Loading...
Larger font
Smaller font
Copy
Print
Contents

कुलपिता और भविष्यवक्ता

 - Contents
  • Results
  • Related
  • Featured
No results found for: "".
  • Weighted Relevancy
  • Content Sequence
  • Relevancy
  • Earliest First
  • Latest First
    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents

    अध्याय 1—पाप को अनुमति क्‍यों दी गई

    1 यहुन्ना 4:16 में लिखा है, “परमेश्वर प्रेम है।” उसका स्वभाव, उसका कानून, प्रेम है। वह हमेशा से था और हमेशा रहेगा। वह जो उच्च है और जिसको ऊपर उठाया गया है, और जो अमर है, जो” सदा से ही ऐसा रहाहै’ बदलता नहीं। वह नक्षत्रों की गतिविधि से उत्पन्न छाया से कभी बदलता नहीं है। (यशायाह 57:15, हबक्क्‌क 3:6, जेम्स 1:17)PPHin 19.1

    रचनात्मक योग्यता की हर अभिव्यक्ति उसके अनंत प्रेम की अभिव्यक्ति है। परमेश्वर की सम्प्रभुता सभी सृजन किये हुए प्राणियों को आशीषों की परिपूर्णता से सम्बद्ध है। भजन संहिता 89:143-18 में लिखा है, “हे परमेश्वर तू समर्थ है,तेरी शक्ति महान है, तेरी ही विजय है, तेरा राज्य सत्य और न्याय पर आधारित है, प्रेम और भक्ति तेरे सिंहासन के सैनिक है, हे परमेश्वर तेरे भक्त सचमुच प्रसन्‍न है, वे तेरी करूणा के प्रकाश में जीवित रहते है, तेरा नाम उनको सदा प्रसन्‍न करता है, वे तेरे खरेपन की प्रशंसा करते है, तृडन की अद्भुत शक्ति है, उनको तुझसे बल मिलता है। हे यहोवा, तू हमारा रक्षक है, इज़राइल का वह पवित्र हमारा राजा है”।PPHin 19.2

    अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष का इतिहास, उस समय से जब वह सबसे पहले स्वर्ग में शुरू हुआ और विद्रोह के पराभव और पाप के नाश तक परमेश्वर के अपरिवर्तनीय प्रेम का प्रदर्शन है।PPHin 19.3

    उपकार के अपने काम मे सृष्टि का प्रभु अकला नहीं था। उसका एक साथी था-एक सहकर्मी जो उसके उद्देश्य की सराहना कर सकता था, जो सृजन किये हुए प्राणियों को आनन्दित करने के आनंद में उसका भागीदार हो सकता था। यहुन्ना 1:1,2 में लिखा है, “आदि में शब्द था। शब्द परमेश्वर के साथ था। शब्द ही परमेश्वर था”। मसीह, शब्द, परमेश्वर का इकलौता पुत्र सनातन परमेश्वर के साथ था, दोनों के स्वभाव, चरित्र और उद्देश्य एक थे, वह एकाकी हस्ती जो परमेश्वर के हर उद्देश्य और विचार-विनिमय में हिस्सेदार था। यशायाह 4:6 में लिखा है, “उसका नाम अद्भुत, युक्ति करने वाला, पराक्रमी परमेश्वर, अनन्तकाल का पिता और शान्ति का राजकुमार रखा जाएगा ।” मीका 5:2 में लिखा है “उसका निकलना प्राचीन काल से, वरन अनादि काल से होता आया है” और परमेश्वर का पुत्र स्वयं से सम्बन्धित घोषणा करता है। “यहोवा ने मुझे काम करने के आरम्भ में, वरन अपने प्राचीन काल के कामों से भी पहले उत्पन्न किया। मैं सदा से वरन आदि ही से ठहराया गया हूँ उसने धरती की नीवों का सूत्रपात किया, तब मैं उसके साथ कुशल शिल्पी सा था। और प्रतिदिन मैं उसके लिये प्रसन्‍नता थी जो हमेशा उसके सामने आनन्दित रहती थी।”नीतिवचन 8:22--30PPHin 19.4

    पिता ने समस्त स्वर्गीय प्राणियों की सृष्टि पुत्र द्वारा की। कुलुस्सियों 1:16 में लिखा है, “उसी में सारी वस्तुओं की सृष्टि हुईं....क्या सिंहासन, क्या प्रभुताएं, क्या प्रधानताएं या अधिकार, सारी वस्तुएँ उसी के द्वारा और उसी के लिये सृजी गई है”। परमेश्वर की उपस्थिति से प्रवाहित प्रकाश से प्रकाशवान और उसकी इच्छा का पालन करने को तीव्र गति से उड़ते स्वर्गदूत परमेश्वर के कर्मकर है। लेकिन परमेश्वर का पुत्र, परमेश्वर द्वारा अभिषेक किया हुआ, “उसके तत्व की छाप” “उस की महिमा का प्रकाश” “सब इन सब पर प्रभुत्व रखता है”। यिर्मयाह 17:12 में लिखा है-“आरम्भ से ही हमारा आराधनालय परमेश्वर के लिये एक गौरवशाली सिंहासन था” “धार्मिकता का राजदण्ड” उसके राज्य का राजदण्ड (इब्रानियों 1:8)।भजन संहिता 96:6 के अनुसार, “उसके सम्मुख सुन्दर महिमा दीप्त है, परमेश्वर के पवित्र मन्दिर में सामर्थ्य और सौन्दर्य है।’ भजन संहिता 89:14में लिखा है, “करूणा और सच्चाई तेरे आगे-आगे चलती है।PPHin 20.1

