समादेश उसके अधिकार का प्रदर्शन मात्र के लिये नियत नहीं है, वरन्‌ वह जो कुछ भी करता है, अपने बच्चों की भलाई को ध्यान में रख कर करता है। वह उनसे ऐसा कुछ भी त्यागने की अपेक्षा नहीं करता, जिसे बनाए रखने में उनका लाभ हो।PPHin 625.2

    समाज के क॒छ वर्गों में प्रचलित धारणा किधर्म स्वास्थ्य या सुख के लिये हितकार नहीं है, सबसे हानिप्रद भ्रान्ति हैं। नीतिवचन 1:23 में पवित्र शास्त्र कहता है “यहोवा का भय मानने से जीवन बढ़ता है, और उसका भय मानने वाले ठिकाना पाकर सुखी रहते है”। भजन संहिता 34:12-24 में लिखा है, “तब कौन मनुष्य है जो जीवन की इच्छा रखता, और दीर्घायु चाहता है ताकि भलाई देखे? अपनी जीभ को बुराई से रोक रख और अपने मुँह की चौकसी कर कि उससे छल की बात न निकले। बुराई को छोड़ और भलाई कर, शान्ति को दूँढ और उसका पीछा कर।” नीतिवचन 4:22 में लिखा है, “बुद्धिमानी को बातें', जिनको वे प्राप्त होती है, वे उनके जीवित रहने का और उनके सारे शरीर के स्वस्थ रहने का कारण होती है।’PPHin 625.3

    वास्तविक या सच्चा धर्म मनुष्य और परमेश्वर द्वारा दिये गए शारीरिक, मानसिक और नैतिक नियमों में सामजंस्य बैठाता है। यह आत्म-संयम, स्वेच्छा और आत्म नियन्त्रण सिखाता है। धर्म मन को उदत्त बनाता है, स्वभाव को निर्मल करता हे, और विवेक को दोषमुक्त करता है। यह आत्मा को स्वर्ग की पवित्रता का भागीदार बनाता है। परमेश्वर के प्रेम में विश्वास और निष्प्रभाव कर देने वाली कृपा-दृष्टि, चिंता और व्याकुलता के बोझ को हल्का कर देते है। उच्चतम या न्यूनतम, सभी के हृदयों को यह संतोष और आनन्द से परिपूर्ण कर देता है। धर्म प्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्यप्रद हैं, यह जीवन को चिरायु करता है और इसकी सभी आशीषों में हमारे आनन्द को बढ़ाता है। यह आत्मा के लिये आनन्द का सदैव जलपूर्ण रहने वाला सोता खोल देता है। अच्छा होता यदि जिन्होंने मसीह को नहीं चुना, वे यह समझ पाते कि जो वह अपने लिये ढूँढ रहे है, उससे कहीं अधिक उत्तम चीज परमेश्वर के पास है जो वह देना चाहता है। मनुष्य अपनी ही आत्मा को सबसे भारी चोट पहुँचाता है और उसके साथ सबसे बड़ाअन्याय करता है. जब वहपरमेश्वर की इच्छा के विपरीत सोचता और कार्य करता है। परमेश्वर जानता है कि हमारे लिये सबसे अच्छा क्‍या है, और वह अपने प्राणियों की भलाई के लिये योजना बनाता है; उसके द्वारा निषिद्ध पथ में थोड़ा सा भी वास्तविक आनन्द हीं मिल सकता। आज्ञा उल्लंघन का मार्ग विनाश और कष्ट की ओर जाता है, लेकिन बुद्धि के “मार्ग आनन्ददायक है, और उसके सब मार्ग कुशल के है।” (नीतिवचन 3:17)।PPHin 626.1

    इब्रियों के शिक्षालयों में अभ्यास किये जाने वालेशारीरिकऔर आध्यात्मिक प्रशिक्षण को पढ़ाने से लाभ हो सकता है। ऐसे प्रशिक्षण के महत्व का मान नहीं रखा जाता। शरीर और मन में एक घनिष्ठ सम्बन्ध है, और आध्यात्मिक और बौद्धिक उपलब्धियों के ऊंचे स्तर पर पहुँचने के लिये हमारे शरीर को नियन्त्रित करने वाले नियमों पर ध्यान दिया जाना चाहिये। एक दृढ़, सुसंतुलित चरित्र के निर्माण के लिये मानसिक और शारीरिक क्षमताओं का अभ्यास और विकास आवश्यक है। परमेश्वर द्वारा हमारे सुपुर्द किये गए इस अदभुत जीवधारी, अर्थात हमारे शरीर और उन नियमों के बारे में, जिनके द्वारा हम इस शरीर को स्वस्थ रख सकते है, ज्ञान दिया गया है और युवाओं के लिये इस अध्ययन के विषय से अधिक महत्वपूर्ण क्या हो सकता है?PPHin 626.2