    परमेश्वर के राज्य की नींव प्रेम का सिद्धान्त है। इसलिये समस्त बुद्धिमान प्राणियों की प्रसन्‍नता धार्मिकता के महान सिद्धान्तों के साथ सहमत होने पर निर्भर है। परमेश्वर अपने द्वारा सृजन किये गये सभी प्राणियों से प्रेमपूर्ण सेवा चाहता है, सेवा जो उसके चरित्र की सराहना से फलती है। बलपूर्वक आज्ञापालन कराने में उसे कोई आनन्द नहीं आता,वह सबको इच्छाशक्ति की स्वतन्त्रता प्रदान करता है, ताकि वे उसे अपनी स्वैच्छिक सेवा दें ।जब तक सब सृजित प्राणी प्रेम की निष्ठा का अंगीकार करते रहे, परमेश्वर की सृष्टि में पूर्ण सामंजस्य था। अपने सृजनहार के उद्देश्य की पूर्ति करना स्वर्गीय समुदाय का आनन्द था। उसकी महिमा को प्रतिबिंबित करने में और उसका गुणगान करने में वे प्रफुल्लित होते थे, और जब तक परमेश्वर के प्रति प्रेम उच्चतम था, परस्पर प्रेम निःस्वार्थ और विश्वासपूर्ण था। कोई ऐसा कलह का सुर नहीं था जो स्वर्गीय समरसता को आघात पहुँचाता। लेकिन इस आनन्दमय अवस्था में बदलाव आया। कोई ऐसा था जिसने परमेश्वर द्वारा सृजित प्राणियों को दी गई स्वतंत्रता को विकृत कर दिया। पाप का जन्म उसी के साथ हुआ जो यीशु से दूसरे स्थान पर था, परमेश्वर द्वारा सम्मानित था और स्वर्ग के निवासियों के बीच अधिकार और प्रतिष्ठा में सबसे ऊँचा था। लूसिफेर, “प्रात:काल का पुत्र” प्रावरण करने वाले करूबों में प्रथम था, बेदाग और पवित्र। वह महान सृष्टिकर्ता की उपस्थिति में खड़ा रहता था और सनातन परमेश्वर को आवरित करने वाली महिमा की किरणें उस पर टिकी रहती थी। “तू तो उत्तम से भी उत्तम है, तू बुद्धि से भरपूर और सर्वांग सुन्दर है। तू परमेश्वर की अदन नामक बारी में था, तेरे पास भांति-भांति के मणि और सोने के पहरावे थे, तू छाने वाला अभिषिक्त करूब था, मैंने तुझे ऐसा ठहराया कि तू परमेश्वर के पवित्र पवर्त पर रहता था, तू आग सरीखे चमकाने वाले मणियों के बीच चलता फिरता था। जिस दिन से तू सजा गया, और जिस दिन तक तुझ में कूटिलता नहीं पाई गई, उस समय तक तू अपने सारे चाल-चलन में निर्दोष रहा । यहेजकेल 28:12-15।PPHin 20.2

    धीरे-धीरे लूसिफेर में स्वयं की पदोन्‍नति की अभिलाषा जाग उठी। पवित्र शास्त्र कहता है, “सुन्दरता के कारण तेरा मन फूल उठा था, और वैभव के कारण तेरी बुद्धि बिगड़ गई थी”-यहेजकेल 28:17 ।तू मन में कहता तो थाकि में अपने सिंहासन को ईश्वर के तारागण से अधिक ऊँचा करूंगा..........मैं परम-परमेश्वर के तुल्य हो जाऊँगा”- यशायाह 14:13,14 ।जबकि लूसिफेर का सारा प्रताप परमेश्वर के माध्यम से था, यह शक्तिशाली स्वर्गदूत उसे स्वयं की मानने लगा था। अपने पद से असंतुष्ट, स्वर्गीय समूह से ऊपर सम्मानित होते हुए भी उसने उस निष्ठाभाव को हड़पना चाहा, जिसका अधिकार केवल सृष्टिकर्ता को था। समस्त प्राणी जगत की निष्ठा और आसक्ति में परमेश्वर को सर्वोच्च बनाने में सहायक होने के बजाय उसकी कोशिश यही थी कि प्राणीगण अपनी सेवाएं और स्वामिभक्ति उसको अर्पण करें। और पिता द्वारा पुत्र को प्रदान की गईं महिमा की लालसा रखते हुए, यह स्वर्गदूतों का राजकुमार उस अधिकार का महत्वकांक्षी था जो केवल यीशु का था। PPHin 21.1

    अब स्वर्ग का संपूर्ण सांमजस्य टूट सा गया था। लूसिफेर का सृजनहार के बजाय स्वंयसेवा का आचरण देखकर उनको, जो परमेश्वर की महिमा को उत्तम मानते थे, सन्देह होने लगा। स्वर्गीय सभा में स्वर्गदूतों ने लूसिफेर से विनती की। परमेश्वर के पुत्र ने उसके समक्ष सृष्टिकर्ता की महानता, अच्छाई और न्यायबद्धता और उसके नियमों के पवित्र और अपरिवर्तनीय स्वभाव को रखा। परमेश्वर ने स्वंय स्वर्ग की व्यवस्था को स्थापित किया था, और उसका तिरस्कार करने पर लूसिफेर, अपने सृष्टिकर्ता का अपमान कर, स्वयं का विनाश करता। लेकिन अनन्त प्रेम और कृपा से दी गईं चेतावनी ने उसमें केवल प्रतिरोध की भावना को जगाया। लूसिफेर ने यीशु के प्रति इष्याभाव को पनपने दिया और वह और भी दृढ़-निश्वय हो गया।PPHin 21.2

    सृष्टिकर्ता की बुद्धिमत्ता और प्रेम पर सन्देह करते हुए, परमेश्वर के पुत्र के प्रभुत्व को विवादास्पद बनाना ही इस स्वर्गदूतों के राजकुमार का उद्देश्य बन गया था। लूसिफेर जो यीशु से दूसरे स्थान पर था, जो परमेश्वर की सेना में प्रथम था, अपनी असामान्य बुद्धि की क्षमता को इसी लक्ष्य पर केंद्रित करने वाला था। लेकिन प्रत्येक प्राणी को इच्छाशक्ति की स्वतन्त्रता देने वाले परमेश्वर ने किसी को भी उलझाने वाले कुतक, जिससे विद्रोह स्वयं को उचित सिद्ध करता, से असावधान नहीं छोड़ा। प्रतियोगिता के शुरू होने से पूर्व, सभी को उसकी इच्छा का स्पष्ट प्रदर्शन होना था, जिसकी बुद्धिमत्ता और अच्छाई में उनकी प्रसन्नता का सोता था। PPHin 22.1

    सृष्टि के सम्राट ने स्वर्गीय समुदाय को बुलाया, ताकि उनकी उपस्थिति में वह अपने पुत्र का सही स्थान बता सके और पुत्र और सभी सृजित प्राणियों के साथ उसके सम्बन्ध को समझा सके। परमेश्वर का पुत्र, पिता के सिंहासन का सहभागी था, और सनातन स्व-विद्यमान की महिमा दोनों को घेरे थी। सिंहासन के चारों और पवित्र स्वर्गदूत अनगिनत संख्या में-“लाखों, करोड़ो में” (प्रकाशित वाक्य 4:5,11)जमा हुए। यह कार्यकर्ता और प्रजा के रूप में उच्चतम गौरावान्वित स्वर्गदूत थे जो प्रभु की उपस्थिति से प्रवाहित प्रकाश में आनन्द मग्न थे [स्वर्ग के एकत्रित निवासियों के समक्ष राजा ने घोषणा की कि केवल परमेश्वर का इकलौता पुत्र यीशु, उसके उद्देश्यों को जान सकता है और उसकी इच्छाओं की महान सम्मति के क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता उसी को दी गई थी। स्वर्ग के वासियों को सृष्टि में परमेश्वर के पुत्र ने पिता की इच्छा को पूरा किया। और वे दोनों ही उनकी श्रद्धांजलि और निष्ठा पाने का अधिकार रखते है। अभी यीशु का पृथ्वी और पृथ्वी वासियों की सृष्टि में ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग करना बाकी था। लेकिन इसमें उसने ईश्वर की योजना के विपरीत, स्वयं की पदोन्नति की लालसा नहीं की ।उसने अपने पिता की महिमा को ऊँचा किया। और उसके प्रेम और उपकार के प्रयोजनों कार्यान्वित किया ।PPHin 22.2