    और अब, जैसे कि इज़राइल के समय में था, प्रत्येक युवा को व्यवाहरिक जीवन के कर्तव्यों में निर्देशित किया जाना चाहिये। प्रत्येक को हाथ के परिश्रम की किसी शाखा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये जिसके द्वारा आवश्यकता पड़ने पर वह अपनी आजीविका कमा सके। यह केवल जीवन के परिवर्तनों के प्रति सुरक्षा के लिये ही नहीं, वरन्‌ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास पर इसके प्रभाव के लिये भी आवश्यक है।PPHin 627.1

    यदि यह निश्चित भी हो कि किसी को अपने निर्वाह के लिये हस्त-कर्म का सहारा नहीं लेना पड़ेगा फिर भी उसे श्रम करना सिखाना चाहिये। शारीरिक व्यायाम के अभाव में कोई भी स्फर्तिवान स्वास्थ्य और ठोस एवं निरोग शरीरावस्था नहीं पा सकता, और एक श्रेष्ठ चरित्र और स्वस्थ्य और सक्रिय बुद्धि के लिये सुव्यवस्थित श्रम का सीखना कम आवश्यक नहीं है।PPHin 627.2

    प्रत्येक शिष्य को दिन का कुछ भाग सक्रिय श्रम को समर्पित करना चाहिये। इस प्रकार उद्यम की आदतें बनेगी और आत्म-निर्भरता की भावना को प्रोत्साहन मिलेगा, और युवा उन बुरे और नीचतापूर्ण अभ्यासों से बचे रहेंगे जो आलस्य की उपज होते हैं। और यह सब शिक्षा के मौलिक उद्देश्य के अनुकूल है, क्योंकि शुद्धता, निष्ठा और सक्रियता को प्रोत्साहित करने में हम सृष्टिकर्ता के साथ सामंजस्य बैठा रहे हैं।PPHin 627.3

    नौजवानों को उनकी सृष्टि का उद्देश्य समझ जाना चाहिये और परमेश्वर का आदर करना और अपने भाई-बन्धुओं को आशीषित करना सिखाया जाना चाहिये, स्वर्गीय परमेश्वर द्वारा प्रकट किया गया प्रेम, उत्कृष्ट नियति जिसके लिये इस जीवन का अनुशासन या प्रशिक्षण उन्हें तैयार कर रहा हे, वह सम्मान और प्रतिष्ठा जिसके लिये उन्हें चुना गया-परमेश्वर के पुत्र होने के लिये भी-यह सब उन्हें देखने दे, और हजारों नौजवान, उन स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों और तुच्छ अभिलाषाओं को, जिन्होंने उन्हें जकड़ रखा था, घृणा से देखने लगेंगे और उनसे मुहँ फेर लेंगे। वे पाप से घृणा करना और दूर रहना सीख लेंगे, और यह केवल प्रतिफल की आशा या दण्ड के डर से नहीं, वरन्‌ उसमें निहित नीचता के आभास से, क्‍योंकि वैसा करना परमेश्वर द्वारा दी गई शक्तियों का अपमान होगा और परमेश्वर समान पुरूषत्व पर एक कलंक होगा।PPHin 627.4

    परमेश्वर नौजवानों को कम महत्वकांक्षी होने की आज्ञा नही दे रहा है। चरित्र की वे विशेषताएं जो एक व्यक्ति को मनुष्यों के बीच सफल और सम्मानीय ठहराती है- अधिक पुरूषार्थ की तीव्र अभिलाषा, अदम्य इच्छाशक्ति, श्रमसाध्य प्रयास, अथक आग्रह- इन विशेषताओं को कुचला नहीं जाना है। परमेश्वर के अनुग्रह से मात्र स्वार्थपूर्ण और सांसारिक रूचियों से उन्हें उतने ऊँचे लक्ष्यों की ओर मार्गदर्शित करना है जितना कि आकाश पृथ्वी से ऊंचा है। और इस जीवन में प्रारम्भ की हुई शिक्षा आने वाले जीवन में चलती रहेगी। दिन पर दिन परमेश्वर की अदभुत रचनाएँ जो सृष्टि की रचना उसे कायम रखने में, उसकी बुद्धिमता और समार्थ्य के प्रमाण है, उद्धार की योजना में उसके प्रेम और बुद्धिमता का अनन्त रहस्य, नए रूप में समझ आने लगेंगे। 1 क॒रिन्थियों 2:9में लिखा है, “जो बाते आँख ने नहीं देखी और कान ने नहीं सुनी, और जो बातें मनुष्य के चित में नहीं चढ़ी, वे ही हैं जो परमेश्वर ने अपने प्रेम रखने वालों के लिये तैयार की है।” इस जीवन में भी हम उसकी उपस्थिति की झलक पा सकते हैं और स्वर्ग के साथ संपर्क के आनन्द को चख सकते है, लेकिन इस आनन्द और आशीष की सम्पूर्णता अब के बाद में होगी। केवल परमेश्वर ही उस महिमायी नियति को प्रकाशित कर सकता है, जो मनुष्य परमेश्वर की समानता में पुनः स्थापित होकर प्राप्त कर सकता है। PPHin 628.1