    स्वर्गदूतों ने प्रसन्‍नतापूर्वक यीशु के प्रभुत्व को स्वीकार किया और उसके आगे दण्डवत होते हुए, अपने प्रेम और भक्ति का प्रदर्शन किया। लूसिफेर भी उनके साथ झुका, लेकिन उसके हृदय में एक अद्भुत उग्र संघर्ष था। सत्य, न्याय और निष्ठा, ईर्ष्या और द्वेष के प्रति संघर्षरत थे। पवित्र स्वर्गदूतों का प्रभाव कुछ समय तकउसे उनकी तरफ ले गया। जैसे-जैसे महिमागान के मीठी धुनें हजारों प्रसन्‍नचित आवाजों के साथ गूंजने लगी, बुराई की आत्मा गायब होती प्रतीत होने लगी, उसका अस्तित्व अकथनीय प्रेम से प्रसन्‍नचित हो गया, उसकी आत्मा पाप रहित भक्तों के साथ हो ली, और हृदय पिता और पुत्र के लिये प्रेम से भर गया ।लेकिन फिर से वह अपनी महिमा के घमण्ड से भर गया। प्रभुत्व के लिए उसकी लालसा पुनः जागृत हो गई और यीशु के प्रति वह फिर ईर्ष्या से भर गया। जो उच्च सम्मान लूसिफेर को प्राप्त थे, उनको उसने ईश्वर के विशेष वरदान के रूप में नहीं स्वीकारा और इस कारण वह अपने सृष्टिकर्ता के प्रति आभारी नहीं हुआ। वह स्वयं की चमक और बढ़ोतरी में उन्मुक्त था और ईश्वर तुल्य होने के स्वप्न देखने लगा। वह स्वर्ग के निवासियों में सम्मानित था और उनका प्रिय था, स्वर्गदूत उसकी आज्ञाओं का प्रसन्नतापूर्वक पालन करते थे, और वह उनसे ज्यादा बुद्धिमता और महिमा से आवृत था। लेकिन परमेश्वर का पुत्र उससे उच्चतम था, क्‍योंकि प्राधिकार और सामर्थ्य में पिता और पुत्र एक थे। पुत्र पिता के विचार-विनिमय में भागीदार था, जबकि लूसिफेर का परमेश्वर के उद्देश्यों में कोई हिस्सा नहीं था। ‘यीशु के पास प्रभुत्व क्यों होना चाहिये? इस शक्तिशाली स्वर्गदूत ने प्रश्न किया, “इसे लूसिफेर से ज्यादा सम्मान क्‍यों दिया जाए?” PPHin 23.1

    पिता परमेश्वर की उपस्थिति में अपने स्थान को छोड़ कर लूसिफेर स्वर्गदूतों में असन्तोष की भावना फैलाने निकल पड़ा। उसने रहस्यमयी गोपनीयता के साथ काम किया और कुछ समय तक अपने वास्तविक लक्ष्य को ईश्वर के प्रति श्रद्धा के रूप में अप्रकट रखा। उसने स्वर्ग के वासियों को नियमित करने वाली व्यवस्था के सम्बन्ध में सन्देह पैदा करना शुरू किया और यह जताना शुरू किया कि व्यवस्था की आवश्यकता जगत के वासियों के लिए होगी;स्वर्गदूतों को जो उनसे उच्चतम है, ऐसी नियमबद्धता की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उनकी अपनी बुद्धिमता एक कुशल सलाहकार है। वे परमेश्वर का निरादर करने वाले नहीं हो सकते थे, उनके विचार पवित्र थे, उनके लिये परमेश्वर की तरह ही गलती करना असम्भव था। चूंकि लूसिफेर भी आदर और सम्मान का पात्र था,परमेश्वर के पुत्र का पिता के तुल्य होने को लूसिफेर के साथ अन्याय समान दिखलाया गया। उसे उसके वास्तविक उच्चतम स्थान की प्राप्ति हो जाने पर समस्त स्वर्गीय समुदाय का भला हो सकता था; लेकिन अब वह स्वतन्त्रता जिसका आंनद अभी तक उठाया था, समाप्त होने को थी, क्योंकि उनके लिए एक शासक को नियुक्‍त कर दिया गया था और सभी को उसकी सत्ता को श्रद्धांजलि देनी थी। इस तरह के चतुर रूप से व्यवस्थित भ्रम लूसिफेर की चालों से स्वर्गीय दरबार में फैल रहे थे। PPHin 23.2

    यीशु के पद या अधिकार में कोई बदलाव नहीं आया था। लूसिफेर की ईर्ष्या और गलत विवरण के कारण और यीशु के साथ बराबरी के दावे के फलस्वरूप परमेश्वर के पुत्र के सही स्थान के बारे में घोषणा अनिवार्य हो गई थी, जबकि उसका यह स्थान आरम्म से ही था। लेकिन फिर भी कई स्वर्गदूत लूसिफेर के छलावे में अंधे हो गए थे। PPHin 24.1

    उसके अधीन पवित्र प्राणियों के निष्ठावान विश्वास का लाभ उठाते हुए, उसने स्वयं के अविश्वास और असन्तोष को उनके मनों में ऐसी कलाकारी से बैठाया कि उन्हें उसके माध्यम का आभास ही नहीं हुआ। लूसिफेर ने परमेश्वर के प्रावधानों को कपटपूर्ण प्रकाश में दिखाया- विकृत और भ्रम पैदा करने वाले तरीके से जिससे सुनने वालों का असन्तोष और असहमति जागृत हुई। उसने चालाकी से अपने सुनने वालों को अपनी भावनाएँ व्यक्त करने पर विवश कर दिया। फिर अपना काम निकालने के लिए वह इन्हीं अभिव्यक्तियों को बतौर साक्षी दोहराता कि स्वर्गदूत ईश्वरीय सत्ता के प्रति पूर्णतया सहमत नहीं थे। PPHin 24.2

    परमेश्वर के प्रति स्वयं की निष्ठा का दावा करते हुए, उसने आग्रह किया कि ईश्वरीय सत्ता की स्थिरता के लिये नियम और परिवर्तन करना अनिवार्य था। इसलिये ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति विद्रोह को बढ़ावा देने के लिये, स्वयं का असन्तोष अपने अधीन स्वर्गदूतों के मनों में बैठाने के लिये, वह असंतोष को दूर करने और असंतुष्ट स्वर्गंदूतों का स्वर्ग की व्यवस्था से मेल-मिलाप करवाने का आडंबर रच रहा था। गुप्त रूप से भेदभाव और विद्रोह को बढ़ावा देते हुए उसने कपट से ऐसा प्रतीत होने दिया, जैसे उसका मूल उद्देश्य निष्ठा का समर्थन करना और शान्ति और सहमति बनाए रखना था। PPHin 24.3

    असन्तोष की भावना जो उत्पन्न की गई थी अपना विनाशकारी कार्य कर रही थी। हालांकि सदृश्य विद्रोह नहीं था, स्वर्गंदूतों में अलक्षित रूप से मतभेद बढ़ रहा था। कुछ ऐसे थे जो परमेश्वर की सत्ता के विरूद्ध लूसिफेर के परोक्ष रूप से दोषारोपण करने का समर्थन करते थे। हालांकि अभी तक वे परमेश्वर द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुकूल थे, लेकिन अब वे असन्तुष्ट और अप्रसन्न थे क्योंकि वे उसकी रहस्यमयी सम्मति को समझने में अयोग्य थे; यीशु को ऊंचा उठाने के, परमेश्वर के, उद्देश्य से वे असंतुष्ट थे। परमेश्वर के पुत्र के साथ समान अधिकार की मांग में वे लूसिफेर का साथ देने को तैयार थे। लेकिन जो स्वर्गदूत सच्चे और निष्ठावान थे, अभी भी पवित्र व्यवस्था में निहित न्याय और बुद्धिमता को पकड़े हुए थे और इस असमन्तुष्ट प्राणी का ईश्वरीय इच्छा से मेल कराने में लगे थे। यीशु परमेश्वर का पुत्र था, स्वर्गदूतों के अस्तित्व में आने से पूर्व यीशु और पिता परमेश्वर एक थे। वह हमेशा से पिता के सीधे हाथ पर विराजमान था। उसके प्रभुत्व को, जो उसके हितकारी नियन्त्रण में रह रहे लोगो के लिये भरपूर आशीष का स्रोत था, किसी ने भी विवादास्पद नहीं ठहराया था। स्वर्ग की शान्ति कभी भंग नहीं हुई थी, तो अब असहमति क्‍यों होती?स्वामीभक्त स्वर्गदूत केवल इस असहमति के भयानक परिणामों को देख सकते थे, और उन्होंने गंभीर अनुनय के साथ असन्तुष्ट स्वर्गदूतों को परामर्श दिया कि वे अपना उद्देश्य त्याग दें और परमेश्वर की सत्ता के प्रति ईमानदारी से अपने आप को परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होने का प्रमाण दे ।PPHin 24.4

    बड़ी दया के साथ, अपने ईश्वरीय चरित्र के अनुसार परमेश्वर ने लूसिफेर को देर तक सहा। स्वर्ग अंसतोष और अनिष्ठा की भावना से अछता था। यह एक नया तत्व था, जो अद्भुत, रहस्यमयी और अनुत्तरदायी था। लूसिफेर का स्वंय प्रारम्भ में अपनी भावनाओं के वास्तविक स्वभाव से परिचय नहीं था। कुछ समय के लिये वह अपने मन की कल्पनाओं को अभिव्यक्त करने से डरता था, लेकिन उनको नकारता भी नहीं था। उसने यह नहीं देखा कि वह किधर बह रहा था। लेकिन अनंत प्रेम और बुद्धिमता से उत्पन्न प्रयत्न किये गए कि उसे अपनी गलती का विश्वास हो ।PPHin 25.1

    यह साबित किया गया कि उसकी अनिष्ठा अकारण थी और उसको दिखाया गया कि उसके लगातार विद्रोह करने का नतीजा क्‍या होगा। लूसिफेर विश्वस्त हो गया कि वह गलत था। उसने देखा कि “यहोवा जो भी करता है, अच्छा ही करता है। यहोवा जो भी करता है, उसमें निज सच्चा प्रेम प्रकट करता है-भजन संहिता 145:17PPHin 25.2

    उसने यह भी जाना कि पवित्र अधिनियम नन्यायसंगत है, और उसे इन्हें समस्त स्वर्ग के सामने अंगीकार करना है। अगर उसने ऐसा किया होता तो उसने स्वयं को और कई स्वर्गदूतों को बचा लिया होता। उस समय उसने परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा को पूरी तरह नहीं त्यागा था। हालांकि उसने ढांकने वाले करूब का स्थान छोड़ दिया था, यदि सृष्टिकर्ता की बुद्धिमता को स्वीकारते हुए और परमेश्वर की योजना में अपने नियुकक्‍त स्थान पर सन्तुष्ट होकर, परमेश्वर के पास लौटने को तैयार होता तो उसे अपने पद पर पुनः स्थापित कर दिया जाता। अन्तिम निर्णय का समय आ गया था या तो उसे ईश्वरीय संप्रभुता को सर्म्पण करना था, या स्पष्ट रूप से विद्रोह में स्थिर करना था। वह लगभग लौटने के निर्णय पर पहुँच गया, लेकिन घमण्ड ने उसे रोक दिया। इतने ऊँचे सम्मान के पात्र, लूसिफेर के लिये यह मान लेना कि वह गलत था, उसकी कल्पनाएं मिथ्या थी और उस प्रभुता के आगे समर्पण करना जिसे वह अन्यायपूर्ण प्रमाणित करने का प्रयत्न कर रहा था, बहुत बड़ा त्याग था।PPHin 26.1

    लूसिफेर और उसके अनुनायियों के लिये दया से भरपूर, एक दयावान सृष्टिकर्ता उन्हें उस विनाश की खाई से, जिसमें वे कूदने वाले थे, पीछे खींचने के लिए प्रयत्नशील था। लेकिन उसकी कृपा दृष्टि का गलत मतलब निकाला गया परमेश्वर की सहनशीलता को लूसिफेर ने स्वयं की श्रेष्ठता का प्रमाण बताया, और यह संकेत दिया कि सृष्टि का राजा अभी भी उसकी शर्तों को सहमति देगा। उसने घोषणा की कि यदि स्वर्गदूत दृढ़ता से उसके साथ खड़े रहे तो वे वह सब कुछ पा सकते थे जिसके वे इच्छुक थे। उसने लगातार अपने रास्ते का समर्थन किया और स्वयं को पूर्णरूप से सृष्टिकर्ता के विरूद्ध विवाद के लिये वचनबद्ध कर दिया। इस तरह लूसिफेर “प्रकाशवाहक”, परमेश्वर की महिमा का भागीदार, उसके सिंहासन का सेवक, उल्लंघन करने पर शैतान बना, परमेश्वर और पवित्र दूतों का वह “विरोधी” और उनका विनाशक जिन्हें स्वर्ग ने उसके दिशा निर्देश और संरक्षण के सुपुर्द किया था।PPHin 26.2

    निष्ठावान स्वर्गदूतों के तकोँ और अनुनय का उसने तिरस्कार भरे अस्वीकरण से, उनको भ्रमित दासकहकर उनकी भर्त्सना की। यीशु को दी गईं प्राथमिकता को उसने, अपने और समस्त स्वर्गीय समूह के प्रति अन्याय का कार्य घोषित किया और सूचित किया कि अब वह अपने और उनके अधिकारों में हस्तक्षेप के आगे आत्म समर्पण नहीं करेगा; वह कभी भी यीशु के प्रभुत्व को नहीं स्वीकारेगा। वह उस सम्मान का दावा करने को, जो उसे दिया जाना चाहिए था और अपने होने वाले अनुयायियों पर प्रभुत्व करने को कृत-निश्चय था; और उसने उसके जत्थे में आने वालो को एक नई और बहतर सत्ता का आश्वासन दिया, जिसमें सभी को स्वतंत्रता मिलने वाली थी। बड़ी संख्या में स्वर्गंदूतोंने उसे अपना अगुवा मानने का कारण स्पष्ट किया। अपनी बढ़ोतरी के समर्थन से प्रोत्साहित होकर, वह आशा करने लगा कि वह सब स्वर्गदूतों को अपनी तरफ खींच लेगा, परमेश्वर के तुल्य हो जाएगा और समस्त स्वर्ग के निवासी उसका आज्ञा-पालन करेंगे ।PPHin 26.3

    फिर भी निष्ठावान स्वर्गदूत, उससे और उससे सहानुभूति रखने वालों से परमेश्वर को समर्पण करने की दुहाई देते रहे और उनके मना करने पर जो परिणाम सामने आने वाला था, उससे उनको परिचित कराया। उनका सृष्टिकर्ता उनकी शक्ति को परास्त करने में सक्षम था और उपद्रवी निर्भकता को दण्डित कर सकता था। कोई भी स्वर्गदूत परमेश्वर की व्यवस्था, जो उसी की तरह पवित्र थी, कासफलतापूर्वक विरोध नहीं कर सकता था। उन्होंने सभी को चेतावनी दी कि वे लूसिफेर के कपटी विवेक के प्रति अपने कान बन्द कर लें। उन्होंने लूसिफेर और उसके अनुनायियों से विनती की कि बिना विलम्ब किये वे परमेश्वर की उपस्थिति में जाएं और उसकी बुद्धिमता और स्वाभित्व पर प्रश्न करने की गलती को स्वीकार करें ।PPHin 27.1

    कईइस परामर्श को ग्रहण करना चाहते थे, अपनी अनिष्ठा का पश्चाताप करना चाहते थे, और पुनः परमेश्वर और उसके पुत्र केपक्ष में होना चाहते थे, लेकिन लूसिफेर के पास दूसरा भ्रम तैयार था। इस शक्तिशाली उपद्रवी ने घोषणा की कि जो स्वर्गदूत उसके साथ जुड़ गए थे, उनकी वापसी असंभव थी क्‍योंकि वह ईश्वरीय. व्यवस्था से परिचित था और जानता था कि परमेश्वर उन्हें क्षमा नहीं करेगा। उसने घोषणा की कि जो भी स्वर्ग के प्रभुत्व के आगे समर्पण करेगा, उन्हें उनके सम्मान से वंचित कर दिया जाएगा और उनकेपद से नीचे उतार दिया जाएगा। जहां तक उसका प्रश्न था, वह कत-निश्चय था कि कभी भी यीशु के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करेगा। उसने कहा कि उसके अनुयायियों के लिए और स्वयं उसके लिए यही रास्ता बचा था कि वे अपनी स्वतन्त्रता का दावा करें, और बलपूर्वक उन अधिकारों को प्राप्त करें जो उन्हें स्वेच्छा से नहीं दिये गए थे।PPHin 27.2

    शैतान के प्रसंग मेंकहा जा सकता है कि उसका लौटना असंभव था, पर ऐसा उनके साथ नहीं था जो उसके कपट से अन्धे हो गए थे। उनके लिए निष्ठावान स्वर्गदूतों के परामर्श और अनुनय ने आशा का द्वार खोला था, और यदि उन्होंने उस चेतावनी को गंभीरता से लिया होता तो वह शैतान के शिकंजे से छूट सकते थे। लेकिन घमण्ड,अपने नेता के प्रति प्रेम, और असीमित स्वतन्त्रता की मनोकामना को हावी होने दिया गया और ईश्वरीय प्रेम और कृपा की विनतियों को अंत में अस्वीकार कर दिया गया।PPHin 28.1

    परमेश्वर ने शैतान को उस समय तक कार्य करने दिया जब तक असन्तोष ने सक्रिय उपद्रव का रूप धारण किया। उसकी योजनाओं का पूर्ण रूप से विकसित होना अनिवार्य था ताकि सब उन योजनाओं का वास्तविक स्वभाव और प्रवृति को देख सकें। अभिषेक किया हुए करूब के रूप में लूसिफेर को उच्च स्थान दिया गया था, वह स्वर्गीय समुदाय का प्रिय था और उसका उन पर गहरा प्रभाव था। परमेश्वर की सत्ता में केवल स्वर्ग के वासी ही नहीं वरन उसके द्वारा रचित दूसरे जगत भी सम्मिलित थे, और लूसिफेर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यदि वह स्वर्ग के स्वर्गदूतों को विद्रोह के लिए उकसा सकता था, तो वह अन्य जगतों को भी सम्मिलित कर सकता था। उसने अपने लक्ष्य को सुरक्षित करने के लिए, कृतक और छल से अपना प्रश्न-पक्ष चालाकी से प्रस्तुत किया था। उसमें बहकाने की शक्ति बहुत थी। अपने आप को झूठ के आवरण में छुपाकर उसने अनुकूल परिस्थिति प्राप्त कर ली थी। उसके समस्त कार्य इस तरह रहस्यमयी थे कि स्वर्गदूतों को उसके कार्य का वास्तविक स्वभाव बताना कठिन था। पूर्ण विकास से पहले, यह प्रतीत नहीं कराया जा सकता था कि वह कार्य कितना हानिकारक था; उसकी अनिष्ठा विद्रोह नहीं लगती। निष्ठावान स्वर्गदूत उसके चरित्र को पूरी तरह नहीं समझ पाए और ना ही यह देख पाए कि उसका काम किस दिशा में था।PPHin 28.2

    प्रारम्भ में लूसिफेर ने अपने प्रलोभनों को इस तरह संचालित किया कि वह स्वयं अप्रतिबद्ध प्रतीत हुआ। जिन स्वर्गदूतों को वह पूर्णतया अपने पक्ष में नहीं कर पाया, उन पर उसने स्वर्ग के वासियों के हित के प्रति उदासीन होने का लांछन लगाया। जो काम वह स्वयं कर रहा था, उसका उत्तरदायी उसने निष्ठावान स्वर्गदूतों को ठहराया। जटिल तर्को से परमेश्वर के प्रयोजनों को पेचीदा बनाना उसकी नीति थी। साधारण को उसने रहस्यमयी बना दिया और धूर्ततापूर्ण विकति से यहोवा की सबसे साधारण उक्तियों को भी सन्देहास्पद बना दिया। और उसके ऊंचे पद के कारण, जो ईश्वरीय सत्ता के साथ जुड़ा हुआ था, उसके प्रतिवेदनों को बल मिला।PPHin 28.3

    परमेश्वर उन्हीं युक्तियों का प्रयोग कर सकता था जो सत्य और धार्मिकता से संगत थी। शैतान चापलूसी और छल का प्रयोग कर सकता था जो परमेश्वर नहीं कर सकता था। उसने वचन को झूठा ठहराने की कोशिश की थी और यह दावा करते हुए कि स्वर्गदूतों पर व्यवस्था थोपने वाला परमेश्वर अन्यायी था और समस्त प्राणियों से समर्पण और आज्ञाकारिता की उपेक्षा करने में वह सिफ अपनी बढ़ोतरी चाहता था, उसने ईश्वरीय सत्ता की योजना को गलत विवरण किया। इसलिये यह प्रदर्शित करना कि परमेश्वर की सत्ता न्यायसंगत है ओर उसकी व्यवस्था भली है, अनिवार्य था । शैतान ने ऐसा प्रतीत होने दिया जैसे वह सृष्टि की भलाई को बढ़ावा दे रहा था। हड़पने वाले के वास्तविक चरित्र और उसके वास्तविक लक्ष्य की समझ सबको होनी चाहिये। अपने आपको अपने कुकर्मों से प्रकट करने के लिए उसे समय चाहिये था।PPHin 29.1

    अपने चुने हुए रास्ते से स्वर्ग में अशांति फैलाने का आरोप शैतान ने ईश्वरीय सत्ता पर लगाया। उसने घोषणा की कि हर बुराई ईश्वरीय प्रबंधन का परिणाम है। उसने दावा किया कि यहोवा की विधियों में सुधार उसका अपना लक्ष्य था। इसलिये परमेश्वर ने उसे अपने दावों के स्वभाव को प्रमाणित करने दिया, ताकि वह ईश्वरीय व्यवस्था में प्रस्तावित परिवर्तन की योजना को बता सकें। वह अपने ही कामों के द्वारा दोषी था। शैतान ने आरम्भ से ही विद्रोह में ना होने का दावा किया था।PPHin 29.2

    सम्पूर्ण सृष्टि के द्वारा शैतान को बेनकाब हुआ देखा जाना अनिवार्य था अनंत बुद्धिमता ने शैतान को स्वर्ग से निकाल फेंकने के बाद भी नष्ट नहीं किया। परमेश्वर को केवल प्रेम से प्रेरित सेवा ही स्वीकार है, इसलिये उसके द्वारा सृजित प्राणियों की आज्ञाकारिता उसके न्याय और उदारता में विश्वास पर आधारित होनी चाहिये ।स्वर्ग और जगतो के वासी जो अभी पाप के स्वभाव और परिणाम की कल्पना के लिये तैयार नहीं थे, शैतान के विनाश में ईश्वर के न्याय को नहीं देख पाते ।यदि शैतान के अस्तित्व को तुरन्त मिटा दिया जाता, तो कुछ परमेश्वर की पूजा-अर्चना प्रेम से प्रभावित होकर नहीं बल्कि डर से करते। कपटी का प्रभाव पूरी तरह नष्ट नहीं होता, और ना ही उपद्रव की भावना का पूरी तरह नाश होता। युगों से सम्पूर्ण जगत के भले के लिये उसे अपने सिद्धांत को सम्पूर्ण से विकसित करना था ताकि ईश्वरीय सत्ता के विरूद्ध उसके आरोप सभी प्राणियों द्वारा सही दृष्टिकोण से देखे जा सके और परमेश्वर का न्याय और उसकी कृपा और उसकी व्यवस्था की अपरिवर्तनीयता सन्देहरहित हो सके ।PPHin 29.3

    आने वाले सभी युगों में शैतान का उपद्रव जगत के लिये सबक था- पाप का स्वभाव और उसके भयंकर परिणामों की अनंत गवाही। शैतान के शासन का योजनाबद्ध होना, उसका मानव और स्वर्गदूतों पर प्रभाव, ईश्वरीय प्रभुत्व को नकारने के परिणाम को दर्शाता। इससे इस बात की पुष्टि होती कि सभी प्राणी-जगत की भलाई ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व में निहित है। इस रीति से, उपद्रव के इस भंयकर परीक्षण का इतिहास सभी पवित्र प्राणियों के लिये एक अनंत सुरक्षा कवच था जिससे कि वे छलावे से बच सके, पाप करने से बच सके और पाप का दण्ड भुगतने से बच सके ।PPHin 30.1

    वह जो स्वर्ग में राज करता है वही है जो अंत को आरम्भ से देख सकता है- वह जिसके सामने भूतकाल और भविष्य के रहस्य एक समान फैले हुए है, और जो, पाप द्वारा गढ़े हुए दुख और अन्धकार और विनाश से परे, प्रेम और आशीष के अपने प्रयोजनों की सफलता को देख सकता है। भजन संहिता 97:2 में लिखा है, “बादल और अन्धकार उसके चारों ओर है, उसके सिंहासन का मूल धर्म और न्याय है”। और इस बात की सृष्टि के सभी, निष्ठावान और निष्ठारहित प्राणी एक दिन समझेंगे। व्यवस्थाविवरण 32:4 में लिखा हे, “वह (यहोवा) हमारी चट्टान है- उसके सभी कार्य पूर्ण है, क्योंकि उसके सभी भाग सत्य है। वह सच्चा ईश्वर है, उसमें कूटिलता नहीं है, वह धर्मी और सीधा है” ।PPHin 30.2

    Larger font
    Smaller font
    Copy
    Print
    Contents